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सत्ता की सुविधा अनुसार करवटें लेता भूमिनाग (केंचुआ) केंद्रीय चुनाव आयोग

केंद्रीय चुनाव आयोग द्वारा पांच राज्यों में चुनाव की घोषणा पर वरिष्ठ पत्रकार राकेश अचल का आलेख।

संवैधानिक संस्थाओं के बारे में लिखते हुए मुझे सौ बार सोचना पड़ता है,लेकिन केंद्रीय चुनाव आयोग (केंचुआ) के बारे में लिखते हुए ये मेहनत नहीं करना पड़ती। केंचुआ ने बीते कुछ वर्षों में अपने मेरुदंड का इस्तेमाल करना बंद कर दिया है, वैसे भी केंचुआ के पास मेरुदंड नहीं होता। केंचुआ को गोस्वामी तुलसीदास ने भूमिनाग कहा है। केंद्र सरकार का ये भूमिनाग सत्तारूढ़ पार्टी की सुविधा के अनुसार करवटें लेता है। इस बार भी यही सब हुआ है। पांच राज्यों में चुनाव की तिथियां घोषित करने में भी केंचुआ ने अपनी पुरानी भूमिका को ही दोहराया।

प्रधानमंत्री जी जब अपनी तमाम बड़ी रैलियों को निबटा चुके तब केंचुआ ने उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों की तिथियां घोषित की। ऐसा ही पहले बंगाल,असम आदि राज्यों के चुनावों के समय हुआ था, बावजूद इसके सत्तारूढ़ दल को इस सबका लाभ नहीं मिल पाया था। केंचुआ ने इस बार कोविद की तीसरी लहर को मद्देनजर रखते हुए राज्य में 15 जनवरी तक रैली, सभा, पदयात्रा, साइकिल यात्रा, नुक्कड़ सभाएं, रोड शो करने पर रोक लगा दी है। इसके चलते राजनीतिक दलों को कम से कम अगले 7 दिन तक चुनाव प्रचार ऑनलाइन ही करना पड़ेगा, लेकिन भाजपा को इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। उसके सबसे बड़े स्टार प्रचारक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुनावी तारीख के ऐलान से पहले ही प्रदेश में एक के बाद एक रैलियों का अपना काम पूरा कर चुके हैं।

राकेश अचल

चुनावों में खर्च कम करने और चुनाव को भ्र्ष्टाचार से मुक्त करने के लिए वैसे तो केंचुआ समय-समय पर बहुत से कदम उठाता है लेकिन इस बार उत्तर प्रदेश में उठाये गए कदम भले ही किसी ख़ास मकसद से उठाये गए हों लेकिन शुभ हैं। चुनावों में नयी तकनीक का इस्तेमाल जरूर होना चाहिए। भाजपा तो वैसे भी नयी तकनीक के इस्तेमाल में दूसरे दलों के मुकाबले इक्कीस है। उसके पास सोशल मीडिया के इस्तेमाल के लिए पूरा विश्व विद्यालय पहले से है। बहरहाल केंचुआ के इन निर्णयों का स्वागत किया जाना चाहिए।

केंचुआ की मजबूरी है कि संवैधानिक संस्था होने के बावजूद उसे केंद्र सरकार पर ही निर्भर रहना पड़ता है, ऐसे में उसे सरकार के इशारे पर ही काम करना होता है। सरकार ने जब कहा तब तारीखों की घोषणा कर दी,उसकी तैयारियां तो पहले से पूरी होती ही हैं। केंचुआ की वजह से ही उत्तर प्रदेश को दोबारा जीतने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 16 नवंबर से लेकर 2 जनवरी तक पिछले डेढ़ महीने के दौरान यूपी के हर इलाके में रैली कीं।

पूर्वांचल से लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक मोदी की ताबड़तोड़ 14 चुनावी रैलियां आयोजित की गईं। इन रैलियों के बहाने उन्होंने तमाम नयी परियोजनाओं का शिलान्यास-उद्घाटन किया। उनकी आखिरी रैली लखनऊ में 9 जनवरी को प्रस्तावित थी। किन्तु कोरोना की तीसरी लहर की तेजी ने इस रैली को कैंसिल करा दिया। नतीजतन चुनाव आयोग ने भी 10 जनवरी के बजाए दो दिन पहले ही प्रेस कॉन्फ्रेंस कर चुनाव की तारीखें घोषित कर दीं।

केंचुआ की नीयत से नावाकिफ विपक्ष के तमाम नेता चुनाव प्रचार में पिछड़ गए सिवाय समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव के। अखिलेश को ही आप इस चुनाव में मुख्य प्रतिद्वंदी मान लीजिये। अखिलेश यादव दो महीने से राज्य में विजय रथ यात्रा निकाल रहे हैं। यात्रा की आखिरी सभा उन्होंने 28 दिसंबर को उन्नाव में की थी। विजय यात्रा के दौरान उन्होंने 25 से ज्यादा सभाएं भी कीं। राज्य के हर इलाके को तकरीबन कवर किया है। लेकिन बड़ी जनसभाएं नहीं कर पाए हैं।

बसपा सुप्रीमो बहन मायावती ने तो इस बार जैसे कंधे ही डाल दिए ,वे सबसे कम सक्रिय हैं। उन्होंने अब तक महज एक रैली और तीन बैठकें की हैं। इसके अलावा 5 बार प्रेस कॉन्फ्रेस की हैं। मायावती रैलियों के लिए चुनाव का इंतजार ही करती रह गईं। लेकिन अब कोरोना गाइडलाइन के चलते बड़ी रैली नहीं कर पाएंगी। इस बार चुनावी मैदान में उनकी सक्रियता को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं।

यही हाल कांग्रेस का रहा। हालांकि कांग्रेस की एकमात्र नेता प्रियंका गांधी राज्य में पिछले एक साल से सक्रिय हैं। लेकिन वे भी कोई बड़ी रैली नहीं कर सकी हैं। प्रियंका का ‘ लड़की हूं, लड़ सकती हूं..’.अभियान जरूर तेजी से चलाया गया। इसके साथ ही वे प्रतिज्ञा यात्रा भी निकाल चुकी हैं। लेकिन कुछ समय पहले उन्होंने अपनी यात्रा को कोरोना के चलते रद्द कर दिया था। वहीं, राहुल गांधी तो यूपी में एक भी जनसभा नहीं कर पाए हैं।

जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होना है उनमने सबसे ज्यादा प्रतिष्ठापूर्ण चुनाव उत्तर प्रदेश के हैं। पंजाब दूसरे नंबर पर है। उत्तराखंड तीसरे पर और गोवा चौथे तथा मणिपुर पांचवें नंबर पर है। किसान आंदोलन के चलते पंजाब में भाजपा को पांव रखने को जगह नहीं मिल रही। प्रधानमंत्री ने चुनाव तारीखें आने से पहले पंजाब में एक रैली करने की कोशिश की भी थी लेकिन वो भी नहीं हो पायी उलटे प्रधानमंत्री की सुरक्षा में कथित लापरवाही का एक नया विवाद जरूर खड़ा हो गया। वैसे भी भाजपा का भविष्य उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजों पर टिका हुआ है, इसलिए प्रधानमंत्री जी ने सबसे ज्यादा श्रम उत्तरप्रदेश में ही किया है। पंजाब समेत दूसरे राज्यों के विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए उतनी बड़ी चुनौती नहीं हैं।

विधानसभा के इन चुनावों में यदि केंचुआ द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों का कुछ असर हो जाये तो उम्मीद की जा सकती है कि भविष्य में चुनावों को और सुरक्षित तथा निरापद बनाया जा सकता है। मौजूद तकनीक इसमें बहुत सहायक हो सकती है। भगवान से एक ही प्रार्थना है की वो केंचुआ यानि भूमिनाग को एक बार फिर से उसका मेरुदंड वापस कर दे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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