मप्र में करणी सेना ने सरकार की ईंट से ईंट बजा दी। भारत में ये खास सुविधा है कि भारतीय सेना के होते हुए भी कोई भी सेना सरकार की ईंट से ईंट बजा सकती है। इन सेनाओं के गठन पर न किसी गांधीवादी सरकार ने रोक लगाई और न किसी गोडसेवादी सरकार ने। सरकारों की दरियादिली के चलते ही देश में आजादी के 75 साल बाद भी ये निजी सेनाएं,राजे – महाराजे लोकतंत्र की छाती पर मूंग दलने में कामयाब हो रहे हैं।
एक जमाने में बिहार में निजी सेनाओं का बड़ा बोलबाला था। इन सेनाओं ने जातीय आधार पर अनगिनत नरसंहार किए। चंबल में 2006 तक डकैतों की सेनाएं थीं लेकिन उन्हें गिरोह कहा जाता था। 2006 में ही राजस्थान में करणी सेना का गठन किया गया था। कहा गया था कि करणी सेना राजपूत और उनकी संस्कृति की रक्षा करेगी।
करणी सेना ने अपना पुरुषार्थ दिखाया संजय लीला भंसाली की फिल्म ”पद्मावती”के खिलाफ। सेना ने केवल जौहर ही नहीं किया,वरना कोई कसर नहीं छोड़ी। दीपिका पादुकोण को धमकाया।करणी सेना के कथित दबाव में भाजपा की तमाम राज्य सरकारों ने पद्मावती को प्रतिबंधित भी किया था।
अब सवाल ये है कि मप्र के आंगन में करणी सेना का क्या काम है? यहां न राजपूत संकट में हैं न ही राजपूत संस्कृति। फिर करणी सेना क्यों इक्कीस सूत्रीय मांगों को लेकर शिवराज सिंह चौहान की सरकार को हिलाने में लग गई? क्या करणी सेना के आंदोलन के पीछे सेना के प्रदेश अध्यक्ष ठाकुर जीवन सिंह शेरपुर अकेले नेता हैं,या उन्हें सरकार और भाजपा संगठन में बैठे राजपूत नेताओं का भी समर्थन हासिल है?
करणी सेना ने जिस तरीके से प्रदेश सरकार के मंत्री अरविंद भदौरिया को ज्ञापन देकर आंदोलन स्थगित किया और जिस तरीके से मीडिया के राजपूतों ने आंदोलन का साथ दिया, उससे मेरी ये आशंका बलवती होती है कि सेना की सक्रियता के पीछे भाजपा का अंतर्कलह है।
मप्र में अभी तक कोई तीसरी राजनीतिक ताकत नहीं है। समय ने पहले ब्राम्हणों को फिर राजपूतों को बेअसर बनाया और पिछले 18 साल से पिछड़ा वर्ग सत्ता के शीर्ष पर हैं। भाजपा चाहकर भी किसी राजपूत को मुख्यमंत्री नहीं बना सकी जबकि नरेन्द्र सिंह तोमर पिछले वर्षों में कम से कम तीन बार शपथग्रहण के लिए नये जोधपुरी कोट सिलवा चुके हैं।
करणी सेना के कर्णधार भले ही कहते हैं कि यह व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई है, उसके लिए बहुत कुर्बानियां देनी पड़ेगी। करणी सेना की 21 मांगें पूरी तरह से राजनीतिक मांगें हैं। सेना चाहती है कि आरक्षण का आधार आर्थिक किया जाए, ताकि समाज के हर वर्ग के गरीबों को आरक्षण का लाभ मिल सके। एक बार आरक्षण मिलने पर दोबारा आरक्षण का लाभ नहीं दिया जाए। सेना बेरोजगारी, किसानों , कर्मचारियों की समस्यायों , जीएसटी,गाय,और पुलिस प्रणाली में भी सुधार की मांग करने लगी है।
करणी सेना भाजपा के नजदीक शुरू से है। राजस्थान की राजनीति का विश्लेषण करेंगे तो सब समझ में आ जाएगा। सेना का ध्वज भगवा है। मप्र की राजनीति में पहले से जाति आधारित दल बसपा और सपा पिछले ढाई दशकों से अपने पैर जमाने की कोशिश कर रही है, लेकिन हर बार उसके विधायक बिक जाते हैं।
जीवन सिंह भी भावुक होकर भाजपा के खिलाफ मोर्चा खोल बैठे हैं, जबकि वे जानते हैं कि जिस दिन उनके संरक्षक चाहेंगे उन्हें पुनः दड़बे का मूषक बना देगे। जीवन सिंह जैसे युवाओं का भविष्य सभी दलों ने बर्बाद किया है। गुजरात के युवा तुर्को को याद कर लीजिए,आज वे कहां हैं ?
मप्र में अगले साल विधानसभा के चुनाव हैं। ये चुनाव 2018 में चुनाव हारी भाजपा और सत्ता में लौटी कांग्रेस के बीच है। भीतरघात के कारण सत्ताच्युत हुई कांग्रेस की दशा घायल शेर जैसी है।ऐसे में करणी सेना की उपस्थिति से परिदृश्य पर कितना असर पड़ेगा,बताने की जरूरत नहीं है। करणी सेना के राजपूतों के सामने भाजपा के अलावा कोई विकल्प नहीं है। वे सत्ता की दौड़ में ब्राम्हणों की तरह पिछड़ चुके हैं। राष्ट्रीय स्तर पर राजनाथ सिंह जैसे मौन साधे मोक्ष की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
भारतीय लोकतंत्र के लिए बेहतर हो कि जाति आधारित राजनीति करने वाले छद्म सामाजिक सेनाओं पर सख्ती से रोक लगाई जाए भले ही वे मां करणी देवी के नाम पर काम कर रहे हों या भीमराव के नाम पर। बात कड़वी है, कड़वी लगेगी।आप गुस्सा थूककर अपने मुंह का जायका बनाए रख सकते हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)