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गुजरात दंगा: क्या ‘क्लीन चिट’ से धुल जायेंगे दाग?

गुजरात दंगों पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के संदर्भ में वरिष्ठ पत्रकार राकेश अचल का आलेख

प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को गुजरात दंगों के सिलसिले में एसआईटी द्वारा दी गयी ‘क्लीन चिट’ के खिलाफ देश की सबसे बड़ी अदालत ने एक याचिका खारिज कर दी लेकिन उसकी बहुत चर्चा नहीं हो पायी,कारण देश महाराष्ट्र संकट और राष्ट्रपति चुनाव में उलझा था। मोदी जी को क्लीनचिट मिले काफी समय हो चुका है लेकिन उसे लगातार चुनौती दी जा रही थी। गुजरात दंगों में मारे गए कांग्रेस के पूर्व सांसद एहसान जाफ़री की विधवा ज़किया जाफ़री ने पिछले साल ये याचिका दायर की थी।

सब जानते हैं कि 2002 के गुजरात दंगे के मामले में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी समेत 59 लोगों को आरोपी बनाया गया था। इन दंगों की जांच एसआईटी कर रही थी। गुजरात दंगों की जांच के लिए गठित विशेष जाँच दल (एसआईटी) ने तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को क्लीन चिट दे दी थी। अहमदाबाद के गुलबर्ग सोसायटी में हुए दंगों में कांग्रेस के पूर्व सांसद अहसान जाफ़री समेत कुल 69 लोग मारे गए थे। इस मामले को लेकर जकिया लगातार न्यायिक लड़ाई लड़ रही थीं।

इस मामले में दो बातें महत्वपूर्ण हैं। पहला ये कि गुजरात में दंगे हुए थे और इन दंगों में लोग मारे गए थे और दूसरा ये कि इन दंगों के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी समेत 59 लोगों को आरोपी बनाया गया था। इन दंगों को लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने भी नरेंद्र मोदी को राजधर्म निभाने की सलाह दी थी लेकिन राजधर्म निभाया गया या नहीं ये सब जानते हैं। जकिया जाफरी भारतीय न्याय व्यवस्था में भरोसे का प्रतीक हैं। उन्होंने अपना संघर्ष बंद नहीं किया। वे लड़ती रहीं और देश की सबसे बड़ी अदालत की दहलीज पर भी उन्होंने दस्तक दी।

अब जब कि देश की सबसे बड़ी अदालत ने भी जांच दल द्वारा दी गयी क्लीनचिट को परोक्ष रूप से मान्यता दे दी है तब जकिया जाफरी क्या करेंगी? इससे पहले, विशेष मजिस्ट्रेट कोर्ट, गुजरात उच्च न्यायालय ने भी एसआईटी की क्लोज़र रिपोर्ट को चुनौती देने वाली ज़किया जाफ़री की याचिका को ख़ारिज कर दिया था। ज़किया जाफ़री ने इस मामले में नरेंद्र मोदी और अन्य कथित साज़िशकर्ताओं की भूमिका पर विशेष जांच दल (एसआईटी) द्वारा जारी क्लीन चिट की फिर से जाँच की माँग की थी।

राकेश अचल

सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस एएस खानविलकर, दिनेश माहेश्वरी और सीटी रविकुमार की खंडपीठ ने आरोपों पर टिप्पणी करते हुए कहा कि यह साबित करने के लिए पर्याप्त सबूतों की कमी थी कि पूरी घटना एक बड़ी साज़िश का हिस्सा थी। साथ ही इस मामले में मेरिट की कमी है। मुमकिन है कि सबूतों की कमी हो लेकिन एक विधवा आखिर एक सत्ता प्रतिष्ठान के खिलाफ कितने सबूत जुटा सकती है? जितने जुटा सकती थी, उतने उसने जुटाए। सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर जकिया ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है,हाँ उनका बेटा तनवीर इस फैसले से निराश जरूर है।
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देश की अदलातें गवाह और सबूतों की बिना पर काम करती हैं। एसआईटी भी शायद यही काम करती है। कहते हैं कि देश की अदालतों को प्रभावित नहीं किया जा सकता,लेकिन जांच दलों को किया जा सकता है। मुमकिन है कि जाकिया को ऐसा ही लगा हो और वे इसीलिए गुजरात हाईकोर्ट से होती हुई सुप्रीम कोर्ट तक पहुंची। जकिया ने एक कोशिश की थी,उन लोगों की आत्मा को शनिति और न्याय दिलाने के लिए जो ज़िंदा जलाकर मार दिए गए थे। मरने वाले बदनसीब थे इसीलिए वे मरे और मरने के बाद भी उन्हें इन्साफ नहीं मिला। इन्साफ इतनी सस्ती चीज भी नहीं है जो हाल मिल जाए।

जकिया की हिम्मत की दाद दी जाना चाहिए कि वे लगातार 22 साल से गुजरात दंगे के आरोपियों को सजा दिलाने के लिए कानूनी लड़ाई लड़ती आ रहीं हैं अन्यथा दूसरा कोई और होता तो अब तक टूट कर घर बैठ गया होता। टूटी और बिखरी तो जकिया जाफरी भी हैं,लेकिन उनके भीतर एक उम्मीद है जो उन्हें इस संघर्ष की ताकत दे रही है। देश की सबसे बड़ी अदलात में जकिया की याचिका ख़ारिज होने के बाद सवाल उठता है कि क्या न्याय का दरवाजा अब हमेशा केलिए बंद हो गया है ? क्या अब यह मामला यहीं ख़त्म हो जाएगा? क्या वादी के पास अभी भी न्यायिक विकल्प है? क्या कथित साज़िशकर्ताओं को अब बरी कर दिया जाएगा?

भारत को आजाद हुए 75 साल हो गए लेकिन दुर्भाग्य ये है कि यहां आज भी दंगे जब-तब हो ही जाते हैं और इससे बड़ा दुर्भाग्य ये है कि दंगाइयों को शायद ही कभी सजा मिल पाती हो। गुजरात से पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए देशव्यापी सिख दंगे हों या जम्मू-कश्मीर में कश्मीरी पंडितों का जबरिया निर्वासन। देश का कानून प्राय : दंगाइयों की गर्दन नाप नहीं पाता। मुश्किल तब और ज्यादा होती है जब सत्ता खुद इन दंगों के लिए आरोपित की जाती है।

हमारे देश में दो सच हैं। पहला ये कि अपराध होते हैं और दूसरा ये कि आरोपियों को क्लीनचिट मिल जाती है और इस क्लीनचिट को लोग टंगे की तरह सीने से चिपकाये हुए घूमते भी हैं। पर सवाल ये है कि क्या सचमुच इन क्लीनचिटों को हासिल करने के बाद आरोपियों के सीने पर लगे दाग मिट जाते हैं? शायद नहीं मिटते। ये मन का धन जरूर हो सकते हैं। अदालत के फैसले पर चूंकि याचिकाकर्ताओं ने ही कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है इसलिए और किसी को ये अधिकार नहीं है कि वो इस मामले में मीन-मेख निकाले.किन्तु ये मुद्दा जेरे बहस आना जरूर चाहिए ,क्योंकि ये सवाल अनुत्तरित ही रह जाता है कि आखिर दंगों में मारे गए लोगों को किसने मारा? मरने वाले अपने आप तो नहीं मरे।

दंगे सभ्य समाज पर ही एक कलंक हैं, इसलिए इन्हें किसी भी सूरत में क्षम्य नहीं कहा जा सकता। दंगाइयों की जाति,धर्म मायने नहीं रखती। दंगाई तो दंगाई होते हैं। उनका हिन्दू या मुसलमान होना कोई मायने नहीं रखता। ये एक प्रवृत्ति है और बेहद घातक प्रवृति है। काश कि क्लीनचिटों से देश के दामन पर लगे दंगों के तमाम दाग हमेशा के लिए धुल सकते ?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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