कुर्सी पर बने रहने की चाहत ने जगत मामा और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को एकदम असहाय बना दिया है। उनकी बेबसी अब सार्वजनिक हो गयी है। लगने लगा है कि वे अब आधे मुख्यमंत्री रह गए हैं, आधे पर प्रदेश में सरकार बनवाने वाले केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया का कब्जा है। प्रशासनिक फैसलों पर इस तरह की बेबसी की छाप साफ़ दिखाई देने लगी है।
पार्टी के नेताओं को संतुष्ट करना मुख्यमंत्री की नैतिक जिम्मेदारी है लेकिन जब प्रशासनिक पदस्थापनाओं में मुख्यमंत्री को अपने निर्णय रातों-रात बदलना पड़ जाएँ तब लगता है कि सूबा सदर की बेचारगी कम होने के बजाय लगातार बढ़ती जा रही है। मध्यप्रदेश में दलबदल के जरिये कांग्रेस सरकार के पतन और भाजपा सरकार के गठन के बाद से ही ये सिलसिला जारी है।
हाल ही में ग्वालियर रेंज के पुलिस महानिरीक्षक की पदस्थापना को लेकर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को असमंजस की स्थिति का सामना करना पड़ा। उन्होंने जिन वर्मा साहब को ग्वालियर भेजा था उन्हें सिंधिया सरकार की और से खारिज कर दिया गया। मजबूरन मुख्यमंत्री जी को अपना ही आदेश बदलकर वर्मा की जगह अनिल शर्मा नाम के अधिकारी को ग्वालियर रेंज में भेजना पड़ा। अनिल शर्मा और वर्मा की कार्यक्षमता में क्या अंतर है, ये भगवान जाने लेकिन वे राव पर ही नहीं मुख्यमंत्री जी पर भी भारी पड़े।
ग्वालियर में कौन अधिकारी रहे और कौन नहीं इसका फैसला एक समय केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर किया करते थे,लेकिन आजकल यही काम केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया कर रहे हैं। उन्होंने जिस अधिकारी को ग्वालियर रेंज में पदस्थ कराया है उसके ऊपर सार्वजनिक रूप से भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बीडी शर्मा और उनके फ़ौज-फांटे के लिए सागर में चाय-पानी का इंतजाम करने का आरोप है। आरोप क्या प्रमाण है कि साहब खुद मौके पर मौजूद रहकर अपने सिपाहियों के जरिये भाजपा प्रदेशाध्यक्ष की सेवा में लगे हुए हैं।
अब सवाल ये है कि क्या जनता की सेवा के लिए लोकसेवकों की जगह भाजपा के सेवकों को तैनात किया जाएगा? किस अधिकारी की राजनितिक निष्ठाएं किसके प्रति हैं ,ये सबको पता होता है किन्तु जैसा दुस्साहस सागर रेंज के आईजी रहते हुए अनिल शर्मा ने दिखाया था वैसा शायद ही भापुसे का कोई अधिकारी कर सके। उनके राजनीतिक सम्पर्कों का ही प्रताप है की प्रदेश के पुलिस महानिदेशक विवेक जौहरी भी मन मसोसकर रह गए और शर्मा से स्प्ष्टीकरण तक नहीं मांग पाए।
प्रदेश में आज ठीक वैसी स्थिति बन गयी है जैसी 1985 से 1988 तक तत्कालीन मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा के समय थी। उस समय भी वोरा जी तत्कालीन केंद्रीय मंत्री माधवराव सिंधिया की मर्जी के बिना ग्वालियर अंचल के लिए कोई निर्णय नहीं करते थे। वैसे ये एक तरह से ठीक भी है लेकिन नैतिक रूप से ठीक नहीं भी है। दबाव में चलती सरकार के फैसले कभी-कभी घातक भी हो सकते हैं। अतीत इसका गवाह है। जिस तरह से हाल ही में राव की पदस्थापना को रातों-रात बदला गया ठीक उसी तरह एक जमाने में ग्वालियर के एसपी एनके त्रिपाठी की पदस्थापना को रातोंरात तबके प्रभावी भाजपा नेता सरदार आंग्रे के दबाव में बदला गया था।
राजकाज में दबाब चलते हैं लेकिन उनमें एक पर्देदारी होती है,जब ये पर्दे हटने लगते हैं तो स्थितियां हास्यास्पद हो जाती हैं। संयोग से अब ऐसी स्थितियां आये दिन बन रही हैं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह और भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष बीडी शर्मा को केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के सामने नतमस्तक होकर काम करना पड़ रहा है। पिछले महीने प्रदेश के निगम मंडलों में हुई पदस्थापनाओं में ये खुलकर सामने आया। यहां तक की भाजपा के समर्पित कार्यकर्ता हाथ मलते रह गए किन्तु विधानसभा उपचुनाव हार चुके सिंधिया के सभी समर्थकों को मंत्री स्तर के पद दे दिए गए।
देशज भाषा में ऐसी सरकारों को लंगड़ी सरकार कहा जाता है, यानि जो लड़खड़ाते हुए चलती हैं,ऐसी सरकारों के मुखिया को हर समय किसी के पांव अड़ाने का खतरा बना रहता है। मजे की बात ये है कि भाजपा के नेता सार्वजनिक रूप से इस तथ्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं और चुपचाप अपमान का घूँट पीने के लिए विवश हैं। ग्वालियर निवासी इस स्थिति से खुश हो सकते हैं कि उनका नेता इतना सबल है जो पूरी सरकार को अपने इशारों पर नचा रहा है लेकिन तमाम नौकरशाही इस स्थिति से आतंकित है और इन दिनों ग्वालियर आने से कतरा रही है। भाजपा के एक जानकार कहते हैं कि इस समय ग्वालियर को रीढ़विहीन लोकसेवकों की जरूरत है,जो हर समय झुकने को तैयार हों।
पिछले एक साल में ग्वालियर अंचल से उन तमाम अफसरों को खदेड़ दिया गया है जो सिंधिया या उनके समर्थकों की आँखों में खटकते थे। बताया जाता है कि खुद सिंधिया कि पदस्थापनाओं और तबादलों में कोई दिलचस्पी नहीं रहती लेकिन उनके दरबारी उनसे ये सब काम करा लेते हैं और सिंधिया को भी अपनी समानांतर सरकार चलाने के लिए अपने अमले की बात मानना पड़ती है। सबसे दिलचस्प बात ये है कि केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर इस माले में मौन हैं। वे न किसी पदस्थापना के लिए अड़ रहे हैं और न किसी तबादले के लिए लड़ रहे हैं। उन्होंने फिलहाल इस काम को स्थगित कर रखा है ,यानि उन्होंने सिंधिया के निर्णयों से अपनी प्रतिष्ठा को जोड़ने से अपने आपको बचा रखा है।
सूत्रों का कहना है कि फिलवक्त सरकार में जितना दखल ज्योतिरादित्य सिंधिया का है उतना प्रदेश के किसी दूसरे नेता का नहीं है,हालाँकि केंद्र में और भी मंत्री तथा पदाधिकारी मध्यप्रदेश से हैं। ये सिंधिया का अपना प्रभामंडल है जो पूरी भाजपा को अपने नए सारथी के साथ कदमताल करते हुए आगे बढ़ना पड़ रहा है,अन्यथा भाजपा में शरणार्थियों को इतना मान-सम्मान कहाँ मिलता है? मौजूदा हालत को देखकर अनुमान लगाया जा रहा है कि आगामी विधानसभा चुनावों तक सिंधिया आज के मुकाबले और ताकतवर होकर उभरेंगे। तब असल भाजपाइयों का क्या होगा राम ही जाने ! कुल मिलाकर मुख्यमंत्री आज की तारीख में सबकी सहानुभूति के पात्र हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )