डॉ. रजनीश जैन
यह सागर शहर से जुड़े इतिहास का बिल्कुल अनछुआ पन्ना है जो उजागर होते ही बांध में डूबने की कगार पर है। यह सागर शहर की पुरातनता की एक खोई हुई कड़ी की तरह है। इस खोज का आरंभिक निष्कर्ष है कि हमें सागर शहर के इतिहास को गढ़पहरा नगर की स्थापना से भी काफी पहिले ले जाना होगा।
सागर से महज दस किमी पर एक पुरातात्विक साइट ऐसी है जहां हम मानव विकास के क्रम को शैलाश्रयों में रहने वाले गुफामानवों से लेकर मराठाकाल तक के पुरातात्विक प्रमाणों को क्रमवार देख सकते हैं। इतिहास की चरणबद्धता को संजोने वाले ऐसे पुरातात्विक स्थल पर कम ही होते हैं। इस खोज का दुखांत पहलू यह है कि सागर शहर के निवासी और इतिहास के जिज्ञासु सागर तालाब के आऊटलेट से निकली कड़ान नदी की घाटियों में छिपे इस रमणीक पुरातात्विक स्थल को लगभग डेढ़ वर्षों तक ही देख सकेंगे क्योंकि यह साइट एक विशाल बांध की अथाह जलराशि में समा जाएगी।
सागर शहर के लाखा बंजारा तालाब के आऊटलेट से निकलने वाला पानी आगे जाकर एक नदी में बदल जाता है जिसे शहर के बाहर जाते ही कड़ान नदी कहा जाने लगता है। वस्तुस्थिति में सन् 1650 के पहले जब सागर का तालाब, तालाब न होकर एक नदी के उदगम की तरह था। वहर व आबादी के विस्तार के साथ साथ बीसवीं सदी में कभी इस प्राकृतिक स्रोत से निकली पारदर्शी जलधारा से शहर के गंदे नाले जोड़ दिए गए। गंदे नाले की तरह दिखने वाली यह कड़ान नदी शहर की पश्चिम दिशा में लावे से निर्मित पहाड़ों की एक श्रंखला के पीछे जाकर जंगलों में गुम हो जाती है।
मैंने एक दुर्लभ हो चुकी पुस्तक ‘जवाहर अभिनंदन’ में पढ़ा था कि इन पहाड़ों में नदी किनारे छोटे से किले जैसा एक महल है जिसे सतगढ़ महल कहा जाता है है। मैं पिछले कई वर्षों से इस महल के बाबत् उसके निकटवर्ती ग्रामीणों और खासतौर पर आदिवासियों से पूछता रहता था। सभी बताते थे कि उस तक जाने का पहुंच मार्ग दुर्गम है।
हाल ही में मध्यप्रदेश सरकार ने इस नदी और पहाड़ी श्रंखला के बीच बांध बना कर एक मध्यम सिंचाई परियोजना का प्रोजेक्ट शुरू कर दिया। इस परियोजना का नाम सतगढ़ कड़ान सिंचाई परियोजना रखा गया तो मुझे आशंका हुई कि इस बांध के बनने पर सतगढ़ महल का क्या होगा और मैंने इसको ढूंढ़ कर देखने का निश्चय कर लिया। पता लगा कि इस महल तक जाने का रास्ता खानपुर गांव से होकर है जहां की पहाड़ियां अपने शैलचित्रों के कारण पुरातत्व के जिज्ञासुओं में मशहूर हैं। लेकिन यह भी पता लगा कि सतगढ महल तक पहुंचने के लिए खानपुर के आगे का जंगल और गंदे नाले में बदल चुकी कड़ान नदी को पैदल पार करना होगा। शहर की गंदगी से लबरेज बदबूदार पानी में उतरने की अनिवार्यता ही इस इलाके को दुर्लभ और अछूता बना रही थी।
सागर की नई कृषि उपज मंडी से आगे दाहिने तरफ पहाड़ों से घिरे खानपुर गांव के रमेश यादव और आदिवासी मित्र रघुनाथ राऊत ने सतगढ़ का महल दिखाने से जो सिलसिला शुरू किया तो जंगल में बिखरे पुरातात्विक अवशेषों की झड़ी लग गई। नदी किनारे बनी किलेनुमा खूबसूरत गढ़ी, दसियों की तादाद में ध्वस्त हो चुके प्राचीन कुए और बावड़ियां, प्राचीन मंदिरों के अवशेष, स्तंभ, शिखर, खंडित मूर्तियां, सतीस्तंभ और फिर अंततः समृद्ध शैलचित्रों से भरे दर्जनों शैलाश्रय। संलग्न चित्रों में इस पुराकोष का एक छोटा हिस्सा आप देख सकते हैं।
निश्चित ही ये सभी अवशेष 12वीं शताब्दी के आसपास के परमार या चंदेल कालखंडों के होंगे। स्थानीय निवासियों ने जो बताया उसके मुताबिक यहां बंजारे रहते थे और उन्हीं ने यहां के निकटवर्ती गांव का नाम खानपुर रखा। ग्रामीणों के अनुसार इतनी बड़ी तादाद में कुएं उन्होंने ही बनवाए थे। पर यह किंवदंती ही लगती है। क्योंकि कुछ कुएं तो शैव और वैष्णव मतों के प्राचीन मंदिरों के इतने नजदीक हैं कि मंदिर परिसरों का हिस्सा लगते हैं। खजाना खोजियों ने बीती शताब्दी में यहां बेहद विनाश किया है। मंदिरों के नक्काशीदार पाषाण सामग्रियों को घरों की निर्माण सामग्री बना लिया गया। देवी देवताओं की साबुत मूर्तियों को आसपास के वर्तमान मंदिरों में रखवा दिया गया है। जाहिर है कि कला की दृष्टि से मूल्यवान अवशेषों की तस्करी भी हुई होगी।
ग्रामीणों ने बताया कि उन्होंने चालीस साल पहले तक मंदिरों के अवशेषों की बड़ी मात्रा यहां देखी थी। मसलन एक मंदिर की जगती पर लगे पत्थर के स्तंभों में चारों तरफ लोहे की मोटी जंजीर पैबस्त थी जिसे बीस तीस साल पहले ही प्रभावशाली लोग ले गए। नक्काशीदार पत्थरों का ढेर बन गये इन मंदिरों का उत्खनन हो तो अब भी महत्वपूर्ण पुरासम्पदा हाथ लग सकती है। संभवतः कुछ प्रतिमाएं और अभिलेख भी मिल सकते हैं। इनके समीप स्थित कुओं की मिट्टी उघाड़ने पर भी प्रतिमाएं और प्राचीन सिक्के मिलने की संभावना है। मंदिरों का ध्वंस जिस पाशविकता से हुआ है उससे लगता है कि यह अलाउद्दीन खिल्जी के शासन काल 1305 के आसपास हुआ होगा। क्योंकि मोटे तौर पर उसके बाद इस इलाके में मूर्तिभंजक मुस्लिम शासकों के बड़े हमले देखने को नहीं मिले।
अपने समय समृद्धिशाली रहे इस नगर का उल्लेख आश्चर्यजनक रूप से किसी भी साहित्यिक या एतिहासिक लिखित स्रोत में नहीं मिलता। अंग्रेज अफसरों ने भी जिक्र नहीं किया। कड़ान नदी के गंदा नाला बनने से इस घाटी को घने जंगलों ने ढक दिया और लोगों ने ज्यादा यहां आना जाना नहीं किया। पहाड़ों की चोटियों से पश्चातवर्ती निर्माण सतगढ़ किला दिखता रहा सिर्फ इसका ही उल्लेख घुमक्कड़ों और शिकारियों में विभिन्न नामों से होता रहा। दरअसल हमें गौडवाना और मराठा इतिहास के दस्तावेजों में उल्लेखित नामों में से ढूंढ़ कर समेकित करने की कोशिश करना चाहिए।
दुर्भाग्य से गढ़पहरा के दांगी शासन से संबंधित बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। गढपहरा शासन के कायस्थ दीवान सुवंशराय की नृसिंह पचीसी और कुमार मणि के काव्यग्रथों में भी गढ़पहरा का उल्लेख कम ही है। गढपहरा और कड़ान घाटी के सतगढ किले के बीच पगारा या अमझिरा होते हुए प्राचीन मार्ग रहा होगा जो अब नहीं है। मंदिरों के पुरावशेषों में दो सतीस्तंभ मौजूद हैं लेकिन वे भी कुछ लिखित सूचना नहीं देते।
सागर के ब्रिटिश नामकरण saugor सौगर (अपभ्रंश सौगढ़) में क्या सतगढ़ किले की भी कोई भूमिका है यह एक संभावना बनती है। हालांकि मेरा मानना अब भी यही है कि सौगर सिर्फ अंग्रेजों की उच्चारण शैली की सीमितता के कारण ईजाद हुआ है। खानपुर के शैलचित्र अपनी विशिष्टता के लिए इतिहासकारों में पहले ही प्रसिद्ध हैं। शोधकर्ता पिछले चालीससालों से यहां आ रहे हैं।
आश्चर्य है कि इन शोधकर्ताओं को शैलाश्रयों की तराई में जंगलों से ढके मंदिरों के पुराअवशेष क्यों नहीं दिखे! बहरहाल मैंने सतगढ कड़ान घाटी के पुरातात्विक सर्वे की प्राथमिक रिपोर्ट मप्र के स्टेट आर्कियोलॉजिकल सर्वज डिपार्टमेंट को पिछले महीने ही भेज दी थी। सागर जिला कलेक्टर दीपक सिंह जी को भी भेज दी है जिनकी इतिहास और पुरातत्व में विशेष रुचि है। जिला पुरातत्व विभाग को इस आशय का पत्र भी आया है कि यहां का विधिवत आधिकारिक सर्वे कर लिया जाए। पर सर्व संबंधितों को समझना होगा कि इस कार्य के लिए समय तेजी से खत्म हो रहा है।
डेढ़ साल के भीतर बांध में जलभराव शुरू हो जाएगा और उसी के साथ सारी संभावनाएं भी डूब जाएंगी। 497 करोड़ रु लागत की बांध परियोजना का अपना समकालीन महत्व है जिसे कोई नहीं चाहता कि वह इन पुरातात्विक अवशेषों के कारण बाधित या विलंबित हो। लेकिन बुनियादी रूप से परियोजना आरंभ करने के पहले पुरातत्व विभाग से भी अनापत्ति लेना चाहिए थी।…पर अब भी देर नहीं हुई है। इंटेक के सागर चेप्टर कन्वीनर और इतिहास के विद्यार्थी होने की हैसियत से मैं तो संकल्पित हूं ही कि सतगढ़ कड़ान डूबक्षेत्र के इन पुरावशेषों को संरक्षित किए जाने तक मैं बांध में पानी भरे जाने में बाधा बना रहूंगा।