सनातन का अर्थ है जो सदैव से है और सदैव रहेगा। जिसका न प्रारंभ है और न ही अंत है और जो सदैव नवीन बना रहता है। जब फारस की ओर से लोग भारत आए तो सिंधु नदी के इस पार रहनेवालों को उन्होंने हिंदू कहना शुरू कर दिया और उनके धर्म को हिंदू धर्म कहने लगे। इसलिए भौगोलिक आधार पर नामकरण ‘हिंदू धर्म’ हो गया। इसके पहले, इस धर्म की विशेषताओं के कारण इसका नाम सनातन धर्म था, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि यह धर्म सदैव से है और सदैव रहेगा।
हर धर्मावलम्बी अपने धर्म पर गर्व करते हुए उसे सर्वोत्कृष्ट मानते हैं। इसलिए प्रथमदृष्टया ऐसा लगता है कि आर्यों ने भी अपने आस्था और विश्वास के कारण अपने धर्म को सनातन कहना शुरू कर दिया होगा, परन्तु गहराई से विचार करने पर पता चलता है कि हिन्दू्धर्म जिन तथ्यों और सिद्धांतों पर आधारित हैं वे मानव निर्मित नहीं हैं, वे इस सृष्टि में स्वमेव अस्तित्व में आए हैं। यह सृष्टि का स्वाभाविक धर्म है, इसलिए सनातन है।
पहले विज्ञान की बात करें। प्रकृति के नियम स्वमेव पैदा हुए हैं। प्रकृति उन्हीं नियमों से चलती है, भले ही हम उन्हें जाने या न जानें। प्रकृति के इन्हीं नियमों की खोज विज्ञान है। जब हम गुरुत्वाकर्षण नियम नहीं जानते थे तब भी पेड़ से टूटा फल जमीन पर ही गिरता था। नियम जाने बिना भी पक्षी आसमान में उड़ते थे। विज्ञान के नियम इस ब्रह्माण्ड में सार्वभौमिक हैं। अमेरिका और भारत का भौतिक विज्ञान एक है। अफ्रीका और यूरोप का रसायनशास्त्र भी एक है। पूरी पृथ्वी पर जीव विज्ञान एक ही है। कोई यह नहीं कह सकता कि मुझे वर्तमान भौतिकी के नियमों पर विश्वास नहीं है मैं तो अपनी भौतिकी अलग से बनाऊँगा। यह विश्वास की बात नहीं है, अनुभव की बात है कि विज्ञान सर्वत्र एक सा है।
प्रसिद्ध भौतिक विज्ञानी स्टीफेन हॉकिंग ने अपनी विख्यात पुस्तक ‘’अ ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम’’ में लिखा है कि आज से लगभग 1350 करोड़ वर्ष पूर्व हुए महाविस्फोट (बिग बैंग) से हमारे ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई। इसके साथ ही समय का जन्म हुआ, पदार्थ और ऊर्जा प्रकट हुई और प्रकृति के नियम अस्तित्व में आये। उन्हीं नियमों के अनुसार विभिन्न आण्विक व रासायनिक क्रियाऍं होने लगीं, पिंड आपस में गुरुत्वाककर्षण से आकर्षित होने लगे, नाभिकीय और विद्युत-चुम्बलकीय बल अपना कार्य करने लगे आदि।
नोवा हरारी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘’सेपियन्स’’ में लिखते हैं कि बिग बैंग के 3 लाख साल बाद पदार्थ और ऊर्जा संयुक्त होकर परमाणु बने यह रसायनशास्त्र का जन्म था। इसके 380 करोड़ वर्ष बाद पृथ्वी पर जीवन की प्रारंभिक जटिल संरचनाऍं बनीं। इस प्रकार जीवविज्ञान का जन्म हुआ। अब वैज्ञानिक निर्विवाद रूप से मानते हैं कि विज्ञान का जन्म इसी ब्रह्माण्ड में हुआ उसके नियम इसी ब्रह्माण्ड से संबंधित हैं। इसलिए जब कभी यह ब्रह्माण्ड् समाप्त होगा तो यह नियम भी समाप्त हो जाऍंगे। इस ब्रह्माण्ड के बाहर के जो ब्रह्माण्ड हैं अर्थात् जिनका जन्म हमारे बिग बैंग से नहीं हुआ वहॉं स्थितियॉं भिन्न होंगी और हमारी विज्ञान वहॉं लागू नहीं होगी।
अब हम चेतना की बात करें। जीवित और मृतक का फर्क तो सभी समझते हैं और मानते हैं कि जीवित में कुछ तो ऐसा था जो मरने पर बाकी नहीं बचा। जो समाप्त हो गया उसे चेतना कहते हैं। कुछ व्यक्ति मानते हैं कि चेतना प्रकृति के तत्त्वों से उसी प्रकार बनी है जैसे शरीर बना है। उनके मत से ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं है। विज्ञान ही सब कुछ है। उनकी खोज विज्ञान तक ही सीमित हो जाती है। परंतु ध्यान रहे इतनी प्रगति के बाद भी विज्ञान चेतना को नहीं समझ सका है। दूसरे वे व्यक्ति होते हैं जो इस चेतना की खोज में आकर्षित होते हैं। इस चेतना या अस्तित्व का स्वभाव ही आध्यात्म है। इस परम चेतना की खोज या अनुभव करने का रास्ता बताने के लिए धर्मों का उदय हुआ। यह प्रक्रिया विभिन्न धर्मों ने अपने-अपने तरीकों से बताई है और इस परम चेतना को अलग-अलग नाम जैसे ब्रह्म, ईश्वर, परमपिता, गॉड, अल्लाह आदि दिये हैं।
जैसे प्रकृति के नियम (विज्ञान) सर्वत्र एक से हैं वैसे ही चेतना के नियम भी सर्वत्र एक से होते हैं। अंतर यह है कि विज्ञान, प्रकृति पर आधारित है इसलिए हमारे ब्रह्माण्ड तक ही लागू हैं, वहीं चेतना, अभौतिक है, सृष्टि से अलग है इसलिए ब्रह्माण्ड की सीमा से परे सर्वत्र व्याप्त है। अब प्रश्न यह है कि इस चेतना का अनुभव कैसे करें ? हमारा मस्तिष्क उन्हीं तत्त्वों से बना है जो प्रकृति के अंश हैं। लिहाजा मस्तिष्क की पहुँच इसी ब्रह्माण्ड तक सीमित है। इसीलिए वह तर्क और विज्ञान तो समझ लेता है परंतु चेतना का अनुभव उसके पल्ले नहीं पड़ता। हमारा मस्तिष्क काल और दिक् (टाइम और स्पेश) के परे नहीं जा पाता। दूसरे शब्दों में कहें तो इस ब्रह्माण्ड के त्रिविमीय तत्वों से बना मस्तिष्क ब्रह्माण्ड से बाहर तक फैली किसी चीज का भान नहीं कर सकता इसलिए परम चेतना या ईश्वर विचार, बुद्धि या पांडित्य (जो कि मस्तिष्क के विषय हैं) से जाना नहीं जा सकता।
सनातन धर्म कहता है कि वह चेतना हम सब के अंदर है। उसका अनुभव इसलिए नहीं हो पाता क्योंकि मस्तिष्क के उत्पाद- मन, बुद्धि और अहंकार–चेतना को घेरे हैं। इस घेरे को ही माया कहा गया है। सनातन धर्म मानता है कि जब यह घेरा टूटता है तो परम चेतना प्रकाशित होने लगती है। सनातन धर्म इस घेरे को तोड़ने की जो प्रक्रिया बताता है वह सृष्टि में स्वयं उद्भूत तत्त्वों व सिद्धांतों पर आधारित है इसलिए सभी मनुष्यों के लिए समान है चाहे वह किसी भी रंग, जाति या नस्ल के हों।
सनातन धर्म किसी कल्पना लोक में नहीं विचरता। वह मनुष्य के शरीर से शुरू करता है। मनुष्य के शरीर में संसार को अनुभव करने के लिए 5 अंग– ऑंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा हैं। जिन्हें ज्ञानेंन्द्रियॉं कहते हैं। इसी प्रकार से संसार में काम करने के लिए 5 ही अंग हैं जिन्हें कर्मेन्द्रियॉं कहते हैं। वह हैं- हाथ, पैर, मुँह, लिंग और गुदा। इन इंद्रियों का नियंत्रण मन के पास होता है। इसलिए वह शरीर के माध्यम से मन पर नियंत्रण (मनोनिग्रह) की बात करता है। वह शरीर के नियंत्रण के लिए यम, नियम, आसन, प्राणायाम आदि तरीके बताता है। नियंत्रित शरीर में ही जीव प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि के माध्यम मन, बुद्धि और अहंकार को पार कर परम चेतना का अनुभव कर सकता है।
सनातन धर्म, प्रकृति को पंच महाभूतों– पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु – से बना हुआ मानता है। प्रकृति का विश्लेषण विज्ञान करती है और परमाणु और अब क्वांटम भौतिकी तक जा पहुँची है। परंतु जब हम प्रकृति को सम्पूर्णता में (संश्लेषण) देखते हैं तो भौतिक पदार्थों के आधार यही पंच महाभूत हैं। संसार के किसी भी कोने में कोई भी चर-अचर बस्तु होगी वह इन्हीं पंचमहाभूतों पर आधारित होगी।
सनातन धर्म ईश्वर प्राप्ति के लिए संसार को बाधा नहीं बल्कि सहायक मानता है। इसलिए जीवन जीने की ऐसी व्यवस्था बताता है जिससे संसार का अनुभव हो और जब इस अनुभव से संसार की निरर्थकता समझ में आ जाए तब मनुष्य की चेतना अगले स्तर पर पहुँचाने की व्यवस्था की जाए। इसलिए जीवन को चार आश्रमों- ब्रह्मचर्य (विद्याध्यन तथा शरीर सौष्ठव हेतु), गार्हस्थ (पारिवारिक जीवन, परस्पर सहयोग हेतु), वानप्रस्थ (संसार के दायित्वों से मुक्ति की शनै: शनै: तैयारी) तथा संन्यास (संसार से दूर होकर पूरी तरह परम चेतना के अनुभव हेतु)– बॉंटा गया। जीवन के चार पुरुषार्थ बताए गये- अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष। यहॉं धर्म से तात्पर्य समाज के नैतिक नियमों से है। यदि धर्म के अनुरूप अर्थ और काम का सेवन किया जाए तो अंतिम लक्ष्य मोक्ष अर्थात् परम चेतना का साक्षात्कार हो जाएगा।
सनातन धर्म में व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से अलग अलग धार्मिक कृत्य बताए गए हैं। सबसे प्रारंभिक स्तर के व्यक्ति के लिए कर्मकाण्ड है, मूर्ति पूजा है जिसमें वह ईश्वर के प्रति एकाग्र होकर समर्पण सीखता है। ऊपरी स्तर वालों के लिए उपासना, ध्यान, ज्ञान आदि हैं। हर व्यक्ति का मूल स्वभाव होता है जो प्रकृति प्रदत्त है। वह अपने मूल स्वभाव के अनुरूप कार्य को ही सर्वाधिक कुशलता से कर सकता है। सनातन धर्म में व्यक्ति के मूल स्वभाव को पहचान कर उसे शिक्षा, राजकाज, वाणिज्य व्यवसाय या सेवा का कार्य सौंपने की व्यवस्था है।
इसी प्रकार मनुष्य की वृत्ति समय समय पर बदलती रहती है। कभी सात्विक होती है, कभी राजसिक तो कभी तामसिक। अलग-अलग समय पर व्यक्ति में अलग-अलग तत्त्व प्रबल होते हैं परंतु सामान्यत: इनमें कोई एक प्रधान रहता है। तामसिक को राजसिक से होते हुए सात्विक वृत्ति तक ले जाने और फिर उसके भी पर जाने का रास्ता सनातन धर्म बताता है।
गहराई से विचार करने पर हम पाते हैं कि प्रकृति प्रदत्त पॉंच ज्ञानेन्द्रियों, पॉंच कर्मेन्द्रियों, पंच महाभूत, प्रकृति प्रदत्त स्वभाव, तीन गुण सत् रज और तम, मस्तिष्क के उत्पाद मन, बुद्धि और अहंकार और चेतना सभी मुनष्यों में एक सी है चाहे वह किसी भी रंग, जाति या नस्ल का क्यों न हो। जब से संसार बना है मनुष्य का जन्म हुआ है यह सब रहे हैं और जब तक सृष्टि रहेगी तब तक यह मनुष्य के साथ रहेंगे। यदि चेतना का साक्षात्कार करना होगा तो रास्ते अलग हो सकते हैं पर उनका मूल आधार तो यही होगा। सनातन धर्म इन्हीं के आधार पर आगे का रास्ता बताता है। यह सब सनातन हैं इसलिए यह धर्म भी सनातन है।
समय के साथ समाज का जीवन यापन का तरीका, रहन-सहन, विचार बदलते हैं उसी के अनुसार धार्मिक प्रक्रियाऍं भी बदलना चाहिए। नये विचार अपनाने के लिए सनातन धर्म पूरी तरह से खुला है। इसीलिए सनातन धर्म अपना स्वयं का अनुभव करने के लिए अनुयायियों को प्रेरित करता है। सनातन धर्म के महापुरुष अपनी बात तो कहते हैं परंतु अपना निर्णय किसी पर नहीं थोपते। इसलिए सनातन धर्म में न तो कोई अंतिम उपदेश है और न ही कोई अंतिम पुस्तक।यह तो चिरंतन परम्परा है, समय के साथ नए ऋषि आऍंगे, अपना अनुभव करेंगे, उपदेश देंगे, शास्त्र लिखेंगे परंतु अंत में वही कहेंगे जो गीता का उपदेश देने के बाद कृष्ण ने अर्जुन से कहा था जैसी तेरी इच्छा हो वैसा कर (यथेच्छसु तथा कुरु) । अपने सत्य का अनुभव स्वयं करो।
इसलिए जब कोई कहता है कि हिन्दूधर्म खतरे में है तो वह हिन्दू धर्मावलम्बियों की संख्या के रूप में, आर्थिक समृद्धि के रूप में, भौतिक शक्ति के रूप में सही हो भी सकता है परंतु धर्म के रूप में हिन्दूधर्म अर्थात् सनातन धर्म न कभी खतरे में था न कभी रहेगा क्योंकि यह उन तत्वों व सिद्धांतों पर आधारित है जो सृष्टि के उदय के साथ स्वमेव पैदा हुए हैं और सदैव रहेंगे। समाज की बदलती परिस्थितियों के अनुरूप प्रक्रियाओं को बदलने की परम्परा सनातन धर्म को नवीन बनाए रखती है। इसका न आदि है, न अंत है, यह चिर नवीन है इसीलिए तो सनातन है।
(लेखक आईएएस अधिकारी और धर्म, दर्शन तथा साहित्य के अध्येता हैं)