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राष्ट्रीय डाक दिवस: . . . वे लोग तो डाक कर्मियों की सेवाओं की लानत करेंगे ही

बीते कल एक मित्र की फेसबुक पोस्ट पढ़ रहे थे। सरकारी डाक सेवा से बहुत खफा थे। सेवा मन मुताबिक न मिले तो खफा होना स्वाभाविक है पर सेवा की भी कुछ शर्ते होती हैं। उनका अपना सिस्टम होता है। उनका अपना एक समय होता है। उसके साथ हमें आपको सामंजस्य बिठाना होता है। सरकारी सेवाओं के बारे में वैसे भी आज खिलाफत की हवा चल रही है।

डाक सेवाओ का आज जिक्र करने की एक वजह है। दरअसल हर साल 10 अक्टूबर को ”राष्ट्रीय डाक दिवस (National Post Day) मनाया जाता है, इस विशेष दिन को मनाए जाने का मूल उद्देश्य पिछले 150 वर्षों से भारतीय डाक विभाग द्वारा निभाई गई भूमिका को याद करना है, जिसकी स्थापना 1854 में लॉर्ड डलहौजी द्वारा की गई थी।

आपकी जानकारी के लिये बता दें कि भारतीय डाक सेवा की स्थापना 1766 में लार्ड क्लाइव ने की थी। भारत में पहला पोस्ट ऑफिस कोलकाता में 1774 में वॉरेन हेस्टिंग्स ने शुरू किया था। 1852 में स्टाम्प टिकिट शुरू किये गए। इस प्रकार भारत में डाक सेवा को 166 वर्ष से अधिक हो गया हैं। भारतीय डाक सेवा बड़ी डाक सेवाओं में से एक मानी जाती हैं। भारतीय डाक सेवा भारत का अभिन्न अंग रहा है।

यह मानने में मुझे कतई कोई संकोच नहीं है कि भारत में डाक सेवाओं ने संस्कृति, परंपरा और कठिन भौगोलिक इलाकों में विविधता के बावजूद सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया है। डाक सेवा एक मात्र ऐसी सेवा रही, जिसके जरिए व्यक्ति, व्यक्ति से जुड़ा रहता है। यह महत्वपूर्ण सेवाओं में से एक मानी जाती थी। चिट्ठियों के जरिए नाते रिश्तेदार एक दुसरे के सुख दुख में शामिल होते थे। इतनी दुरी होने के बावजूद भी सबमे अपनापन एवं प्यार होता और आज के समय में हर एक पल की खबर होने पर भी वो चिट्ठियों के समय का प्यार और अपनापन कही खो गया हैं।

मेरे जीवन मे डाक सेवाओ का विशेष महत्व रहा है। पत्र लिखना और परिजनों को भेजना मेरा खास शौक रहा है। कभी कभी पोस्ट कार्ड पर ज्यादातर अंतर्देशीय पत्र लिखता था। शादी के बाद दूसरे शहर में मायके वाली पत्नी से विवाह के बाद छह माह का लंबा विछोह बंद लिफाफों में एक दूसरे को जोड़े रखने में सफल रहा। दोनो ओर के डाकिया बहुत कुछ समझ चुके थे। उनके साथ भी एक रिश्ता बन गया था। वे पत्र आज भी हमारे पास सुरक्षित हैं।

राकेश पांडेय

मुझे कभी सरकारी डाक सेवा से असंतुष्टि नहीं रही। एक बार मेरे सारे सर्टिफिकेट/मार्कशीट खो गए थे। खो क़य्य गए थे चोरी चले गए थे। किसी ने उन्हें एक लिफाफे में भरा। उसे पता स्कूल की टीसी से मिल गया। बैरंग लिफाफा उस पते भर भेज दिया। अब समझिये, उस पते पर मैं रहता नहीं था। आसपास वालो से डाकिये ने वर्तमान पता लिया और मेरे दस्तावेज मुझ तक पहुचाएं। उस समय मुझे ग्रेजुएशन में लखनऊ एडमिशन लेना था। अगर यह दस्तावेज समय से न मिलते तो बड़ा संकट था। मैं डाक विभाग के एक एहसान को कभी भूल नहीं सकता।

डाक विभाग की एक निर्धारित कार्यपद्धति थी। खुलने और बन्द होने का समय तय था। लेटर बॉक्स में भी डाक निकलने का एक समय था। इसका ख्याल रख मैं पत्र डाकपेटी में डालता था। डाकपेटी का समय निकल जाने पर हेड पोस्ट आफिस में जाकर लेटर पोस्ट करता था। वहाँ कई बार पत्र निकाले जाते थे। कई बार तो “आरएमएस” यानी रेल मेल सर्विस में रेलगाड़ी में आरएमएस कोच में जाकर पोस्ट करता था।

जिनको कामगारों के काम के तय घँटों से कोई लेना देना नहीं है। जिनको सरकारी क्षेत्र में तय काम के घँटे में काम होने से कोई लेना देना नहीं है। जिन्हें आज मंहगी कुरियर सेवाएं अच्छी लगती हैं। जिन्हें कुरियर ब्याय के काम के घँटों, उनके पारिश्रमिक और नौकरी की अनिश्चितता से कोई लेना देना नहीं है वह डाक कर्मियों की सेवाओं की लानत करेंगे ही।

आज आपको लेटर बॉक्स नहीं दिखेंगे। डाकिया नहीं दिखेगा। संचार व्यवस्था में तकनीक के प्रवेश व कूरियर सेवाओ ने लेटर बॉक्स और डाकिया को चलन ने बाहर कर दिया है। मगर हम जैसे लोग इनको भूलेंगे नहीं।

मैं भारतीय डाक सेवा और उसके कर्मठ सिपाहियों को आज डाक दिवस पर सेल्यूट करता हूँ।

(लेखक उत्तरप्रदेश बैंक कर्मचारी यूनियन के पदाधिकारी हैं)

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