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राहुल के नेतृत्व-कांग्रेस के जिंदा होने का यह अचूक मौका, बशर्ते…

नेशनल हेराल्ड केस को लेकर बने सियासी परिदृश्य पर वरिष्ठ पत्रकार अजय बोकिल का आलेख

कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष व सांसद राहुल गांधी की नेशनल हेराल्ड केस में प्रवर्तन निदेशालय द्वारा पूछताछ में क्या कुछ ठोस निकलेगा, निकलेगा भी या नहीं, यह कहना अभी जल्दबाजी होगी लेकिन यह नरेटिव जरूर बन रहा है कि इस पूरे प्रकरण में कांग्रेस जिस तरह अपने नेता के साथ खड़ी दिख रही है और सड़कों पर मोदी सरकार का विरोध कर रही है, वह इस बात का संकेत है कि यह राहुल गांधी का राजनी‍तिक पुनरूज्जीवन हो सकता है।

तर्क दिया जा रहा है कि इमर्जेंसी के बाद पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को भी इसी तरह शाह आयोग की जांच की आड़ में तत्कालीन जनता पार्टी सरकार ने ‘प्रताडि़त’ किया, जिसका अंतिम परिणाम यह हुआ कि जांच रिपोर्ट भी पूरी नहीं आ सकी, उलटे इंदिरा गांधी और ताकतवर होकर सत्ता में लौटीं। 1980 के उस लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का एक नारा जादू कर गया था कि ‘हमे सरकार चलाना आता है।‘ नेशनल हेराल्ड प्रकरण में यह जताने की भी कोशिश है कि चूंकि राहुल गांधी ही नहीं, समूचा गांधी परिवार ही कथित भ्रष्टाचार को लेकर राजनीतिक निशाने पर है, इसलिए प्रताड़ना की ये ‘इंतिहा’ अंतत: गांधी परिवार के प्रति जन सहानुभूति में बदलेगी।

अगर ऐसा हुआ तो शायद न सिर्फ राहुल गांधी बल्कि लगातार हाशिए पर जाती कांग्रेस की ही राजनीतिक किस्मत बदल सकती है। अच्छी बात यह है कि राहुल ने ईडी की पूछताछ को पूरी निडरता से फेस किया। इसी मामले में कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को भी ईडी ने 23 जून को पूछताछ के‍ लिए बुलाया है। वे अभी अस्वस्थ हैं। उधर सड़क पर राहुल के समर्थन में उतरी कांग्रेस को भाजपा ने ‘भ्रष्टाचार के हक में उतरी कांग्रेस’ करार दिया है। वैसे यह खुटका तो भाजपा के मन में भी है कि गांधी परिवार पर फेंका यह अस्त्र कहीं उलटा न पड़ जाए।

बहरहाल पूरे मामले का अहम पक्ष यह है कि बीते आठ साल में पहली बार ही सही, कांग्रेसियों ने सड़क पर संघर्ष का माद्दा तो दिखाया लेकिन यह परिवारवाद के पक्ष में उभरा क्षणिक जोश है या फिर सचमुच भाजपा की ‘दमन भरी नीति’ का निर्भीक प्रतिरोध है, यह आगे पता चलेगा। यह मान लेना भी जल्द बाजी होगी कि नेशनल हेराल्ड प्रकरण ने कांग्रेस में नेतृत्व का संकट हल कर दिया है।

अजय बोकिल

जहां तक नेशनल हेराल्ड अखबार में भ्रष्टाचार की बात है तो यह मामला अदालत में चल रहा है लेकिन यहां असल सवाल यही है कि क्या कांग्रेस और खुद राहुल गांधी इस घटनाक्रम को अपने पक्ष में मोड़ पाएंगे? जहां तक इस संदर्भ में राहुल की दादी इंदिरा गांधी से तुलना का प्रश्न है तो दोनो की शख्सियत और परिस्थितियों में जमीन-आसमान का फर्क है। इंदिरा गांधी इमर्जेंसी की वजह से सत्ता गंवाने के बाद दोबारा दमदारी से इसलिए लौट पाई थीं, क्योंकि उनकी राजनीतिक और प्रशासनिक योग्यता साबित हो चुकी थी। वो अकेली प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने एक नया देश बना दिया और दक्षिण एशिया का भूगोल ही बदल डाला। देश को अपने हिसाब से चलाया।

राहुल गांधी अभी ऐसी किसी परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हुए हैं। कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में उन्हें एक अवसर मिला था। लेकिन कांग्रेस के पास देश में तेजी से उभरती राष्ट्रवादी और साम्प्रदायिक राजनीति का कोई ठोस और स्पष्ट विकल्प अभी भी नजर नहीं आता। सदाशयता एक कारक हो सकती है, लेकिन राजनीति साम-दाम-दंड-भेद से चलती है। राहुल गांधी ने इसके पहले कभी सड़क पर संघर्ष नहीं किया और गांधी परिवार की स्थिति कांग्रेस में देवता समान है। राहुल सड़क पर आगे कितना संघर्ष कर पाएंगे, यह देश जरूर देखेगा।

इंदिरा गांधी की सत्ता में दमदार वापसी के पीछे एक बड़ा कारण तत्कालीन जनता पार्टी नेताओं की आपसी फूट, महत्वाकांक्षाओं के झगड़े और सरकार का दिशाहीन तरीके से चलना था, जिससे जनता जल्द ऊब गई और उसने इंदिरा गांधी पर फिर भरोसा जताया। आज भाजपा और मोदी सरकार के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। वो सुनियोजित तरीके से अपनी राजनीति कर रहे हैं, सरकार चला रहे हैं। उसमें जनता पार्टी नेताअोंकी तरह आत्मघाती अंतर्संघर्ष नहीं है। मोदी सरकार जिस ढंग से काम कर रही है, उससे देश का भला होगा या बुरा यह अलग बात है, लेकिन यह निर्विवाद है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तमाम आलोचनाअों के बाद भी अपना कद इतना ऊंचा कर लिया है कि किसी भी दूसरे नेता को उसके आसपास पहुंचने के लिए भी बहुत ज्यादा मेहनत करनी होगी, जनता का विश्वास अर्जित करना होगा। पार्ट टाइम पालिटिक्स से यह कतई संभव नहीं है। अगर राहुल खुद को पूरी निष्ठा से राजनीति में झोंक दें तो यह असंभव भी नहीं है। क्योंकि वक्त कभी एक जगह नहीं ठहरता।

राहुल के पक्ष में एक तर्क यह है कि जिस तरह से शाह आयोग को इंदिरा गांधी ने अपनी राजनीतिक प्रताड़ना का माध्यम साबित किया, वैसा राहुल के साथ भी होगा। क्योंकि नेशनल हेराल्ड का पूरा मामला राजनीति से प्रेरित है और गांधी परिवार को बदनाम करने के मकसद से है। भाजपा का मानना है कि गांधी परिवार कमजोर और संदेहास्पद होते ही कांग्रेस खुद ब खुद खत्म हो जाएगी। इस तर्क में दम है। लेकिन साथ में यह सवाल भी है कि क्या राहुल गांधी में उतनी क्षमता, प्रतिबद्धता और जनस्वीकार्यता है, जो नेशनल हेराल्ड मामले को वो अपने पक्ष में मोड़ लें और इसे अपनी नई राष्ट्रीय छवि गढ़ने का प्लेटफार्म बना लें?

इससे भी बड़ा प्रश्न तो यह है कि क्या कांग्रेस के इस सड़क पर संघर्ष के पीछे भी असल वजह परिवारवाद और खुशामदी मानसिकता ही है या फिर ‍वो सचमुच उन मुद्दों को लेकर भी इसी एकजुटता से सड़कों पर उतर सकती है, जो सीधे जनता से जुड़े हैं? क्योंकि नेशनल हेराल्ड का मुद्दा मोटे तौर पर गांधी परिवार और कांग्रेस पार्टी से ही जुड़ा है। इसे जनता के मुद्दे में तब्दील करना आसान नहीं है।याद करें राहुल गांधी के पिता और पूर्व प्रधानमंत्री स्व राजीव गांधी को। वी.पी.सिंह ने बोफोर्स भ्रष्टाचार के मुद्दे को राष्ट्रीय मुद्दा बनाकर राजीव को सत्ता से बेदखल कर दिया था। इस मुद्दे पर राजीव जनता को सच समझाते, दुर्भाग्य से उसके पहले ही उनकी हत्या हो गई। 65 करोड़ के बोफोर्स भ्रष्टाचार के मामले में आज तक कुछ भी ठोस साबित नहीं हो सका।

राजनीतिक प्रताड़ना का आरोप एक सीमा तक नेता को सहानुभूति दिला सकता है, लेकिन अपने पक्ष में परसेप्शन बनाने के लिए और भी बहुत कुछ चाहिए। सबसे अहम है आप में जिम्मेदारियों को उठाने और निभाने की कूवत और साहस। जनता नेता को हजार आंखों देखती और तौलती है। मन ही मन उसकी कमियों और खूबियों की तुलना भी करती है। उसी हिसाब से उसे नंबर भी देती है। ये नंबर हासिल करने के पहले जनता से सीधे जुड़ना जरूरी है। उसे लगे कि आप हर सुख-दुख में उसके साथ हैं। सच के हक में लड़ सकते हैं। नेशनल हेराल्ड प्रकरण के रूप में राहुल गांधी और कांग्रेस के लिए जनोन्मुखी होने का यह शायद आखिरी मौका है, बशर्ते कि वो इसका पूरी शिद्दत से फायदा उठा सकें। वरना भविष्य की दीवार पर लिखी इबारत तो कोई भी पढ़ सकता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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