केंद्र सरकार की प्रबल इच्छाशक्ति का देश को कायल होना चाहिए। विवादित ‘अग्निपथ’ योजना को लेकर देशव्यापी बवाल के बाद भी देश के रक्षा मंत्री माननीय राजनाथ सिंह इस योजना को न केवल सही ठहरा रहे हैं बल्कि इसके खिलाफ विपक्ष पर राजनीति करने का आरोप भी लगा रहे हैं। इसे आप ‘ नाच न जानें,आंगन टेढ़ा ‘ वाली कहावत से जोड़कर भी देख सकते हैं।
रक्षा मंत्री का कहना है कि ‘ हमने काफी विचार विमर्श के बाद इस योजना का एलान किया है। उन्होंने कहा कि युवाओं के बीच गलतफहमी फैलाई जा रही है जिससे यह मुश्किल स्थिति पैदा हो गई है। हमारे युवाओं को इस योजना के बारें में समझाने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि यह योजना सैनिकों के लिए क्रांतिकारी बदलाव लाएगी, यह कहते हुए कि योजना के तहत भर्ती होने वाले कर्मियों को दिए जाने वाले प्रशिक्षण की गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं किया जाएगा।’
राजनाथ सिंह उस सरकार का हिस्सा हैं जो कहती कुछ और है और करती कुछ और है। इसलिए नहीं लगता कि सरकार अपनी इस योजना को वापस लेगी। आपको याद दिला दूँ अकेले बिहार में अग्निपथ योजना के खिलाफ हुई हिंसा को लेकर अब तक 700 करोड़ की सार्वजनिक सम्पत्ति स्वाह हो चुकी है। ब्रम्ह मुहूर्त यानि 4 बजे से रात 8 बजे तक रेलों का आवागमन स्थगित कर दिया है, लेकिन योजना को वापस लेने या पुनर्विचार करने के लिए सरकार तैयार नहीं है क्योंकि सरकार का तो कोई नुकसान नहीं हो रहा।
केंद्र की जिस योजना को लेकर जो राज्य सबसे ज्यादा उग्र है ,वहां भाजपा के साथ जेडीयू की सरकार है लेकिन उनका आरोप है कि ‘अग्निपथ’ योजना के खिलाफ कुछ विरोध राजनीतिक कारणों से हो सकते हैं। उन्होंने कहा कि कई राजनीतिक दलों को राजनीति के लिए बहुत सारे मुद्दे चाहिए। लेकिन हम जो भी राजनीति करते हैं, चाहे वह विपक्ष में रहे या सरकार में, वह देश के लिए है। रक्षामंत्री के इस स्पष्टीकरण पर आप न हंस सकते हैं और न रो सकते हैं,क्योंकि ये बड़ा ही मासूम स्पष्टीकरण है।
आपको याद रखना चाहिए कि केंद्र अग्निपथ के पहले सेना में एक पद, एक पेंशन ‘ योजना आजतक लागू नहीं कर पायी। केंद्र ने सेना में रिक्त 02 लाख पदों की पूर्ती की कोई योजना नहीं बनाई ,लेकिन अग्निपथ बना लिया,क्योंकि सिर पर चुनाव है और युवाओं को रिझाना उसकी विवशता थी। दुर्भाग्य से दांव उलटा पड़ गया और युवक भड़क गए। जैसे सरकार का टेसू अड़ गया है वैसे ही युवा भी रूठ गए हैं और कहते हैं ‘ मैया मै तो च्नद्र खिलौना ले हों ‘.चंद्र खिलौना अर्थात पूर्णकालिक रोजगार। चार साल वाला नहीं।
गौर कीजिये कि अग्निपथ को लेकर दक्षिण में कोई आंदोलन नहीं है। जाहिर है कि दक्षिण का युवा सेना में उत्तर भारत के युवाओं के मुकाबले कम शामिल होता है। इसीलिए आंदोलन भी उत्तर भारत में ही उग्र दिखाई दे रहा है। बिहार इस आंदोलन का इपिक सेंटर है लेकिन इसका असर मध्य्प्रदेश,उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब तक दिखाई दे रहा है। इसलिए इस आंदोलन को राजनीति से प्रेरित कहना हास्यास्पद लगता है। योजना के समर्थन में भाजपा का पूरा आईटी सेल और भक्त मंडली प्राणपन से लगी है लेकिन उसे कामयाबी नहीं मिल रही है।
मुझे नहीं लगता कि कोई भी सरकार देशहित के खिलाफ काम करती होगी। भाजपा की भी सरकार ने अग्निपथ देशहित में ही रचा होगा लेकिन जब जनता को उसका अग्निपथ रुचिकर नहीं लग रहा है तो सरकार को इस बारे में सोचना चाहिए न कि राजनीति करना चाहिए। आखिर जनता की नब्ज पर हाथ रखना भी तो देशहित में आवश्यक है। सरकार इससे पहले कृषि कानूनों को लेकर दूध से जल चुकी है इसलिए उसे छाछ भी फूंक कर पीना चाहिए था किन्तु यहां भी उसने जल्दबाजी दिखाई ,नतीजा देश के सामने है।
केंद्र सरकार उपलब्धियों को लेकर जितना आगे बढ़ती है उस ओर खुद ही कीचड़ उछाल लेती है और बाद में दोष मढ़ती है विपक्ष पर। नीतियां और निर्णय सरकार के होते हैं। विपक्ष के पास तो उनका विरोध करने का ही अधिकार है। विपक्ष से सहयोग चाहिए तो विपक्ष को विश्वास में भी लिया जाना चाहिए। विपक्ष को तो आप शत्रु समझ रहें हैं। क्या कोई बता सकता है कि पिछले आठ साल में देश हित के मुद्दों और समस्याओं को लेकर विपक्ष के साथ सरकार ने कोई तालमेल बैठाया, कोई बैठक की ? कोरोनाकाल में भी केवल अनुआ किया गया। इन दिनों तो केंद्र एक कदम आगे बढ़कर विपक्ष का मनोबल तोड़ने का अभियान चलाये हुए है।
देश के युवाओं को अग्निपथ पर नहीं चलना है तो न चलें लेकिन जनता की सम्पत्ति को नुक्सान न पहुंचाएं विरोध के सैकड़ों तरीके हैं उन्हें अपनाएं। युवाओं के लिए कोई भी संकल्प लेना कठिन नहीं है। वे वोट की ताकत को पहचाने,असहयोग की शक्ति को जानें, सत्याग्रह करके दिखाएँ। आगजनी और तोड़फोड़ से सरकार द्रवित होने वाली नहीं है क्योंकि ये सब सरकार का अपना नहीं है, नुकसान जनता का है। सरकार का नुकसान केवल तब होता है जब सत्ता का सिंहासन हिलता है। जनादेश देने वाले युवा जनादेश से ही अपनी बात मनवा सकते हैं अन्यथा अपनी शक्ति को बर्बाद करने से कुछ हासिल नहीं है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)