देश अंग्रेजियत से मुक्ति का अमृत महोत्स्व मनाते-मनाते कहीं रंगरेजियत के भंवर में तो नहीं फंसता जा रहा? कहीं आने वाले दिनों में हमें भी श्रीलंका की तरह आर्थिक कोहराम का सामना तो नहीं करना पडेगा ? कहीं पाकिस्तान की तरह के सियासी हालात हमारे यहां भी तो गड़बड़ नहीं हो जायेंगे? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो आज भले ही काल्पनिक लगते हों किन्तु कल ये वास्तविक भी हो सकते हैं।
हम निब्बू संकट पर बात करते हुए क्या इन तमाम मुद्दों पर बातचीत नहीं कर सकते ? क्या सचमुच हमारे यहां की अर्थव्यवस्था में वो ही झोल तो नहीं आ रहा जो कल को हमें भी श्रीलंका और पाकिस्तान की तरह मुसीबतों का सामना करने के लिए मजबूर कर दे? हमारे जैसे रोजनदार लेखक विदेशी और देशी अर्थ व्यवस्था के मुद्दे पर बहुत ज्यादा आधिकारिक रूप से नहीं बोल सकते,बोल भी दें तो कोई हमारे ऊपर ठीक उसी तरह यकीन नहीं करेगा जैसे वित्त मंत्री श्रीमती सीतारमण पर कोई नहीं करता। ऐसा इसलिए है कि रंगरेजियत के चलते हम सबने अपनी विश्वसनीयता खो दी है।
लगातार सत्ता प्रतिष्ठान के खिलाफ लिखते हुए जैसे एक वर्ग ये समझने लगा है कि हम मोदी विरोधी हो गए हैं, जबकि हकीकत ये है कि माननीय मोदी जी ने हमारे यहां से कभी कोई भैंस नहीं खोली,सिवाय इसके कि उनकी सरकार ने हर दिन हमारी जेब काटी है। ठीक इसी तरह सरकार ने तमाम छोटे-बड़े मुद्दों को बलाए ताक रखकर पूरे देश को भगवा रंग में रंगने के फेर में तमाम असली मुद्दों को भुला दिया है। बेरोजगारी, मंहगाई, भ्र्ष्टाचार सरकार के लिए कोई मुद्दा नहीं है। सरकार के लिए मुद्दा केवल सरकार है। अर्थात सरकार कैसे बनाई जाये और कैसे बनी-बनाई सरकार गिरायी जाये।
सरकार बनाने और बिगाड़ने के अलावा हमारी सरकार ने कोई बहुत बड़ा काम किया हो तो आप जरूर उसे जानते होंगे। देश दिर्फ़ इतना जानता है कि सरकार ने लगातार सरकारें बनाई हैं और लगातार सरकारें बिगाड़ी हैं। इस कड़ी मेहनत का ही फल है कि सरकार पहली बार राज्य सभा में सौ का आंकड़ा पर कर काफी मजबूत स्थिति में पहुँच गयी है। देश में सरकार का मजबूत होना अर्थ व्यवस्था के मजबूत होने की गारंटी नहीं हो सकती। देश में सरकार के मजबूत होने का सही अर्थ जनता का मजबूत होना है, जो दुर्भाग्य से नहीं हो पाया है।
देश की अर्थ व्यवस्था को मजबूत करने का कोई एजेंडा संघ परिवार ने कभी सरकार को दिया ही नहीं इसलिए माननीय प्रधानमंत्री मोदी जी इसके लिए जिम्मेदार बिलकुल नहीं हैं। इसके लिए जिम्मेदार देश की जनता है जो लगातार उदासीन होकर लोकतंत्र के नाम पर रंगरेजियत में उलझी है। सरकार को न हरा रंग पसंद है और न सफेद, उसे तो केवल भगवा रंग पसंद है। सरकार की प्राथमिकता देश को पांच हजार साल पुराना भारत बनाने की है। सरकार की प्रतिस्पर्द्धा विज्ञान और विकास से है ही नहीं, इसलिए कभी-कभी डर लगता है कि कहीं भारत भी किसी दिन श्रीलंका और पाकिस्तान की तरह आंसू बहाता नजर न आये।
इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि बीते सात साल में मौजूदा सरकार असली मुद्दों पर धूल डालकर नकली मुद्दों पर जनता को अपने साथ जोड़े रखने में कामयाब हुई है और जहां उसे कामयाबी नहीं मिली है वहां उसने अपने तरीके से कामयाबी हासिल कर ली है। सरकार खेल-तमाशों के बाद फ़िल्मी इल्म से भी अपने अभियान को गति देने में सफल रही है। जनता के दिमाग पर राष्ट्रीयता का रंग चढ़ाना बुरी बात नहीं है किन्तु उसे नशे की तरह इस्तेमाल करना देशद्रोह से कम नहीं है। सरकार कश्मीर के मुद्दे पर सवाल पूछे जाने पर गर्म हो जाती है। सदन में ऊंची आवाज में बोलने लगती है। उसका यानि सरकार का खून खौलने लगता है और सफाई दी जाती है कि ये सब मेन्युफेक्चरिंग डिफेक्ट की वजह से हो रहा है।
आप और हम श्रीलंका संकट की वजह से संकट में हैं या नहीं ये बताने वाला कोई नहीं है क्योंकि अभी श्रीलंका से शरणार्थी बनकर आने वाले लोग इस्लाम के समर्थक नहीं हैं। वे यदि रोहंगिया होते तो अब तक चिल-पों मच चुकी होती. श्रीलंका को संकट के समय में साथ देकर सरकार ने बहुत अच्छा काम किया है। अच्छे काम की तारीफ़ संसद के भीतर और संसद के बाहर होना चाहिए लेकिन ये सवाल भी किये जाने चाहिए कि देश के ऊपर आखिर शरणार्थियों का बोझ क्यों लादा जा रहा है ? यहां तो पहले से जनता की कमर टूटी है। पेट्रोल से लेकर निब्बू तक आम आदमी की पहुँच से बाहर हो रहा है ऐसे में हम शरणार्थियों का बोझ कैसे उठाएंगे?
पाकिस्तान का राजनीतिक संकट हमारे ऊपर क्या असर डालेगा हमें नहीं पता, कोई बता भी नहीं रहा लेकिन जाहिर है कि जब-जब पाकिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता होती है भारत पर इसका दुष्प्रभाव पड़ता है। ऐसे समय में क्या हमें सीमावर्ती जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र को बहाल नहीं कर देना चाहिए? आखिर वहां लोकतांत्रिक प्रक्रिया शुरू करने के लिए सरकार को कितना वक्त चाहिए? क्या कश्मीर को केवल दी कश्मीर फ़ाइल बनाकर देश भर को दिखा देने से मजबूत बनाया जा सकता है। हम यूक्रेन और रूस के बीच चल रहे युद्ध से भी परोक्ष रूप से प्रभावित हो रहे हैं। वहां की भयावह स्थितियों को लेकर हमारी चिंताएं जगजाहिर हैं, लेकिन क्या वास्तव में हमने कोई ठोस काम किया है इस दिशा में ?
देश के अंदर मंहगाई का बढ़ना और अर्थ व्यवस्था का लगातार नकली आंकड़ों की बैशाखी के सहारे दौड़ लगाना घातक हो सकता है, इसलिए जरूरी है कि देश संविधान द्वारा शक्तिसम्पन्न बनाई गयी संस्थाओं के जरिये मजबूत बनाने का प्रयास करे। अखबारों के सर्वे के आधार पर पावरफुल बताये गए लोगों के भरोसे न रहे। जो काम चुनी हुई सरकार कर सकती है वो काम एक पंजीकृत संघ नहीं कर सकता। इसलिए डॉ मोहन भागवत के कन्धों पर कश्मीर की रक्षा का भार डालने के बजाय सरकार ये जिम्मेदारी अपने कन्धों पर रखे तो ज्यादा बेहतर है। भागवत साहब भागवत सुनाने के लिए सबसे बेहतर व्यक्ति हैं, लेकिन असल काम तो सरकार को करना है। केवल ‘नमस्ते सदा वतस्ले ‘का उद्घोष देश की अर्थव्यवस्स्था को संकट से नहीं उबार सकता। मंहगाई से मुक्ति नहीं दिला सकता। इसके लिए सम्यक योजनाएं बनाकर देश कि जनता को मुफ्तखोरी की आदत से निजात दिलाकर ही कुछ हासिल किया जा सकता है। आप सहमत हों तो ठीक और न हो भी कोई बात नहीं,असहमति का भी सम्मान किया जाना चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)