लोकतंत्र को वोट का बाज़ार समझकर जनमत को लूटने निकले राजनीतिक दलों के संवेदनहीन नेताओं को अगर महाकवि तुलसीदास की कविता पसंद नहीं तो उन्हें रामचरितमानस को अपमानित करने का अधिकार कैसे मिल गया? तुलसीदास ने यह कविता भारत की ज्ञान परंपरा से अर्जित सबके जीवन के आधार की गहरी समझ और व्यवहार के द्वन्द्व के बीच आदमी की सुमति और कुमति के मार्ग को पहचानने के लिए रची है। कवि के अपने सुख के लिए रची गयी यह महान कविता किसी कौम और जाति-पांति के लिए नहीं, मानव जाति के लिए है।
महाकवि तुलसीदास ने कोई मज़हबी और राजनीतिक धर्मसंहिता नहीं रची है। उनकी यह कविता भारत की सनातन जीवन दृष्टि के प्रकाश में मानव जाति को उसकी विकृतियों के सामने खड़ा करके उसे बार-बार यह याद दिलाती है कि — सबको बड़े भाग्य से यह मानुष तन मिला है और इसमें ही अनुकूल और प्रतिकूल का विवेक करते हुए सबके साथ जीवनयापन करने की संभावना निहित है। तुलसीदास की दृष्टि में यह संभावना ही उस श्रद्धारूप सात्विक कामधेनु जैसी है जो बिना किसी भेदभाव के सबको परस्पर मनवांछित फल देने में समर्थ है।
तुलसीदास की दृष्टि में राम की अनुकंपा उन दयालु मनुष्यों की तरह ही है जो इस दुख में डूबे हुए हैं कि सबके लिए साधनों से परिपूर्ण इस संसार में विषमता और दरिद्रता से उन लोगों को मुक्ति मिलनी चाहिए जो सदियों से अभाव, अशिक्षा और असुरक्षा में अपना जीवन काट रहे हैं।
रामचरितमानस का पठन और मनन किए बिना उसकी अवमानना करने वाले सत्ताकामी वोट के खुदरा व्यापारी और विचारशून्य नेता पहले ख़ुद अपनी उस दलीय राजनीति पर शोक प्रकट करें जो आज़ादी के पचहत्तर साल बाद भी विषमता और दरिद्रता को दूर नहीं कर पायी है और इसी कारण लोग अब तक शूद्र ( याने वे हुनरमंद जातियां, जिनसे उनकी कारीगरी छीनी जा रही है ) और अन्त्यज श्रेणियों में तरह-तरह की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक ताड़ना सहकर जीवन काट रहे हैं।
तुलसीदास ने ही तो अपनी कविता में यह रेखांकित किया है कि ये असहाय लोग ताड़ना के अधिकारी बने हुए हैं। ये कोई ढोल नहीं है कि चाहे जो राजनीतिक दल और समाज इन्हें मनमाने ढंग से पीटता रहे। देश के जीवन को जातियों में बिखराये रखकर फुटकर राजनीति करने वाले राजनीतिक दल यही कर रहे हैं तभी तो उनकी अस्थिर बुद्धि तुलसीदास की कविता का सामना नहीं कर पा रही है। तुलसीदास ने इसी रामचरितमानस में अपनी कविता का सामना करने वालों को यह छूट भी दी है कि अगर कवि से कोई भूल हुई तो सुधिजन उसे खु़द सुधारकर पढ़ लें।
हमारे समय में ज्ञानग्रंथों को सुधारकर युगानुरूप पढ़ने के विवेक में भारी कमी आयी है। उनमें सदियों से होते आ रहे पाखण्डी और स्वार्थी प्रक्षेपण परमार्थ और लोककल्याण के मार्ग को बाधित करते रहते हैं। धर्माचार्यों और राजनीतिक विचारकों को वह विवेक जाग्रत करना होगा जो अपने देशकाल के अनुरूप शास्त्र और संहिताओं में सुधार करके बहुजन, अभिजन और आदिजनों सहित सबको सद्भाव के रंग में रॅंग सके। तुलसीदास भी कहते हैं कि शास्त्र को उलटपुलटकर देखते रहना चाहिए अन्यथा वह जड़ता का शिकार हो सकता है। स्वतंत्र भारत का संविधान इसी दृष्टि को ध्यान में रखकर रचा गया है और जिसकी उद्देशिका देशकाल के अनुसार समता और बंधुता की भावना से भरी हुई है।
महाकवि तुलसीदास अपने रामचरितमानस में कलिकाल को देखकर उसकी भयानक और अविवेकी प्रवृत्ति पर यही तो कह गये हैं —
कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सदग्रंथ।
दंभिन्ह निज मति कल्प करि प्रकट किए बहुपंथ।।
(लेखक- कवि, कथाकार और विचारक हैं)