स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री का भाषण सुनना मेरा शगल रहा है। जिन नरेंद्र मोदी के निर्णयों से मैं कदापि सहमत नहीं होता ,उन्हें भी मैं कान लगाकर सुनता हूँ। प्रधानमंत्री कैसा भी हो आखिर प्रधानमंत्री होता है, इसलिए उसे कम से कम साल में एक दिन तो गंभीरता से लेना चाहिए। दुःख तब होता है जब खुद प्रधानमंत्री जी इस ख़ास दिन के लिए भी प्रधानमंत्रियों वाला भाषण देश को नहीं दे पाते।
भारत के हर प्रधानमंत्री के स्वतंत्रता दिवस पर दिए जाने वाले भाषण पर देश की ही,अपितु दुनिया की निगाहें होती हैं। यही मौक़ा होता है जब प्रधानमंत्री अपनी सरकार की ओर से मुल्क को तोहफा देता है और दुनिया को सन्देश कि भविष्य में किसके साथ ,कैसे निर्वाह करने वाला है। दुर्भाग्य से आजादी के अमृतकाल के उपलक्ष्य में दिया गया प्रधानमंत्री का भाषण अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों के भाषणों के मुकाबले उन्नीस ही रहा, इक्कीस नहीं बन पाया। इस भाषण के जरिये न देश की जनता को कुछ हासिल हुआ और न दुनिया को। इसमें प्रधानमंन्त्री जी का कोई दोष नहीं। सारा दोष देश का है।
मेरे जैसे लोग उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं जिन्होंने देश के 14 में से कम से कम 12 प्रधानमंत्रियों के लाल किले की प्राचीर से दिए लगभग सभी भाषणों को सुना है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के भाषण भी इसमें शामिल हैं। बीमार आवाज में बोलने वाले डॉ मनमोहन सिंह और इंद्र कुमार गुजराल हों या हिंदी न जानने वाले एच डी देवगौड़ा। पीव्ही नरसिम्हाराव , विश्वनाथ प्रताप सिंह हों या चौधरी चरण सिंह .अटल बिहारी वाजपेयी हों या राजीव गाँधी ,मोरारजी देसाई हों या इंदिरा गाँधी। सबकी अपनी खासियत थी।
मौजूदा प्रधानमंत्री जी की अपनी खासियत है। वे लालकिले की प्राचीर से माधुर्य नहीं अपने तनाव का प्रदर्शन करते हैं, तालियां पीटते हैं। भूल जाते हैं कि वे किसी आमसभा को नहीं बल्कि देश को एक प्रधानमंत्री के रूप में पूरे देश को सम्बोधित कर रहे हैं। प्रधानमंत्री जी के अमृतकाल के भाषण से मुझे बहुत उम्मीदें थीं लेकिन 83 मिनिट के भाषण में यदि वे भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार के बारे में न बोले होते तो उसमें कुछ भी ऐसा नहीं था जो आने वाले दिनों के लिए देश को आश्वस्त करता हो।
प्रधानममंत्री जी न देश के 80 करोड़ भिक्षुकों के बारे में बोले और न रोजगार के बारे में। |कालेधन पर बोले ,न शिक्षा के बारे में। सामाजिक न्याय के बारे में बोले और न अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में। न जनादेश की खरीद-फरोख्त के बारे में बोले न नफरत के बारे में। मंहगाई तो जैसे उनके लिए मुद्दा है ही नहीं। वे दुनिया में हो रही हलचलों के बारे में भी नहीं बोले। उन्होंने अड़ौसियों-पड़ौसियों के बारे में भी कुछ नहीं कहा। दुनिया में मची जंग के बारे में भारत क्या सोचता है ? वे नहीं बता पाए। जनता को इस मौके पर तोहफे के रूप में कोई योजना बनाने का उन्हें और उनकी सरकार को मौक़ा ही नहीं मिला,बेचारे बोलते क्या ?
माननीय प्रधानमंत्री का भाषण भी उसी तरह ऐतिहासिक होना चाहिए था, जिस तरह का कि ऐतिहासिक अवसर था। आजादी का पचहत्तरवां साल अब दोबारा कभी नहीं आएगा। इस मौके पर अगर प्रधानमंत्री देश को मनरेगा जैसी कोई प्रामाणिक योजना दे देते। भले ही वो महात्मा सावरकर कि नाम से होती। तो देश उन्हें लम्बे समय तक याद रखता | किन्तु जब देने कि लिए कुछ हो ही न तो वे क्या कर सकते हैं?
आज मैं माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की आलोचना बिलकुल नहीं कर रहा | मुझे तो क्लोजप में छपी उनकी तस्वीरें देखकर उनके प्रति सहानुभूति उमड़ रही है। उनके भाषण पर भक्तों के साथ-साथ देश ने रिवायत के तहत दर्जनों बार तालियां बजायीं लेकिन उनके चेहरे से तनाव एक पल कि लिए भी तिरोहित नहीं हुआ। आजादी कि 75 साल पूरे होने की प्रफुल्ल्ता उनके चेहरे को छू तक नहीं गयी।
आखिर ऐसा कौन सा तनाव है जो उन्हें सहज नहीं होने दे रहा ? माना कि देश में मौजूदा सरकार की नीतियों को लेकर चौतरफा असंतोष है। जनता मंहगाई से त्राहि-त्राहि कर रही है | किसान नाराज हैं | युवा रोजगार कि लिए तरस रहे हैं |अड़ौसी-पड़ौसी नाराज हैं | बावजूद इसके उनकी सरकार स्थिर है | उनकी किस्मत से विपक्ष बिखरा हुआ है। उनके लिए कोई चुनौती नहीं है | फिर काहे का तनाव?
आने वाले दिनों में माननीय प्रधानमंत्री क्या करना चाहते हैं इसका कोई खाका इस मौके पर देश कि सामने रखा जाता तो मजा आता। प्रधानमंत्री जी ने भ्र्ष्टाचार और भाई -भतीजावाद को रेखांकित जरूर किया ,लेकिन उन्हें केवल प्रतिपक्ष भ्रष्ट नजर आया। अपने दल और समर्थकों को वे दूध से धुला मानकर चल रहे हैं। भ्र्ष्टाचार के खिलाफ सरकार की कार्रवाई तभी स्वागत योग्य हो सकती है जब उसमें भेदभाव न हो। उनका भाई-भतीजावाद कि खिलाफ सन्देश तभी प्रभावी बन सकता है जब वे इसका खात्मा अपने दल और सरकार के भीतर से करें। सचमुच ये दोनों मुद्दे देश के लिए एक बड़ा खतरा हैं।
भ्रष्टाचार ने देश की जड़ें खोखली कर दी हैं। चुनावों को इतना मंहगा बना दिया है की आम आदमी अब इस लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में शामिल ही नहीं हो सकता। बेहतर होता कि प्रधानमंत्री जी इन दोनों मुद्दों पर सरकार की और से कोई नीति सामने लाते। केवल गाल बजाने से न भ्रष्टाचार समाप्त होने वाला है और न भाई- भतीजावाद। ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे ‘ वाली बात करना आसान है लेकिन उस पर आचरण करना कठिन है |
देश में सबसे महंगा आम चुनाव माननीय ने ही लड़ा। इससे पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ये दुष्कृत्य कर चुकी हैं। ईश्वर उन्हें शक्ति दे कि वे आने वाले दिनों में देश में भ्र्ष्टाचार के सबसे बड़े अपराध जनादेश की खरीद-फरोख्त से अपनी पार्टी को अलग करेंगे। भाई-भतीजावाद को अपने दल और सरकार से ही समाप्त करने की पहल करेंगे। एक आम आदमी की हैसियत से आजादी कि अमृत महोत्स्व पर मैं प्रधानमंत्री जी को शुभकामनाएं देने कि साथ ही उनके तनाव मुक्ति कि लिए भी ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)