मजदूर बिहार के हों या छत्तीसगढ़ या मध्यप्रदेश के, रोजी रोटी की तलाश में देश के किसी भी हिस्से में जाने के लिए विवश हैं,लेकिन देश के मुकुटमणि कश्मीर में जिस तरह से उन्हें बेरहमी से मौत के घात उतारकर पलायन के लिए विवश किया जा रहा है,ये देश के लिए चिंता की बात है। आंतकियों का जोर जब किसी और पर नहीं चलता तब वे निर्दोष और निरीह लोगों को अपना निशाना बनाकर अपना मकसद हासिल करना चाहते हैं।
जम्मू-कश्मीर को आतंकवाद से मुक्त करने के लिए केंद्र सरकार ने पहले राज्य से धारा 370 हटाई, फिर विधानसभा भंग की और बाद में जब बात नहीं बनी तब कश्मीर के तीन टुकड़े कर उसे केंद्र शासित क्षेत्र बना दिया। इलाके में आतंकवाद रोकने के लिए केंद्र सरकार के ये तीनों प्रयोग अब नाकाम होते दिखाई दे रहे हैं। केंद्र न तो कश्मीर से पंडितों की हत्याएं रोक पाया और न गैर कश्मीरियों की हत्या। अब पलायन नयी समस्या है।
सवाल ये है कि बीते दो साल में केंद्र ने कश्मीर में क्या सुधारा है ? कश्मीर को देश की मुख्यधारा में लाने के तमाम टोटके असफल हो चुके हैं किन्तु सरकार है कि इसे मानने को राजी नहीं है। आतंकवाद से लड़ाई में पूरा देश केंद्र की असहिष्णु सरकार के साथ खड़ा रहा है,बावजूद इसके देश को कोई नतीजे नहीं मिले पा रहे हैं। उलटे स्थिति लगातार भयावह होती जा रही है।
केंद्र द्वारा भेजे गए अर्धसैनिक बलों की लगातार मेहनत के बावजूद आतंकवाद रुकने का नाम नहीं ले रहा। हमारे जवानों की शहादत का आखिर कुछ तो प्रतिफल मिले। घाटी में आखिर शान्ति की स्थापना होगी कैसे? पिछले दो रोज में कश्मीर में चार गैर कश्मीरी मजदूर मारे गए हैं। उसके बाद घाटी से मजदूरों का पलायन तेज हो गया है।
देश में कोई ये स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है कि केंद्र सरकार घाटी में रहने वालों को सुरक्षा की गारंटी देने में नाकाम रही है। पहले केवल पंडित ही यहां आंतकियों के निशाने पर थे लेकिन अब गैर कश्मीरी भी दिन-दहाड़े मारे जा रहे हैं। आग से आग नहीं बुझ रही,जैसे कि मल से मल साफ़ नहीं होता। सरकार घाटी में राजनीतिक गतिविधियां बहाल करने में भी नाकाम रही। मुमकिन है कि राजनीतिक गतिविधियां शुरू होने के बाद घाटी का माहौल बदलता लेकिन राजनितिक गतिविधियां केंद्र की प्राथमिकता में नहीं हैं। प्राथमिकता में आतंकवाद का सामना है लेकिन इस अभियान में भी कामयाबी अभी दूर की चिड़िया का नाम है।
मै नहीं कहता कि केंद्र हाथ पर हाथ धरे बैठा है,लेकिन केंद्र कर क्या रहा है? इसके नतीजे भी तो सामने नहीं आ रहे। अब इस केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने स्पेशल ऑपरेशन के लिए एक टीम कश्मीर भेजी है। स्पेशल टीम यहां पर आतंक फैला रहे आतंकियों का खात्मा करेगी। यह टीम दिल्ली से कश्मीर पहुंच चुकी है। अब देखते हैं कि स्पेशल टीम कितना और क्या काम कर सकती है। घाटी को तो केवल और केवल शान्ति चाहिए। सरकार की नाकामी का ही प्रतिफल है कि बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री रहे जीतन राम मांझी कह रहे हैं कि घाटी पंद्रह दिन के लिए बिहारियों को सौंप दीजिये।
आतंक फैलाने के लिए प्रवासी मजदूर सबसे आसान टारगेट हैं। वर्षों पहले महाराष्ट्र में आज की सत्तारूढ़ शिवसेना से अलग हुई पार्टी ने यूपी और बिहार के मजदूरों को ठीक इसी तरह पलायन के लिए विवश कर दिया था। राष्ट्र में महाराष्ट्रवाद का ये रौद्र रूप ज्यादा दिन ठहर नहीं सका क्योंकि मुंबई का काम बिना प्रवासी सखाओं के चल नहीं सकता था। कश्मीर का काम भी प्रवासी सखाओं के बिना नहीं चल सकता। कश्मीर में विकास गतिविधियां भी प्रवासी मजूरों के जरिये ही चलाई जा सकती है किन्तु आतंकी नहीं चाहते कि घाटी में विकास हो,शांति कायम रहे।
कभी-कभी मुझे लगता है कि कश्मीर के मामले में सत्तारूढ़ भाजपा कांग्रेस के मुकाबले कहीं ज्यादा नाकाम रही है। कांग्रेस के ने घाटी में आतंकवाद को रोकने के लिए राजनीतिक और अराजनीतिक सभी तरह के प्रयास किये थे किन्तु धारा 370 नहीं हटाई थी किन्तु आज की केंद्र सरकार ने राज्य से धारा 370 भी हटाई, विधानसभा भी छीन ली किन्तु हासिल कुछ नहीं हुआ। मेरा दृढ विश्वास है कि घाटी के एकीकरण और वहां राजनीतक गतिविधियां शुरू किये बिना शांति की कल्पना करना कठिन काम है। बंदूकों से आखिर घाटी को कब तक सम्हाला जा सकता है?
घाटी के उपराजयपाल पद पर पूर्व रेल मंत्री मनोज सिन्हा की नियुक्ति का भी कोई सुखद परिणाम नहीं निकला है। उन्हें भी घाटी में काम करते हुए एक साल से ज्यादा वक्त हो चुका है। वे घाटी के पूर्व उप राजयपाल जीसी मुर्मू से भी कहीं ज्यादा नाकाम साबित हुए हैं। यदि कोई राजनीतिक विवशता न हो तो सिन्हा को वापस बुलाकर घाटी में किसी और अनुभवी व्यक्ति को राजकाज के लिए भेजा जा सकता है। सिन्हा के रहते घाटी में एक पंचायत चुनावों को छोड़ कोई दूसरी राजनीतिक गतिविधि शुरू नहीं हो पायी। सरकारी कामकाज निबटाने के साथ ही पीड़ित घाटीवासियों के जख्मों पर मरहम रखने में भी सिन्हा साहब नाकाम रहे हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)