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BJP में भयभीत क्यों परंपराएं तोड़ने वाले महाराज सिंधिया?

ज्योतिरादित्य सिंधिया कहीं भी हों लेकिन शाही ताजिया की सेहराबंदी के लिए खुद हाजिर होते रहे है लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ.

राजनीति में भय सबसे बड़ी कमजोरी भी होता है और ताकत भी। पिछले पांच दशक से मैं ग्वालियर में हूँ और पहली बार यहां के पूर्व शाही परिवार को भी भय की छाया में देख रहा हूँ। कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल होने के दो साल बाद भी केंद्रीय ज्योतिरादित्य सिंधिया के मन से भाजपा का भय गया नहीं है। भय इतना है कि उन्होंने भाजपा की ताजा ध्रुवीकरण की नीति को देखते हुए ग्वालियर में सिंधिया परिवार द्वारा रखे जाने वाले ताजिये की सेहराबंदी से भी किनारा कर लिया। आप इसे परम्परा का भंजन भी कह सकते हैं।

सिंधिया परिवार सर्वधर्म समभाव के लिए जाना जाता है। इस परिवार के शासकों ने ग्वालियर में फूलबाग बनाया और फूलबाग में हिन्दुओं के लिए गोपाल मंदिर,मुसलमानों के लिए मोती मस्जिद,सिखों के लिए गुरुद्वारा और बाकी के लिए थियोसोफिकल लाज बनवाया था। सिंधिया परिवार की और से शहर में शाही ताजिया भी कोई सौ साल से रखा जाता है।

ग्वालियर से पहली बार सांसद बने स्वर्गीय माधव राव सिंधिया ने 1984 में ताजिये को गोरखी प्रांगण में रखवाना शुरू किया। वे कहीं भी रहे हों लेकिन ताजिये की सेहराबंदी के लिए हमेशा उपस्थित रहते रहे। माधवराव सिंधिया ने जीवन पर्यन्त इस परमपरा को निभाया। माधव राव सिंधिया के आकस्मिक निधन के बाद उनके पुत्र ज्योतिरादत्य सिंधिया ने अपने पिता की इस रिवायत को यथावत जारी रखा। ज्योतिरादित्य सिंधिया कहीं भी हों लेकिन ताजिया के रखे जाने के बाद सेहराबंदी के लिए खुद हाजिर होते रहे।

राकेश अचल

इतिहास गवाह है की माधवराव सिंधिया और ज्योतिरादित्य सिंधिया ने ये काम कभी अपने बच्चों को नहीं सौंपा। बच्चे साथ मौजूद रहे हों ये अलग बात है। ये पहला मौक़ा है जब ज्योतिरादित्य सिंधिया देश में रहते हुए ताजिये की सेहराबंदी के लिए ग्वालियर नहीं आये। उनके पास बहाना है कि उपराष्ट्रपति चुनाव था। लेकिन चुनाव तो दिन में हो गया,वे चाहते तो विमान से ,रेल से ग्वालियर आ सकते थे ,लेकिन नहीं आये।

सिंधिया की अनुपस्थिति में ताजिये की सेहराबंदी उनके पुत्र महाआर्यमन सिंधिया ने की। परपंरा का निर्वाह हुआ भी और नहीं भी। पिता के रहते पुत्र को ये काम मजबूरी में करना पड़ा। इससे मुस्लिम समाज भी सन्न है और कुछ कहने की स्थिति में नहीं है। किसी ने न सवाल किया और न किसी को कोई जवाब मिला। | सिंधिया नहीं आये तो नहीं आये। वे आते भी कैसे? वे जिस भाजपा में काम कर रहे हैं उसने तो मुसलमानों को दूध में पड़ी मख्खी की तरह निकाल बाहर किया है। न लोकसभा में ,न राज्य सभा में ,न केंद्रीय मंत्रिमंडल में कोई मुस्लिम सदस्य भाजपा की और से है और न राज्यों में कोई मुख्यमंत्री।

भाजपा में ये तब्दीली हाल के दिनों में आयी. पिछले साल तक भाजपा मुसलमानों को लेकर इतनी कटटर नहीं थी। संयोग देखिये की सिंधिया के कुल गुरु भी एक सूफी संत मंसूर बाबा हैं। उनकी गद्दी गोरखी के उस मंदिर में है जहां हर साल बाकायदा जलसा होता है और सिंधिया परिवार के मुखिया तब तक गद्दी के सामने बैठते हैं। जब तक की बाबा पर चढ़ाये गए फूलों में से कुछ फूल उनकी झोली में आकर न गिर पड़ें। ये आस्था का मामला है ,लेकिन अब सियासत इसमें खलल बनती दिखाई दे रही है।

ज्योतिरादित्य सिंधिया को ये हक है कि वे अपने कुल की परम्पराओं के अनुपालन में किसी को भी भेजें ,लेकिन अटकलों का वे क्या करेंगे ? क्या वे बहाने बनाएंगे और ताजिये से दूर रहने को अपनी मजबूरी बातएंगे? या फिर मौन रहेंगे? क्या उनमें इतना साहस नहीं कि वे अपनी राजनीति की वजह से अपनी परम्पराओं को बचाये रख सकें? जो काम पिता के हैं वे पुत्र को तभी हासिल होते हैं जब विषम परिस्थितियां हों। एक बार स्वर्गीय माधव राव सिंधिया का सड़क दुर्घना में फ्रेक्चर हो गया था,तब वे नहीं आये थे। उनकी और से सेहराबंदी शहर काजी ने की थी। सिंधिया ने अपने बेटे को इस काम के लिए नहीं भेजा था।

भाजपा में शामिल होने के बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने परिवार की 164 साल पुरानी परम्परा को तोड़कर प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की अमर सेनानी वीरांगना लक्ष्मीबाई की समाधि पर माथा टेककर सिंधिया परिवार की एक और परम्परा को पिछले साल तोड़ा था। इससे पहले इस समाधि पर सिंधिया परिवार की और स कोई नहीं गया, क्योंकि सिंधिया वंश के तत्कालीन शासक जयाजीराव सिंधिया पार रानी लक्ष्मीबाई से गद्दारी करने का गंभीर आरोप चस्पा था। चूंकि भाजपा इसी मुद्दे को लेकर हमेशा सिंधिया परिवार के पुरुष सदस्यों को कोसती थी, इसीलिए ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भाजपा में शामिल होने के बाद सबसे पहले रानी की समाधि पर जाकर अपने आपो इस कलंक से मुक्त कराने का प्रयास किया था।

सिंधिया को जानने वाले कहते हैं कि ज्योतिरादित्य सिंधिया प्रधानमंत्री जी की ईडी शैली से भयभीत होकर भाजपा में गए हैं। दिग्विजय सिंह और कमलनाथ तो एक बहाना थे। सिंधिया यदि कांग्रेस न छोड़ते तो मुमकिन है कि ईडी सिंधिया को न छोड़ती। राजस्थान में सचिन पायलट तो अब तक भाजपा में नहीं गए। क्योंकि उन्हें ईडी का भय नहीं है। उनका किसी यस या नो बैंक से कोई ताल्लुक नहीं है। कांग्रेस से जो लोग भाजपा में गए वे अपनी मजबूरी के चलते गए। उन्हें शरणागत का दर्जा मिला और रियायतें भी। यूपी में कांग्रेस छोड़कर गए सिंधिया के ही समवयस्क नेता योगी मंत्रिमंडल में मंत्री भी है किन्तु कोई उन्हें टके सेर नहीं पूछ रहा। सिंधिया अपवाद हैं।

दरअसल भाजपा को अब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी जैसा कोई उदारवादी मुखौटा नहीं चाहिए। सिंधिया ये भूमिका अदा कर सकते थे ,किन्तु भाजपा नेतृत्व ने उदारवाद का मुखौटा सरे आम उतार फेंका है। भाजपा को मुस्लिम नहीं चाहिए,भाजपा को किसान नहीं चाहिए। भाजपा को पूर्व सैनिक परिवार नहीं चाहिए। वरिष्ठ नागरिक नहीं चाहिए.मनरेगा में काम करने वाले मजदूर नहीं चाहिए। इसलिए भाजपा इन सबकी अनदेखी ही नहीं कर रही बल्कि इन्हें मिलने वाली सुख-सुविधाओं पर भी डाका डाल रही है। केंद्रीय मंत्रिमंडल में एक मंत्री ऐसा नहीं जो खड़े होकर कहे कि -वरिष्ठ नागरिकों को मिलने वाली रियायत रेल यात्रा में बहाल की जाये। कोई ये कहने वाला नहीं कि मुसलमानों को आनुपातिक प्रतिनिधित्व दिया जाये।

अपनी ही पार्टी के भीतर विपक्ष की काल्पनिक भूमिका में इस्तेमाल किये जा रहे केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह हों या परिवहन भूतल मंत्री नितिन गडकरी सब सिंधिया की तरह ईडीवाद से भयभीत हैं। मंत्रिमंडल के भीतर और बाहर वे उतनी ही जुबान हिला सकते हैं जितनी कि उन्हें इजाजत दी गयी है। सिंधिया ग्वालियर में अपने समर्थकों के यहां शादी-विवाह और मरे-गिरे में शामिल होने के लिए विमान का इस्तेमाल स्कूटर की तरह करते हैं लेकिन ताजिया की सेहराबंदी करने के लिए उनका स्कूटर खराब हो गया,या मिला नहीं?

कुल मिलाकर इस समय सिंधिया ऊर्जावान नेता होते हुए भी भयभीत दिखाई दे रहे हैं। स्थानीय निकाय चुनावों में महापौर पद के उम्मीदवारों के चयन में भी उनकी नहीं चली। उन्हें उनके गृह राज्य मध्यप्रदेश से उसी तरह बंगाल भेज दिया गया जैसे कैलाश विजयवर्गीय को भेजा गया था। भाजपा अपने किसी मुख्यमंत्री या केंद्रीय मंत्री के लिए कोई प्रतिद्वंदी खड़ा नहीं करना चाहती, भले ही वे ज्योतिरादित्य सिंधिया ही क्यों न हों।

ग्वालियर में एक तरफ सिंधिया हैं तो दूसरी तरफ नरेंद्र सिंह तोमर। कैलाश विजयवर्गीय भी सिंधिया की तरह मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और नरेंद्र सिंह तोमर के लिए समस्या थे। याद रखिये कि किसी भी नेता में साहस, झूठ, चंचलता, माया (छल), भय (डरपोकपन), अविवेक (मूर्खता), अपवित्रता और निर्दयता अनिवार्य रूप से मौजूद रहती है। किसी में कम,किसी में ज्यादा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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