पूर्वोत्तर में कमल का सूरज होना, सत्ता की जोड़तोड़ में महारत हासिल कर चुकी BJP

पूर्वोत्तर राज्यों के नतीजों पर वरिष्ठ पत्रकार राकेश अचल का आलेख

आम चुनाव से पहले पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा के सत्ता में वापस आने का साफ़ अर्थ है की गौतम अडाणी जैसे तमाम मुद्दों के बावजूद भाजपा चुनावी जोड़तोड़ में सभी राजनीतिक दलों से आज भी आगे है। भारत जोड़ो यात्रा का भी इस सीमावर्ती अंचल में कोई असर नजर नहीं आता .भाजपा के लिए ये एक अच्छी खबर है लेकिन समूचे विपक्ष और शेष भारत के लिए ये एक झटका है।

आंकड़ों के हिसाब से देखें तो मामला एकदम उल्ट है क्योंकि भाजपा को इन चुनावों में कुल 179 विधान सभा सीटों में से कुल जमा 46 सीटें ही मिली हैं लेकिन जोड़तोड़ के हिसाब से देखें तो भाजपा तीनों राज्यों में सत्ता पर काबिज हो गयी है। त्रिपुरा को छोड़ मेघालय और नगालैंड में भाजपा सत्तासीन होगी। हमारे मित्र कहते हैं की भाजपा ने इन चुनावों में 46 के बजाय यदि 16 सीटें भी जीती होतीं तो भी सत्ता में भाजपा ही होती क्योंकि इन राज्यों के शेष 6 छोटे दलों के पास दो या दो से कुछ ज्यादा सीटें ही हैं और ये सब अंतत: भाजपा की पिछलग्गू होते।

आंकड़े बताते हैं कि इन राज्यों में भाजपा को 26 फीसदी वोट मिले जबकि कांग्रेस को मात्र 8 फीसदी वोट। .कांग्रेस ने इन राज्यों में एक तरह से चुनाव लड़ा ही नहीं .नतीजा सबके सामने है। कोई माने या न माने किन्तु हकीकत ये है कि भाजपा सत्ता के लिए जोड़तोड़ करने में महारत हासिल कर चुकी है.जबकि इस विषय में सिद्धहस्त रह चुकी सब कुछ भूल गयी है।

कांग्रेस ने न बंगाल में ढंग से चुनाव लड़ा और न गुजरात में. बिहार में भी कांग्रेस औपचारिकता करने के लिए चुनाव लड़ी लेकिन सबसे बड़े विपक्षी दल का सेहरा सिर पर बाँधने का कांग्रेस का दम्भ जाने का नाम ही नहीं ले रहा। भाजपा को पूर्वोत्तर के पहाड़ों पर कमल खिलाने के लिए बधाई दी जाना चाहिए क्योंकि कल तक भाजपा जिस मेघालय में सत्ता में हिस्सेदारी करने जा रही है उसे देश का सबसे भ्र्ष्ट राज्य बताती थी .आज उसी भ्रष्ट राज्य के सबसे बड़े दल के साथ भाजपा तनकर खड़ी है।

राकेश अचल

पूर्वोत्तर के राज्यों को भगवा रंग में रंगने के लिए भाजपा कुछ भी कर सकती थी और उसने ये करके दिखा भी दिया .इन राज्यों के राजनीतिक दल चाहे, अनचाहे भाजपा के साथ सत्ता में बैठेंगे। ये इन पहाड़ों के लिए सुखद होगा या दुखद अभी कहना कठिन है क्योंकि इन पहाड़ों की आबादी अभी तक नफरत की राजनीति से बची हुई थी। मुमकिन है कि मेरी आशंकाएं निराधार साबित हों लेकिन हकीकत ये है कि इन सीमावर्ती राज्यों में अब कुछ न कुछ नया होने वाला है।

पूर्वोत्तर जीतने कि लिए कांग्रेस या दूसरे दल भाजपा को बधाई दें या न दें किन्तु मै भाजपा को बधाई देने में संकोच नहीं करूंगा,क्योंकि भाजपा ने संसद से सड़क तक गूँज रहे अदाणी प्रकरण कि बावजूद ये उपलब्धि हासिल की है। भाजपा तमाम नाकामियों कि बावजूद आगे बढ़ रही है। रसोई गैस का सिलेंडर मंहगा होकर भी भाजपा कि बढ़ते कदमों को नहीं रोक पा रहा। बिखरे विपक्ष कि लिए ये कड़वा घूँट है जो उसे पीना ही पड़ रहा है। समूचे विपक्ष के पास फिलहाल पूर्वोत्तर में भाजपा कि प्राकट्य को लेकर कोई तर्क-कुतर्क नहीं है।
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अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों पर पूर्वोत्तर कि इन तीन राज्य विधानसभा चुनावों का कितना असर पड़ेगा,ये सब जानते हैं। सब जानते हैं सत्ता की असल लड़ाई पहाड़ों पर नहीं मैदानों में लड़ी जाना है,क्योंकि सर्वाधिक लोकसभा सीटें मैदान में ही हैं। पूर्वोत्तर आम चुनावों में कोई बड़ी भूमिका नहीं निभा सकता, क्योंकि इन चुनावों में न तो कोई बड़ा राजनैतिक दल ऐसा है जो मैदान की राजनीति को प्रभावित कर सके और न कोई ऐसा बड़ा नेता है जो राष्ट्रीय स्तर पर पहचाना जाता हो। ये एक क्षेत्रीय गणित था,गणित है। इसलिए इसे बहुत गंभीरता से नहीं लिया जा सकता। इन चुनावों कि परिणाम भाजपा कि बुझते दीपक को एक तात्कालिक आभा अवश्य प्रदान कर सकते हैं।

कांग्रेस कि रायपुर अधिवेशन और पूर्वोत्तर कि चुनावों में कोई संबंध नहीं है ,किन्तु इन्हें जोड़कर देखने की जरूरत है .कांग्रेस कि मौजूदा नेतृत्व में क्या इतनी ऊर्जा है जो आने वाले चुनावों में भाजपा की विजयपताका को फहराने से रोक सके? कांग्रेस आज भी राहुल गांधी कि इर्द-गिर्द है.जबकि भाजपा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही तारणहार बने हुए हैं। उनका अभिनय आज भी भाजपा कि काम आ रहा है। दोनों की दाढ़ियां घटते,बढ़ते देश देख चुका है। दाढ़ियां बढ़ाने से देश की तस्वीर नहीं बदलती। दाढ़ी बढ़कर भी मोदी जी कि नेतृत्व में भाजपा बंगाल नहीं जीत पायी थी और दाढ़ी बढ़ाकर भी कांग्रेस गुजरात में भाजपा को सत्ताच्युत नहीं कर पायी।

देश में हर दिन बदलते राजनीतिक समीकरण अभी भी इस बात की गारंटी नहीं दे पा रहे हैं की देश में 75 साल बाद भी क्या लोकतंत्र और आजादी का नवीनीकरण हो पायेगा ? कांग्रेस ने इस बार हालाँकि यही नारा दिया है. किन्तु कांग्रेस कि इस नारे की गूँज -अनुगूंज अभी तक तो सुनाई नहीं दे रही। ये सच है की देश को लोकतंत्र और आजादी कि नवीनीकरण की जरूरत है,क्योंकि बीते साढ़े आठ साल में ये दोनों ही सबसे ज्यादा खतरे में दिखाई देते हैं। संवैधानिक संस्थाओं से लेकर लोकतंत्र कि तीनों अंगों की कमोवेश एक जैसी दयनीय हालत है। कथित रूप से चौथा खम्भा कहा जाने वाला मीडिया भी अब वैसी भूमिका में नहीं है जैसी की 1947 कि पहले या 1975 के बाद था।

सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि पूर्वोत्तर कि राज्यों में गठबंधनों कि जरिये राजनीति चल रही है। त्रिपुरा को छोड़ दें तो नगालैंड और मेघालय में भाजपा अकेले बूते पर सरकार नहीं बना रही है। त्रिपुरा में कांग्रेस और वामपंथियों का गठजोड़ चाहकर भी भाजपा को सत्ता में वापस आने से नहीं रोक सका। त्रिपुरा में भारतीय जनता पार्टी ने लगातार दूसरी बार बहुमत हासिल किया है। बीजेपी ने 60 में से 32 सीटों पर जीत दर्ज की है। राज्य में दूसरे नंबर पर लेफ्ट और कांग्रेस का गठबंधन रहा। जिसे 14 सीटें मिलीं। इनमें से कांग्रेस के हिस्से में 3 सीटें आईं। टिपरा मोथा पार्टी ने 11 सीटों पर जीत हासिल की है। बीजेपी की सहयोगी इंडिजीनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (आईपीएफटी) ने एक सीट पर जीत दर्ज की है।

नगालैंड में सत्तारूढ़ एनडीपीपी-बीजेपी गठबंधन ने बहुमत हासिल कर लिया है। एनडीपीपी ने 25 सीटों पर जीत हासिल की। वहीं बीजेपी को 12 सीटों पर जीत मिली। 7 सीटों पर एनसीपी ने जीत दर्ज की। एनपीपी ने 5 सीटें, एनपीएफ को 2 सीटें, चिराग पासवान की एलजेपी (राम विलास) को 2 सीटें, नीतीश कुमार की जेडीयू को एक सीट मिली है। केंद्रीय मंत्री रामदास अठावले की रिपब्लिकन पार्टी ने दो सीटों पर जीत का परचम लहराया. कांग्रेस को कोई सीट नहीं मिली।

भाजपा की नजर में सबसे भ्रष्ट मेघालय में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला। यहां एनपीपी 60 में से 26 सीटें जीतते हुए सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है. यूडीपी को 11 सीटों पर जीत मिली। कांग्रेस ने 5 सीटें, बीजेपी ने 2 सीटें, टीएमसी ने 5 सीटें जीती हैं। एनपीपी को सबसे ज्यादा 31.4 फीसदी वोट मिले। यूडीपी को 16.2 फीसदी, टीएमसी को 13.8 फीसदी, कांग्रेस को 13.2 फीसदी, बीजेपी को 9.3 फीसदी वोट मिले हैं। बावजूद इसके भाजपा तीनों राज्यों में सत्तासुख भोगने कि लिए तैयार है। ये चुनाव नतीजे गैर भाजपा दलों कि लिए आत्ममंथन का एक अवसर और दे गए हैं। देखना है की इस अवसर का लाभ कांग्रेस समेत दूसरे दल उठा पाते हैं या नहीं?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

राकेश अचल

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