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अपने लिखे को खारिज कर दो कांति दा, लौट आओ

सचिन श्रीवास्तव

लौटकर आना नहीं होगा। कांति दा के संस्मरणों की किताब है यह। कांति दा यानी कांति कुमार जैन। भौतिक रूप से उनसे बस एक मुलाकात है। करीब दर्जन भर बातचीत फोन पर। वह भी ज्यादातर अखबारी काम के सिलसिले में। फिर भी उनका असर ऐसा था कि लगता था, बस हाथ भर की दूरी पर हैं। लिखते पढ़ते, सोचते कई बार याद आते थे। एक बार मेरठ में रामायण के बारे में उनसे लंबी बात हुई थी और फिर रविवाणी की लीड स्टोरी बनाई थी। जिसे पढ़कर वे खूब खिलखिलाए थे।

मैं बात कर रहा हूं हिंदी भाषा में संस्मरण को नई गहराई, और अद्वितीय उंचाई देने वाले लेखक, संपादक, प्राध्यापक कांति कुमार जैन की। हिंदी भाषा के लिए उन्होंने जो काम किया है। जो दुनिया को दिया है। वो लेखा जोखा, करने वाले करें। हमें तो बस अपनी पड़ी है। कांति दा की नजरों से कितने ही साहित्यकारों को जाना। संभवत: 1998 का साल रहा होगा, जब पहली बार कांति दा को पढ़ा था। वसुधा में उनका एक संस्मरण आया था। हरिशंकर परसाई जी पर। शीर्षक था— टिटहरी कभी नहीं हारती। अगर याददाश्त सही है, तो यह वसुधा का परसाई विशेषांक ही था। कई लेख थे उसमें परसाई पर। उनमें से कांति दा का लेख बार बार पढ़ता था। वह गंभीर साहित्य की ओर मुड़ने के दिन थे। तो जो जटिल लेखन था, जिसमें भाषाई कीमियागिरी ज्यादा हो, ऐसे लेखों से दूर रहता था। लेकिन कांति दा के लेख में बातों बातों में कई जानकारियां मिलती थीं। फिर तो खोज खोजकर उन्हें पढ़ने का सिलसिला शुरू हुआ।

2002 में उनकी संस्मरणों की किताब आई— लौटकर आना नहीं होगा। वे सभी संस्मरण जो वसुधा में प्रकाशित हुए थे, वह संकलित थे। मध्य प्रदेश साहित्य परिषद की ओर से उस वक्त एक प्रोग्राम चलता था— पाठक मंच। पाठक मंच की किताबों में भी यह शामिल था। मुंगावली में पाठक मंच का संचालन मैं करता था, और उसमें जब कांति जी की किताब आई तो हमने इस पर करीब 4 घंटे चर्चा की थी। मुंगावली जैसी गैर—साहित्यक जमीन पर यह चर्चा बेहद सुखद थी। पाठक मंच में उस वक्त हर किताब की दो प्रतियां दी जाती थीं और वो दोनों प्रतियां इतने इतने हाथों में घूमी कि फिर वापस भी नहीं लौटीं। आखिर फिर भोपाल से दो और प्रतियां खरीदी थीं। इनमें से एक किताब काफी दिनों बाद अनुराग द्वारी को भेंट की थी, दिल्ली के स्टेशन पर। दूसरी को जब तक हाथ में लेता हूं और जो भी संस्मरण पढ़ता हूं, ऐसा कभी नहीं हुआ कि उसे अधूरा छोड़ा हो।

इसी दौरान कई बार सागर की तरफ यात्राएं की हैं और ऐसा कभी नहीं हुआ कि मकरोनिया स्टेशन से गुजरें और कांति दा याद न आएं। साथ में जो भी मित्र यात्रा करता, उससे कांति दा के बारे में बातों का सिलसिला शुरू होता और बारास्ता हिंदी साहित्य दुष्यंत, गुलशेर अहमद शानी से होता हुआ कभी कभी तो रजनीश यानी ओशो तक पहुंचता था।

ओशो पर कांति दा ने खूब लिखा है। परसाई ने भी। चूंकि परसाई ने राजनीतिक दृष्टि से लिखा है और कांति दा ने ओशो के इंसान को भी निचोड़ा है, तो उसमें एक अलग ही लय है। ओशो के उच्चारण से लेकर उनके बचपन तक के बारे में कांति दा ने जिस कमाल के साथ लिखा है वह अद्भुत है। वे शब्दों के भी गहरे जानकार थे। किस शब्द का कहां कैसे, कितना इस्तेमाल करना है, इसे लेकर खासे सतर्क रहते थे। ओशो के बारे में ही लिखते हुए उन्होंने एक जगह झौटरा शब्द का इस्तेमाल किया है। ओशो के बाल बचपन में लंबे थे और वे अपने मामा की कपड़ों की दुकान पर बैठते थे। यह सब प्रसंग पता नहीं असली हैं या कांति जी की कल्पना की उड़ान, लेकिन जिस तरह से वे बयान करते थे, उसमें खो जाते थे।

दुष्यंत कुमार का वह किस्सा जो उन्होंने शानी के संस्मरण में लिखा है, कि शाहजहानी पार्क में शामियाने के पीछे से कुत्तों के भौंकने की आवाज तक तक आती रही जब त क दुष्यंत अपनी कविताएं गजलें पढ़ते रहे। और फिर जब दुष्यंत पढ़कर वापस आए, तो देखा पीछे से शानी यानी काला जल वाले शानी अपने दोस्तों के साथ लौट रहे हैं।

ये सब बताने का लब्बोलुबाव ये कि कांति दा ने संस्मरणों को जो उंचाई बख्सी है, उसमें उन्होंने संबंधित व्यक्ति का जो चित्र खींचा है, तो खामियों खूबियों पर समान रूप से कलम चलाई है। उन्होंने किसी को महान या किसी को नीचा दिखाने के लिए नहीं लिखा। जो जैसा है, वैसा लिखा। और एक बात आमतौर पर संस्मरणों में मैं हावी रहता है। लिखने वाला बार बार हावी होता है। कांति दा सायास इसे दूर रखते थे। संस्मरण उनके द्वारा बताया जा रहा है, यानी वे घटना में मौजूद हैं, लेकिन वे अपनी मौजूदगी को बेहद शालीनता के साथ सीमित कर देते थे।

मुक्तिबोध पर लिखा गया उनका संस्मरण संभवत: आप जब भी पढ़ेगे तो रोये बिना नहीं रहेंगे। मुक्तिबोध पर कितने लोगों ने कितनी तरह से लिखा है, लेकिन अगर कांति दा की नजर से मुक्तिबोध को नहीं पढ़ा, तो मुझे लगता है कि आप मुक्तिबोध को पूरा नहीं जान पाएंगे। शुक्रवारी तालाब से जुमेराती तालाब तक का रूपांतरण बताते हुए वे 20वीं सदी के महान कवि का जो चित्र रखते हैं, तो लगता है, वे सामने ही हैं। चाय और बीड़ी का जिक्र…… उफ्फ। बयान करना भी मुश्किल। महागुरु मुक्तिबोध: जुम्मा टैंक की सीढ़ियों पर, सिर्फ मुक्तिबोध ही नहीं, बल्कि 20वीं सदी के साहित्य और राजनीति के संबंधों का बयान करने वाली किताब भी है।

कांति दा परसाई और मुक्तिबोध को जानने वाले गिने चुने साहित्यकारों में थे। अब परसाई और मुक्तिबोध तक सीधे पहुंचाने वाली ये खिड़की भी बंद हो गई। परसाई पर भी उन्होंने एक लंबी औपन्यासिक कथा लिखी है— तुम्हारा परसाई। परसाई के प्रेम के बारे में कांति दा ही लिख सकते थे। जिस खूबी के साथ उन्होंने परसाई के प्रेम प्रसंग को उकेरा है, वह अद्भुत है। और साथ साथ अपने समय की राजनीति और साहित्यिक गलियों का जो वितान रचा है, वह भी अनूठा है।

तो ऐसे कांति दा नहीं रहे। संभवत: 90 के आसपास की उम्र होगी। 1932 का जन्म बताया जाता है, उनका। लेकिन निजी बातचीत में कांति दा कहते थे, हम लोगों की उम्र में एक दो साल की घट बढ़ हो ही जाती है। काश ये घट बढ़ उनकी दुखद खबर में भी हो। वे लौट आएं। अपने ही लिखे को खारिज करते हुए लौटकर आना भी होता है कांति दा, लौट आओ।

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