कोशियारी की होशियारी: बे सिर-पैर के बयान देने ही बनाए जा रहे राज्यपाल?

महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोशियारी के बयान पर वरिष्ठ पत्रकार राकेश अचल का आलेख

हैरानी की बात ये है कि भारत में असल मुद्दों के मुकाबले नकली मुद्दों की पूंछ हनुमान की पूंछ से भी लम्बी है। एक मुद्दा खत्म होने से पहले ही दूसरा मुद्दा अंकुरित हो जाता है। असली मुद्दों को सिर उठाने का मौक़ा ही नहीं देते ये नकली मुद्दे। बहस के लिए नया मुद्दा महाराष्ट्र के राज्यपाल कोशियारी ने दिया है। कोशियारी के होशियारी भरे बयान के बाद अब महाराष्ट्र वाले आपस में उलझ रहे हैं।

दरअसल देश में कोशियारी हों या पूर्व के धनकड़ ,जो भी राज्यपाल बनाया जाता है, इसी तरह के बेसिर-पैर के बयान देने के लिए बनाया जाता है। राज्यपाल का काम ही राज्य सरकारों को परेशान करना है। जो राज्यपाल ऐसा नहीं कर पाता उसे अयोग्य,अक्षम और नाकारा माना जाता है। श्रेष्ठ राज्यपाल वो ही है जो केंद्र के इशारे पर काम करे। राज्यपाल भगत सिंह जी हैं ,उन्होंने बीते दिनों कहा कि -‘ अगर महाराष्ट्र से गुजराती और राजस्थानियों को निकाल दिया जाए तो राज्य के पास कोई पैसा नहीं बचेगा। ‘कोशियारी ने ये क्यों कहा,इसकी क्या जरूरत थी ? ये वे जानें लेकिन अब महाराष्ट्र में एक नयी हलचल शुरू हो गयी है।

महाराष्ट्र वाले एकनाथ शिंदे और भाजपा की सरकार की अंतर्कथा को भूलकर होशियारी कथा में उलझ गए हैं। यहां तक कि सत्ताच्युत हो चुके पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे भी इस मकड़ जाल में उलझ गए हैं। उद्धव ठाकरे ने राज्यपाल पर “हिंदुओं को बांटने” का आरोप लगाते हुए कहा कि यह टिप्पणी ‘मराठी मानुस’ और मराठी गौरव का अपमान है। ठाकरे ने माफी की मांग करते हुए कहा, “सरकार को तय करना चाहिए कि उन्हें घर वापस भेजा जाए या जेल। उन्होंने कहा, ‘अब जो नए हिन्दू बने हैं, उन सत्ताधारी हिंदुओं से पूछना चाहता हूं. मैं जानबूझकर यह कह रहा हूं क्योंकि उनके अनुसार मैंने हिंदुतव छोड़ दिया है।

कोशियारी की होशियारी से भाजपा चैन में है लेकिन उद्धव के साथ एकनाथ शिंदे का भी चैन छिन गया है। उन्हें भी मजबूरी में इस मामले में बोलना पड़ रहा है नहीं बोलेंगे तो मराठी मानुष लत्ते ले लेगा। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे को कहना पड़ा कि वह मुंबई को लेकर राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी की टिप्पणी से सहमत नहीं हैं। उन्होंने कहा कि शहर के विकास में मराठियों के योगदान को कभी भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। राज्यपाल एक संवैधानिक पद पर आसीन हैं और उन्हें अपने बयानों से किसी को भी ठेस न पहुंचाने के प्रति सतर्क रहना चाहिए।

राकेश अचल

राज्यपाल केंद्र की कठपुतली होते हैं.आप उन्हें चाबी वाला खिलौना भी कह सकते हैं। उनमें जितनी चाबी भरी जाती है,वे उतना ही काम करते हैं। राज्यपाल कि ये प्रवृत्ति आज की नहीं बल्कि कांग्रेस के जमाने से है। इसे किसी भी राजनीतिक दल ने बदला नहीं,क्योंकि ये सभी को मुफीद जान पड़ती है। बंगाल के पूर्व राज्यपाल जगदीप घनकड़ को याद कीजिये। रोमेश भंडारी,भगवत दयाल शर्मा जैसे अनेक ऐसे राज्यपाल हुए हैं जो हमेशा विवादों के केंद्र में रहे। राज्यपाल अपने राय के मुख्यमंत्री से मुठभेड़ न ले तो उसके राज्यपाल होने का क्या अर्थ ? अब सब तो राम नरेश यादव हो नहीं सकते।

भगत सिंह कोशियारी संघ के अबे में पके हुए हुए स्वयं सेवक हैं। जानते हैं कि उन्हें कब,क्या कहना और करना है? उनकी होशियारी से भाजपा को जो सिद्ध करना था वो हो गया। ठाकरे को अब कोशियारी जी की अतीत में की गयी तमाम हरकतें एक-एककर याद आ रहीं हैं। ठाकरे ने कहा, ‘पिछले दो-तीन साल में उनके जो बयान हैं, वो देखकर ऐसा लगता है कि महाराष्ट्र के नसीब में ही ऐसे लोग क्यों आते हैं ? बतौर मुख्यमंत्री मैं जब कोविड-19 के मामले बढ़ रहे थे, लोग मर रहे थे, मैं उस पर काम कर रहा था और इन्हें मंदिर खोलने की जल्दबाजी थी। बाद में सावित्रीबाई फुले का अपमान किया। आज महाराष्ट्र में ही मराठी मानुस का अपमान किया गया।

बहरहाल लगता है कि अब कोशियारी की महाराष्ट्र से चला-चली की बेला आ गयी है। शीघ्र ही उन्हें कोई नयी जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है। वे संघ के भरोसे के आदमी है। आपको याद होगा कि देश में राज्यपाल का पद अनुकम्पा का पद है। राजभवन हासिये पर खड़े नेताओं के लिए पुनर्वास केंद्र की तरह होते हैं। पूरे देश के राज्यपालो की बात जरा लम्बी हो जाएगी ,इसलिए मैं इस किस्से को मध्यप्रदेश के आईने में आपको बता रहा हूँ। मध्य्प्रदेश में अब तक 17 मुख्यमंत्री बने तो19 राज्यपाल बनाये गए। पट्टाभि सीतारमैया से लेकर मंगू भाई सी पटेल तक। एक से एक बुद्धिमान और एक से एक घामड़।

मध्यप्रदेश ने ऐसे अनेक राज्यपाल देखे जो पहले पूर्व मुख्यमंत्री भी रह चुके थे। उन्हें झेलना आसान काम नहीं था। उदाहरण के लिए भगवत दयाल शर्मा, रामप्रकाश गुप्ता,रामनरेश यादव ,आनंदी बेन पटेल। मध्य प्रदेश को लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष बलराम जाखड़ जैसे दिग्गज भी राज्यपाल के रूप में मिले। मप्र के 19 में से 13 का कार्यकाल तो मुझे याद है। इनमें अनेक बेहद शालीन तो अनेक बेहद उज्जड राज्यपाल रहे। कुछ उच्च शिक्षा प्राप्त थे तो कुछ मिडिल पास लेकिन शिक्षा से राज्यपाल का ज्यादा रिश्ता नहीं होता भले ही वो कुलाधिपति होता है। बहुत कम राज्यपाल ऐसे होते हैं जिनसे मन माफिक काम कराना कठिन होता है। अधिकाँश वैसे ही होते हैं जैसे कोशियारी हैं।

मुख्यधारा से कटे नेताओं का आखिरी सपना राज्यपाल बनना होता है। राज्यपाल के बाद यदि किस्मत साथ देती है तो पदोन्नति के साथ राज्यपाल को राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति भी बनाया जा सकता है। भाजपा ने राज्यपाल को राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति बनाने की परम्परा शुरू की है। पहले ऐसा नहीं होता था। मै ऐसे तमाम नेताओं को जानता हूँ जो राज्यपाल और उप राष्ट्रपति बनने की अपनी अंतिम इच्छा को पूरा नहीं कर पाए और चल बसे। ऐसी अतृप्त आत्माएं भटकती रहतीं हैं। उनका तर्पण कठिन होता है। राज्यपाल के लिए राष्ट्रपति शासन स्वर्णकाल माना जाता है। राष्ट्रपति शासन में राज्यपाल की हैसियत मुख्य कार्यपालन अधिकारी जैसी होती है, लेकिन भूमिका मुख्यमंत्री जैसी। | राष्ट्रपति शासन में सभी दल और उसके नेता राज्यपाल की कृपा के लिए तरसते हैं |बहरहाल अब देखना है कि कोशियारी की होशियारी के क्या परिणाम मिलते हैं?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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