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संयोग या प्रयोग: अधिनायकवादी कप्तान की न्यूनतम उपलब्धियों का अधिकतम बखान

टीम इंडिया के प्रदर्शन और कप्तान विराट कोहली के नेतृत्व पर डॉ. ब्रह्मदीप अलूने की प्रतिक्रिया

साल 2017 में एमएसके प्रसाद की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय चयन समिति ने जब धोनी की जगह कोहली को कप्तान बनाया था। तब उन्होंने एक दिलचस्प बात कहीं थी ,‘हमें पता है कि माही क्या चीज था,वह प्रकृति से कप्तान है, मोर्चे से अगुआई करने वाला।’ कोहली के लिए सन्देश साफ था।

कोहली ने भी मोर्चे से अगुआई तो की लेकिन उनकी नेतृत्व की शैली में फर्क था। कोहली चर्चा में रहने में इतने माहिर है कि वे आक्रामक नेतृत्व के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल रहे और मीडिया की भी उन्हें नायाब सहायता मिली। यह संयोग था या प्रयोग। कोहली की कमतर उपलब्धियों का बखान बदस्तूर जारी रहा।

डॉ. ब्रह्मदीप अलूने

अब जब पीछे मुड़कर देखते है तो 2017 में विराट कोहली ने टीम इंडिया की बागडोर संभाली और उसी साल टीम को चैंपियंस ट्रॉफी के फाइनल में पाकिस्तान के हाथों हार झेलनी पड़ी। इसके दो साल बाद 2019 विश्व कप में भी विराट टीम को सेमीफाइनल तक लेकर गए,पर वहां न्यूजीलैंड ने काम खराब कर दिया। फिर इसी साल वर्ल्ड टेस्ट चैंपियनशिप के फाइनल में टीम इंडिया को हार झेलनी पड़ी थी। आरसीबी के लिए भी वह कप नहीं जीत पायें। यह उम्मीद जताई गई थी कि बतौर कप्तान कोहली टी-20 में टीम को चैंपियन बनाकर विदाई लेंगे। खिताब तो छोड़िए भारत सेमीफाइनल में भी नहीं पहुँच सका।

दरअसल धोनी की नेतृत्व को लोकतन्त्रीय शैली माना जाता है जहां सम्मान,समन्वय और परिवार की तरह साझा हितों पर साझा प्रयास होते थे,यहाँ अहम या व्यक्तिगत श्रेष्ठता का भाव कभी नहीं देखा गया नतीजा देश को सफलता मिलती गई। वहीं कोहली व्यक्तिगत श्रेष्ठ थे सो उनकी शैली अधिनायकवादी रही जहां खुद को प्रबुद्द मानकर अनहस्तक्षेप को सर्वोपरी रखा गया और उपयोगिता के बाद भी आश्विन को बाहर रखा गया।

भारत ने विराट की कप्तानी में वर्ष 2008 में अंडर-19 विश्वकप जीता था। बस यही सोचकर उन पर भरोसा जताया गया की वे देश का नेतृत्व कर लेंगे। मीडिया उनकी आक्रामकता को उभारता रहा,उनके व्यक्तित्व के उस पक्ष को उभारा गया जो निहायत ही व्यक्तिगत था लेकिन इससे देश को गहरा नुकसान हुआ और देश को कई मोर्चो पर पराजय मिली ।

अब कोहली कप्तान नहीं होंगे,उनकी व्यक्तिगत छवि को इससे कोई नुकसान नहीं होगा। उनके रिकार्ड भी बेहतर होंगे लेकिन इससे देश को क्या फायदा होगा..? काश, कोहली यह समझ पाते कि मसला देश के नेतृत्व का हो तो व्यक्तिगत छवि से ज्यादा साझा हित और समन्वय के गुण निर्णायक हो सकते है। बहरहाल मीडिया की पारदर्शिता अब दांव पर है ,अत: जनमानस की दृष्टि नेतृत्व को लेकर साफ और स्पष्ट होना चाहिए।

(डॉ.ब्रह्मदीप अलूने सहायक प्राध्यापक और पुस्तक ‘गांधी है तो भारत है’ के लेखक हैं)

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