पूर्व सांसद अतीक अहमद को लेकर एक शब्द भी नहीं लिखना चाहता था। लिखा भी नहीं, लेकिन जिस तरह से उत्तर प्रदेश की जांबाज पुलिस ने अतीक के बेटे असद को मुठभेड़ में मारा और बाद में जिस कायरता से पुलिस अभिरक्षा में अतीक और उसके भाई की हत्या होने दी उसे देखकर मुझसे रहा नहीं गया।
कानून के हाथ लंबे होते हैं ये फिल्मी संवाद भी है और कहावत भी, लेकिन कानून के हाथ खूनी भी होते हैं, ये न पढ़ा था और न सुना था लेकिन देख जरूर लिया। गैंगस्टर और माफियाओं को संरक्षण देने वाली पुलिस जब उनके भस्मासुर होने से खुद कांपने लगती है, तब वो सब होने देती है, जो झांसी तथा प्रयागराज में हुआ।
प्रयागराज एक पवित्र शहर है लेकिन अभिशप्त शहर भी है। ये वही शहर है जिसमें अंग्रेज सरकार ने 27 फरवरी 1931 को चंद्रशेखर आजाद को गोलियों से भून दिया था। आजाद अंग्रेजों के लिए सिरदर्द थे। अतीक योगी सरकार के लिए। चंद्रशेखर आजाद शहीद हुए लेकिन अतीक के आतंक का अंत हुआ और खौफनाक अंत हुआ।
योगी सरकार की पीठ थपथपाई जाना चाहिए कि उसने चंद गोलियों से ही अतीक के आतंक से यूपी को मुक्ति दिला दी। अदालतों को परेशानी से बचा लिया, वरना पता नहीं कितने साल मुकदमा चलाया जाता ? मुमकिन है कि अतीक जेल के भीतर से चुनाव लड़ता। मुमकिन है कि वो तमाम मामलों में बरी हो जाता लेकिन अब कुछ भी मुमकिन नहीं है। योगी सरकार नामुमकिन को मुमकिन और मुमकिन को नामुमकिन बना चुकी है।
अतीक के कुनबे का सफाया सरकारों के बूते की ही बात थी, वरना उसे यूपी की जनता या उसके दुश्मन मार पाए थे। अतीक के साथ एक ही बुरी बात हुई है और वो कि उसे पुलिस अभिरक्षा में मारा गया। फर्जी मुठभेड़ में मारा जाता तो बेहतर होता। कम से कम यूपी की जांबाज पुलिस पर निकम्मेपन की तोहमत तो नहीं लगती!
अतीक कानून के राज के लिए एक चुनौती था। वो जन्मजात गैंगस्टर नहीं था। उसे गैंगस्टर बनाया गया। गैंगस्टर बनकर भी उसे जनता ने सांसद चुना। जनता गलती करती है। वो गैंगस्टर ही नहीं तमाम बाबाओं, और सन्यासिने भी चुन लेती है। खमियाजा भी जनता ही भुगतती है। सरकारों का गैंगस्टर कुछ नहीं बिगाड़ पाते। एक मौका ऐसा आता है जब सरकारें भी गैंगस्टरों से खौफ खाने लगती हैं।और फिर वही होता है जो यूपी में हो रहा है।
मै उत्तर प्रदेश और मप्र के उस इलाके से बाबस्ता हूं जहां गैंगस्टर, माफिया, डकैत,और फर्जी मुठभेड़ों का लंबा इतिहास है।इसी बिना पर मैं पूरे यकीन के साथ कह सकता हूं कि अतीक और उसके कुनबे की सत्ता द्वारा प्रायोजित हत्या की गई। इससे आतंक का तो अस्थाई रूप से अंत हो गया, किंतु ये बहस भी शुरू हो गई है कि क्या हम दबे -छिपे तालिबानी रास्ते पर तो नहीं चल पड़े?
पुलिस अभिरक्षा में किसी हार्डकोर अपराधी का मारा जाना पुलिस की अपनी प्रतिष्ठा को धूमिल करता है। अतीक अदालत की अमानत था। अतीक को अदालत ने पुलिस अभिरक्षा में सौंपा था। ऐसे में यदि पुलिस अदालत की अमानत नहीं बचा सकती तो ये अदालत की तौहीन है। इसके लिए पुलिस को सजा मिलना चाहिए। पुलिस ने मैडल पाने का नहीं बल्कि सजा पाने का काम किया है। पुलिस संदेह के घेरे में है।
उत्तर प्रदेश पुलिस का अतीत फर्जी मुठभेड़ों और अभिरक्षा में आरोपियों की मौतों से भरा पड़ा है। अतीक की हत्या से कलंक की ये स्याही और गाढी हुई है। यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ में इतना नैतिक साहस नहीं है कि वे इस लापरवाही के लिए पुलिस के किसी आला अफसर के खिलाफ कोई कार्रवाई कर सकें।
अतीक और उसके कुनबे को जहन्नुम मिले या जन्नत इसमें हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है। हमारी दिलचस्पी इस बात में है कि क्या अब यूपी सचमुच गैंगस्टर राज से आजाद हो गया है ? क्या अतीक की मौत यूपी की भाजपा सरकार को कोई राजनीतिक लाभ दिला सकेगी या फिर इस मामले से यूपी के मुसलमान आतंकित किए जा सकेंगे?
यूपी में अतीक का अंत गोली से हुआ। आजम खां का अंत अदालतों के जरिए हो रहा है। जो बच गये हैं वे भी आज नहीं तो कल अतीक और आजम खां की तरह इतिहास बना दिए जाएंगे। सरकार की नीयत और एजेंडा साफ है। जय श्रीराम।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)