यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद यूक्रेन को लेकर भारत की नीति और नीयत को लेकर सबकी नजरें भारत पर टिकी हैं, लेकिन भारत तत्काल प्रतिक्रिया देने से बच रहा है। भारत मौजूदा हालात में हमलावर रूस के साथ खड़ा होगा या पीड़ित यूक्रेन के साथ ये बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अलावा कोई दूसरा नहीं जानता। यूक्रेन में भारत के हजारों छात्र फंसे हुए हैं।
रूस और यूक्रेन के बीच संघर्ष के कारण क्या हैं, ये बताने की जरूरत नहीं है। पूरी दुनिया जानती है कि रूस और यूक्रेन की लड़ाई का भारत या सीधे तौर पर अमरीका से कोई लेना-देना नहीं है किन्तु जब बात विश्व राजनीति की आती है तो रूस और अमरीका यूक्रेन जैसे मुद्दे पर आमने-सामने खड़े नजर आते हैं। रूस ने अमरीकी पाबंदियों और नाटो संगठन की परवाह किये बिना यूक्रेन पर हमला किया है। दुर्भाग्य से नाटो संगठन भी इस हमले के बाद मूक दर्शक बना है। कायदे से नाटो को यूक्रेन की मदद करना चाहिए थी, किन्तु नाटो अपनी सेनाएं यूक्रेन की मदद केलिए नहीं भेज रहा, इसका अर्थ ये है कि नाटो भी रूस के तेवरों से खौफ खा रहा है।
यूक्रेन और भारत के द्विपक्षीय संबंध हैं। भारत, यूक्रेन को पहले मान्यता देने वाले देशों में से एक है। इसलिए यहां के निवासियों में भारतीयों के लिए बहुत सम्मान है। भारत ने यहां की राजधानी कीव में अपना दूतावास मई 1992 में खोला गया। वहीं यूक्रेन ने एशिया में अपना पहला मिशन फरवरी 1993 में दिल्ली में खोला। दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।पिछले 25 वर्षों में और 2018-19 में लगभग 2.8 बिलियन अमेरिकी डॉलर का व्यापार हुआ है। यूक्रेन से भारत में निर्यात की जाने वाली मुख्य वस्तुएं कृषि उत्पाद, प्लास्टिक और पॉलिमर हैं। कीव खाना पकाने के तेल का एक महत्वपूर्ण आपूर्तिकर्ता रहा है। पिछले साल भारत में लगभग 74 फीसदी सूरजमुखी तेल की यूक्रेन से हुई थी। जबकि भारत फार्मास्यूटिकल्स, मशीनरी, रसायन, खाद्य उत्पादों का आयात करता है।
मौजूदा हालात में भारत हमलावर रूस के साथ भी अपने रिश्तों को दांव पर नहीं लगना चाहेगा। भारत के चीन के साथ रिश्ते पहले से कड़वाहट भरे हैं। ऐसे में यदि रूस से भी बिगड़ गयी तो मुश्किलें और बढ़ सकती हैं। परेशानी ये है कि यदि इस मामले में भारत रूस के साथ खड़ा होता है तो अमेरिका नाराज होता है और रूस के खिलाफ जाता है तो चीन के बाद उसका एक और शत्रु तैयार हो सकता है। आज भारत के पास जवाहरलाल नेहरू या इंदिरा गाँधी नहीं हैं जो पंचशील और निर्गुट सिद्धांत के आधार पर अपने आपको इस आग से बचा सकें। आज भारत के पास नरेंद्र मोदी हैं, जिनकी अपनी विदेश नीति है।अफगानिस्तान के मुद्दे पर भी इसी तरह की अनिश्चितता हम देख चुके हैं।
भारत में यूक्रेन संकट के दौरान बेचैनी है, क्योंकि यहां के करीब पंद्रह हजार छात्र फंसे हुए हैं। इन छात्रों की निकासी को लेकर भारत की रणनीति लोगों को ठीक नहीं लग रही। संकट में फंसे छात्रों को एयर इंडिया लूट रहा है। कायदे से इस समय सरकार को पूरा अभियान अपने नियंत्रण में रखना चाहिए था लेकिन आम भारतीय सर्वशक्तिमान सरकार के सामने असहाय है। सरकार की प्राथमिकताएं कुछ और ही हैं। फिर भी हम ये नहीं कह सकते कि सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी होगी। सरकार अपने स्तर पर कुछ न कुछ तो कर रही होगी क्योंकि आखिरकार सरकार को देश की सम्प्रभुता की फ़िक्र तो होगी ही।
यूक्रेन की राजनीति में रूस का दखल शुरू से रहा है। रूस को यूक्रेन की स्वायत्ता और आजादी हजम नहीं होती। रूस यूक्रेन में अलगाववादियों का समर्थन करता आया है। रूस ने यूक्रेन के उस राष्ट्रपति विक्टर का समर्थन किया था जिसका विरोध वहां की जनता ने किया था। सात साल पहले रूस व यूक्रेन में लगातार तनाव व टकराव को रोकने व शांति कायम कराने के लिए पश्चिमी देशों ने पहल की। फ्रांस और जर्मनी ने 2015 में बेलारूस की राजधानी मिन्स्क में दोनों के बीच शांति व संघर्ष विराम का समझौता कराया किन्तु अंतत:ये भी नाकाम ही साबित हुआ।
भारत सरकार का रुख भले ही अस्पष्ट हो लेकिन भारत की जनता तो यूक्रेन की जनता के साथ ही सहानुभूति रखती है। युद्ध से आप देश जीत सकते हैं, वहां की जनता का दिल नहीं। दिल मुहब्बत से ही जीते जा सकते हैं। दिल जीतने का ये विकल्प रूस पहले ही खो चुका है। उम्मीद की जाना चाहिए कि ये युद्ध बहुत जल्द समाप्त होगा। वैसे भी महाबली रूस के सामने यूक्रेन कितने दिन टिक पायेगा, अंतत:संधि होगी और रूस की शर्तों पर होगी, क्योंकि नाटो मौन है और अमेरिका अनिश्चय कि स्थिति में। अमेरिका की दशा सांप-छछूंदर जैसी हो गयी है। अमेरिका इस मामले में भारत का साथ चाहता है, जो शायद ही उसे मिले। यूक्रेन और रूस के बीच जितनी जल्दी हो युद्ध समाप्त हो अन्यथा ये आग और ज्यादा फैलकर विश्व शान्ति के लिए खतरनाक साबित हो सकती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)