आईएएस अधिकारी ओमप्रकाश श्रीवास्तव
सभ्यता के प्रारंभ से ही मनुष्य ने प्रकृति के रहस्यों को समझने के प्रयास किये और फिर जो भी अबूझ पहेलियॉं रह गईं उनके लिए संसार के अलग-अलग हिस्सों में निवास कर रहे समुदायों ने अपने-अपने तरीके से हल करने की कोशिश की। इसीलिए विभिन्न धर्मों, संप्रदायों और पंथों का उदय हुआ। जो नास्तिक हुए उन्होंने माना कि सब कुछ प्रकृति के नियमों से चल रहा है जिसे विज्ञान कहते हैं और ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं है। आस्तिकों ने माना कि पूरा संसार ही उनके प्रभु की इच्छा से संचालित है। उन्होंने हर अज्ञात घटना के पीछे ईश्वर की इच्छा बताई। भारत में पैदा हुए समस्त धर्मों ने संसार व ईश्वर दोनों के अस्तित्व को माना।
उन्होंने ईश्वर को सर्वोच्च बताया और संसार को उसकी रचना बताया परंतु उन्होंने संसार के महत्व को कम करके नहीं आँका। इसलिए भारतीय दर्शनों, विशेषकर हिन्दू दर्शन, ने संसार के माध्यम से ईश्वर से एकत्व प्राप्त करने की प्रक्रियाऍं प्रस्तुत कीं। सामान्य सिद्धांत यह माना गया कि ईश्वर की अनुभूति व्यक्तिगत उपलब्धि है परंतु इसके लिए अनुकूल व्यवस्थाएँ प्रदान करना समाज का कार्य है। कहावत है कि ‘’भूखे भजन न होये गोपाला’’। सच है जब तक रोटी, कपड़ा और मकान की व्यवस्था नहीं हो जाती तब तक व्यक्तिगत आध्यात्मिक उपलब्धियों की बात सोची भी नहीं जा सकती। इसके लिए आवश्यक है कि समाज में नियम हों, कानून का राज्य हो।
इसलिए हिन्दू दर्शन में जहाँ ईश्वर और संसार पर अलग-अलग विचार किया गया वहीं उन्हें आपस में संबंधित भी कर दिया गया। इसके लिए ग्रंथों को दो भागों में बॉंटा गया श्रुति और स्मृति। श्रुति में वेद और उसके भाग अर्थात् ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् आते हैं। इनमें ब्रह्म, जीव, माया आदि आध्यात्मिक बातों पर विचार के साथ ही साथ उस अनुभूति का वर्णन है जो ऋषियों ने चित्त की शुद्धतम और ध्यान की गहनतम अवस्था में जानी। इस अनुभूति में उन्होंने पाया कि संसार के कण कण में, सभी प्राणियों में एक ही सत्ता विद्यमान है। इस अनुभूति को परम सत्य कहा और घोषित किया कि मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य इस अनुभूति को प्राप्त करना है। यह अनुभूति बौद्धिक नहीं है जो केवल पढ़कर या सुनकर नहीं हो जाए। इसके लिए स्वयं प्रयास करना होंगे। इसके लिए समाज में रहने के लिए सामूहिक व व्यक्तिगत नियम आवश्यक हैं। इन नियमों को जिन ग्रंथों में लिखा गया उन्हें स्मृति ग्रंथ कहा गया।
श्रुति ग्रंथ अपरिवर्तनीय हैं क्योंकि जो अनुभूति आज से 5 हजार वर्ष पूर्व ऋषियों को हुई थी प्रयास करने पर वही आज हमें होगी और वही अन्य लोगों को भविष्य में भी होगी। जो भारत में रहने वालों को होगी वही यूरोपीय लोगों को होगी वही अफ्रीकनों को होगी भले ही वे किसी भी धर्म, भाषा, जाति या संस्कृति के क्यों न हों। इस प्रकार यह देश और काल से परे है। परंतु इस अनुभूति को प्राप्त करने के लिए आवश्यक वातावरण प्रदान करने के लिए जो समाजिक व व्यक्तिगत नियम हैं वह समय और स्थान के अनुसार बदल सकते हैं। उदाहरण के लिए यदि किसी स्मृति में ब्रह्म मुहूर्त में गंगा-स्नान का विधान है तो वह गंगा किनारे रहने वालों के लिए तो उचित है परंतु अमेरिका में रह रहा व्यक्ति तो प्रतिदिन गंगा स्नान नहीं कर सकता और उत्तरीध्रुव के पास स्थित ग्रीनलैंड की ठंड में ब्रह्ममुहूर्त में खुले में स्नान करने से सत्य की अनुभूति से पहले ही मौत से साक्षत्कार हो जाएगा। इसलिए स्मृतियों में देश और काल के अनुसार परिवर्तन किया जा सकता है ।
श्रुति व स्मृति का क्षेत्र पूर्णत: पृथक् व परस्पर पूरक है। परंतु वर्तमान में इन दोनों के बीच भीषण घालमेल हो गया है। श्रुति और स्मृति दोनों को ही धर्मग्रंथ मानने की मूढ़ता चरम सीमा पर है। ढ़ाई हजार साल पहले लिखी गई मनुस्मृति के कुछ अंशों को लेकर धर्म पर हमले हो रहे हैं। आप इन स्मृति ग्रंथों को पढ़ें तो पाऍंगे कि इनमें 90 प्रतिशत तो ऐसे नियम हैं जो व्यक्ति और समाज संचालन के नैतिक नियम हैं। केवल 10 प्रतिशत से भी कम भाग ऐसा है जो वर्तमान समय में सामाजिक चेतना के विकास, विज्ञान और प्राद्योगिकी की प्रगति के साथ अप्रासंगिक हो चुके हैं और हमारा देश बड़ी खूबसूरती से बगैर किसी शोर-शराबे के इन्हें हटा चुका है। आधुनिक भारत में अब मनुस्मृति या याज्ञवल्यक स्मृति जैसे ग्रंथ उसी सीमा तक स्वीकार्य रह गये हैं जहॉं तक वे जीवन के मूल आदर्शों के अनुरूप हैं और वर्तमान कानूनों के विरुद्ध नहीं हैं। स्मृतियों के दंड विधान तो कब के खत्म हो गये हैं। उनका स्थान भारतीय दंड संहिता ले चुकी है। स्मृतियों के उत्त्राधिकार के नियम के स्थान पर हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम आ गया। स्मृतियों के विवाह कानूनों से अलग विशेष विवाह अधिनियम प्रचलन में है। अनेक आधुनिक कानूनों के द्वारा महिलाओं को और समाज के निचले तबके के लोगों को समान अधिकार मिले।
इन सबका स्रोत भारत का संविधान है जो वर्तमान समय का सबसे बड़ा और मान्य स्मृति ग्रंथ है। जिस प्रकार स्मृति ग्रंथों में उस सीमा तक परिवर्तन हो सकता है जिस सीमा तक वह जीवन के मौलिक आदर्शों – सत्य, न्याय, करुणा, सहिष्णुता आदि – के विरुद्ध नहीं है उसी प्रकार एक नियत प्रक्रिया के अंतर्गत संविधान में भी परिवर्तन किये जा सकते हैं परंतु इसके मूल ढ़ॉंचे में छेड़छाड़ नहीं की जा सकती। यह मूल ढ़ॉंचा संविधान की सर्वोच्चता, नागरिकों के मूल अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता, विधि का शासन, सरकार का लोकतंत्रीय स्वरूप, राज्य का कल्याणकारी स्वरूप, धर्मनिरपेक्षता आदि से मिलकर बना है।
इस प्रकार स्मृतियों के कानूनों का उद्देश्य अच्छे समाज और राज्य की स्थापना करना है और राज्य का आदर्श रूप है रामराज्य, जिसकी रूपरेखा तुलसीदास जी ने प्रस्तुत की। उनके अनुसार रामराज्य में समाज की भौतिक उन्नति के साथ ही साथ नागरिकों की आध्यात्मिक उन्नति भी चरम पर होती है। रामराज्य में लोगों को भय, शोक, रोग नहीं होता, सांसारिक और ईश्वरीय बाधाऍं नहीं होतीं, कोई दीन और दरिद्र नहीं होता, सभी कानून और मर्यादा का पालन करते हैं। राम राज्य में आध्यात्मिक उन्नति की बात करें तो लोगों में आंतरिक भेदभाव और दम्भ नहीं होता, सत्य शौच, दया और दान का प्रसार होता है, लोगों की प्रवृत्ति धर्म का पालन करने, उपकार मानने और धोखा न देने की होती है।
आधुनिक भारत में राम राज्य की कल्पना गांधी जी ने की थी। उन्होंने 20 मार्च 1930 के नवजीवन में लिखा था – ‘रामराज्य शब्द का भावार्थ यह है कि उसमें गरीबों की रक्षा होगी, सब कार्य धर्ममूलक होंगे तथा लोकमत का आदर किया जाएगा।‘ यहॉं धर्म का तात्पर्य संकीर्ण अर्थों में धर्म नहीं बल्कि सत्य और अहिंसा से है। एक अन्य अवसर पर 1929 में गांधी जी कहते हैं –‘मेरे रामराज्य का अर्थ हिंदू राज्य नहीं है…… रामराज्य का प्राचीन आदर्श नि:संदेह वास्तविक लोकतंत्र है।‘ तुलसीदास जी मूलत: भक्त थे अत: सारी बातों का श्रेय भगवान राम को देते हैं। गांधी जी व्यवहारिक राजनीतिज्ञ थे अत: उनका रामराज्य ऐसा आदर्श लोकतंत्र है जो सत्य और अहिंसा पर आधारित है। इसमें धर्म वैयक्तिक मामला है जिसमें राज्य का कोई हस्तक्षेप नहीं है।
यहीं हम मूल मुद्दे पर आते हैं। श्रुति ग्रंथ व्यक्तिगत धार्मिक उन्नति के लिए हैं जबकि स्मृति ग्रंथ समाज व राज्य के संचालन के लिए । ‘रामराज्य लाना’ आकर्षक राजनैतिक नारा हो सकता है। परंतु इससे समाज का एक वर्ग यह मानने लगे या उसे यह समझाया जाए कि उसकी आस्थाओं का राज्य आ रहा है जो वैसा ही होगा जैसा धर्म ग्रंथों में वर्णित है तो इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप दूसरे धर्मों को मानने वाले वर्ग सोचने लगेंगे कि भला उनके धर्म की आस्थाओं के आधार पर राज्य क्यों नहीं चलना चाहिए। इस क्रिया-प्रतिक्रिया का परिणाम होगा समाज में बढ़ती हुई धार्मिक कट्टरता और असहिष्णुता। जो किसी के भी हित में नहीं होगा।
वास्तव में राज्य का कार्य मात्र यह है कि वह नागरिकों को ऐसा कानून का शासन प्रदान करे जो न्याय, सत्य और जीवन के नैतिक आदर्शों पर आधारित हो व जिसमें उन्हें अपनी उन्नति के समान अवसर मिल सकें ।
श्रुतियों में वर्णित आध्यात्मिक उन्नति का प्रयास या किसी अन्य धर्म की मान्यताऍं व्यक्तिगत मामला है, राज्य इसमें दखल नहीं दे सकता। इस प्रकार हिंदू धर्म की श्रुति व स्मृतियों के बीच व अन्य धर्मों की व्यक्तिगत साधना पद्धतियों व समाजिक नियमों के बीच बारीक अंतर है। सारा झगड़ा इसी अंतर को न समझ पाने का है।
इसी कारण कई बार राज्य व्यक्तिगत धार्मिक मान्यताओं में हस्तक्षेप करता प्रतीत होने लगता है वहीं कई बार धर्मांध समूह अपने धर्म के अनुसार सामाजिक व्यवस्था लाना चाहते हैं। यदि राज्य धर्म के आधार पर कार्य करता है तो वह संविधान का उल्लंघन तो करता ही है, रामराज्य के स्थान पर सामाजिक तनाव पैदा करता है। राज्य का कार्य वर्तमान स्मृति अर्थात् भारत के संविधान के ढ़ॉंचे के अंतर्गत कार्य करते हुए लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत करना है। राज्य वर्तमान स्मृति अर्थात् संविधान के पालन तक और व्यक्ति अपने धार्मिक विश्वास को व्यक्तिगत स्तर तक सीमित रखे तभी सच्चा रामराज्य आएगा।