मुझे कभी-कभी हैरत होती है कि बनाने वाले ने सियासत को इतना ताकतवर क्यों बना दिया कि वो ‘गुड़’ को ‘गोबर’ बनाने में महारत हासिल कर गई। मध्यप्रदेश में डाक्टरों पर विचारधारा का ठप्पा लगाने के लिए चिकित्सा शिक्षा के आधारभूत पाठ्यक्रम में आयुर्वेद विशारद के रूप में विख्यात महर्षि चरक, सर्जरी के पितामह आचार्य सुश्रुत के साथ, स्वामी विवेकानंद, आरएसएस के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार, जनसंघ के संस्थापक पं. दीनदयाल उपाध्याय और डॉ. भीमराव आंबेडकर को भी शामिल करने के लिए उतावले हैं।
मध्यप्रदेश के चिकित्सा शिक्षा मंत्री विश्वास सारंग एक संस्कारवान संघी हैं। उनके पिता कैलाश सारंग भाजपा के संस्थापकों में से एक रहे हैं। मैं जाती तौर पर विशवस सारंग की वक्तव्य कला का प्रशसंक हूँ लेकिन उनके द्वारा चिकित्सा शिक्षा मंत्री के रूप में की गयी इस कोशिश से मुझे बुजुर्गों की वो कहावत याद आ गयी कि कभी भी ‘तेली का काम तमोली’ को नहीं देना चाहिए क्योंकि ये दोनों काम विशेषग्यता से जुड़े हैं।
तेल निकलने वाला बेहतर पान नहीं लगा सकता और बेहतर पान लगाने वाला अच्छा तेल नहीं निकाल सकता . .लेकिन राजनीति की विसंगति है कि यहां तेली का काम तमोली ही करते हैं ,फिर चाहे बंटाधार ही क्यों न हो जाये। विश्वास सारंग सिविल इंजीनियरिंग में स्नातक हैं लेकिन उनका जमीर उनसे कहता है कि वे प्रदेश में चिकित्सा शिक्षा में अपने आराध्य संघ संस्थापक समेत उन सबको भी शामिल कर दें जो किसी भी तरह चिकित्सा शिक्षा के लिए जरूरी नहीं हैं।
सारंग ने ये काम गत 25 फरवरी को हाथ में लिया था। उन्होंने इसके लिए बाकायदा एक नोटशीट विभाग के अफसरों को भेजी थी। सुझाव मांगने पांंच सदस्यों की कमेटी बनाई गई थी। उन्हीं सुझावों के आधार पर विचारों के सिद्वांत, जीवन दर्शन के महत्व वाले लेक्चर को फाउंडेशन कोर्स में पढ़ाए जाने के लिए शामिल किया गया है। ये लेक्चर फाउंडेशन कोर्स के मेडिकल एथिक्स टॉपिक का हिस्सा होंगे।
बाहर से देखिये तो आपको लगेगा कि सारंग कुछ भी गलत नहीं कर रहे क्योंकि ऐसा करने के लिए प्रावधान है। आपको बता दें कि एमबीबीएस का कोर्स नेशनल मेडिकल काउंसिल तय करती है। काउंसिल हर कोर्स के टॉपिक बताती है लेकिन उस टॉपिक में क्या लेक्चर होगा ये राज्य का मेडिकल एजुकेशन डिपार्टमेंट तय कर सकता है।
सारंग जी ने इसी छूट का लाभ लेते हुए अपने नहीं बल्कि पार्टी के ‘ हिडन एजेंडे ‘ को चिकित्सा शिक्षा से बाबस्ता कर दिखाया। हकीकत ये है कि राष्ट्रीय आयुर्विज्ञान आयोग की भारतीय चिकित्सा परिषद के तय किए हुए ‘फाउंडेशन कोर्स फॉर अंडर ग्रेजुएट मेडिकल एजुकेशन प्रोग्राम 2019 के तहत एमबीबीएस पाठ्यक्रम के फर्स्ट ईयर के मेडिकल के छात्रों के लिए फाउंडेशन कोर्स के मॉड्यूल्स बनाए गए हैं।
फाउंडेशन कोर्स में इस शिक्षा सत्र से पहली बार सरकार विचारकों के तौर पर आरएसएस के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार और जनसंघ के संस्थापक पं. दीनदयाल उपाध्याय को शामिल करेगी। मप्र ने इस मामले में लीड लेने की कोशिश की है। ऐसा करने वाला पहला राज्य होगा। राज्य में करीब 2000 अंडर ग्रेजुएट छात्र एमबीबीएस में हर साल प्रवेश लेते हैं।
चिकित्सा शिक्षा मंत्री क्या कर रहे हैं ये अलग बात है लेकिन हैरानी की बात ये है कि प्रदेश के स्वनामधन्य चिकित्सक जिनमें डॉ एस एन अयंगर ,लोकेन्द्र दवे , डॉ सचिन कुचिया,डॉ अशोक ठाकुर और डॉ राघवेंद्र चौबे में से एक में भी इतना साहस नहीं था कि वे इस गैर जरूरी और शुद्ध राजनितिक घुसपैठ का विरोध कर पाते।.इन चिकित्स्कों की मजबूरी ये है कि ये सब अपने-अपने मठों में ताउम्र जमे रहना चाहते हैं। इसलिए मंत्री की हाँ में हाँ मिलाना इनकी मजबूरी है।.
कोई सरकार क्या करे या क्या न करे इस बारे में जनादेश देने वाली जनता के पास रोकटोक का अधिकार है ही नहीं, जैसे आजादी के बाद का नया इतिहास लिखने की धुन में राजनीति से जवाहरलाल नेहरू को विलोपित कर सावरकर और उपाध्याय,बनर्जी को शामिल करने की कोशिश की जा रही है वैसे ही चिकित्सा शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र में भी इन्हीं विचारकों को आरोपित किया जा रहा है।
चिकित्सकों में संघदक्ष शामिल करना ही है तो पीएमटी परीक्षा में ही संघ की विचारधारा को एक विषय के रूप में जोड़ा जा सकता है लेकिन इस तरह से चिकित्सा शिक्षा के स्वरूप को विकृत करने की कोशिश तो एकदम बेहूदी लगती है। फाउंडेशन कोर्स में आप देश के स्थापित चिकित्सा शास्त्रियों को शामिल करें तो किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती लेकिन जिनका चिकित्सा क्षेत्र से मीलों तक कोई रिश्ता ही नहीं है उन्हें फाउंडेशन कोर्स का हिस्सा बनाने की सनक चिकित्सा छात्रों की फ़ाउंडेशन में ही सेंध लगाने जैसी है।
इससे तो बेहतर होता कि सारंग जी बाबा रामदेव का नाम इस सूची में बाबस्ता कर लेते। बाबा कम से कम फूं-फूं तो करना जानते हैं चिकित्सकों की नयी फसल को संघी बनाना ही है तो उन्हें पढ़ाई पूरी करने के बाद साल-छह माह के लिए संघ की शाखाओं में अनिवार्य रूप से भेजा जा सकता है।
कोई दूसरा नहीं कहेगा लेकिन मैं निसंकोच कह सकता हूँ कि ये भी एक तरह का तालिबानीकरण है। इसे रोका जाना चाहिए अन्यथा चिकित्स्कों की पूरी की पूरी फसल बर्बाद हो जाएगी। किसी शिक्षा को भ्र्ष्ट करना देशभक्ति या राष्ट्रवाद नहीं होता। अभी मैंने ये सवाल तो उठाया ही नहीं कि फाउंडेशन कोर्स में शामिल करने के लिए सारंग साहब को कोई मुस्लिम विचारक क्यों नहीं सूझा?
मैंने ये सवाल जानबूझकर नहीं किया,क्योंकि मित्रों को इसमें साम्प्रदायिकता नजर आने लगेगी। सारंग जी ने जिस छूट का दुरूपयोग करने का प्रयास किया है यदि दूसते राज्यों की सरकारें भी ऐसा ही करने पर उत्तर आयीं तो भाई चिकित्स्क अलग-अलग राज्यों में फाउंडेशन कोर्स में अलग-अलग विचारधारा के विचारकों को पढ़ने के लिए विवश हो जायेंगे। केरल में उन्हें वामपंथी विचारक पढ़ना होंगे तो पूरब में दूसरे,पश्चिम में दूसरे।
चिकित्सा और तकनीकी शिक्षा के अलावा बहुत से ऐसे विषय में हैं जहां विचारधाराओं की नहीं सम्बंधित विषयों के वैज्ञानिक अध्ययन और अध्यापन की आवश्यकता है। यदि इन क्षेत्रों में मदाखलत की गयी तो देश को बहुत कुछ भुगतना पड़ सकता है। दुनिया में इस्लामिक देशों में भी अभी ऐसा घातक प्रयोग शुरू नहीं किया गया है।
सारंग जैसे नेता भूल जाते हैं कि चिकित्सा मानवता का विषय है, विचारधाराओं का नहीं। हमारे चिकित्सकों को आने वाले कल में दुनिया के चिकित्सकों का मुकाबला करना है। हेडगेवार,उपाध्याय और मुखर्जी को पढ़कर वे ऐसा नहीं कर सकते।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)