पहले इस्तीफ़ा-फिर किताब, न्यूज़रूम के हर समझौते का प्रायश्चित जिसने छापा नहीं, छिपाया
किताब 'राहुल गांधी: साम्प्रदायिकता, दुष्प्रचार, तानाशाही से ऐतिहासिक संघर्ष' के लेखक दयाशंकर मिश्र की सोशल मीडिया पोस्ट
Ashok Chaturvedi
राहुल गांधी पर सच लिखना कितनी मुश्किलें खड़ी करेगा, मुझे बिल्कुल अंदाज़ा नहीं था। ऐसे समय जब सत्ताधीशों पर गाथा-पुराण लिखने की होड़ लगी हो, मैंने सोचा था कि एक लोकनीतिक विचारक की सोच, दृष्टि और दृढ़ता को संकलित कर प्रस्तुत करना किसी को क्यों परेशान करेगा? लेकिन मैं ग़लत साबित हुआ। लिखना और व्यक्त करना हमारा काम है। लेकिन इसी के विस्तार से अचानक कंपनी की धड़कनें बढ़ गईं। मेरे पास विकल्प था कि मैं किताब वापस ले लूं। नौकरी करता रहूं। चुप रहूं। लेकिन, मैंने किताब को चुना। जो हमारा बुनियादी काम है, उसको चुना। सच कहने को चुना। इसलिए, पहले इस्तीफ़ा, फिर किताब।
यह किताब असल में न्यूज़रूम के हर उस समझौते का प्रायश्चित है, जिसने छापा नहीं, छिपाया। इसमें राहुल गांधी के ख़िलाफ़ 2011 से शुरू हुए दुष्प्रचार की तथ्यात्मक कहानी और ठोस प्रतिवाद है। किस तरह से मीडिया ने लोकतंत्र में अपनी परंपरागत और गौरवशाली विपक्ष की भूमिका से पलटते हुए न केवल सत्ता के साथ जाना स्वीकार किया, बल्कि विपक्ष यानी जनता की प्रतिनिधि आवाज़ को जनता से ही दूर करने, उसकी छवि को ध्वस्त करने की पेशागद्दारी की। न्यूज़रूम और दुष्प्रचारी IT सेल के अंतर को मीडिया ने मिटा दिया। यह किताब साम्प्रदायिकता, दुष्प्रचार और तानाशाही के खिलाफ राहुल गांधी के संघर्ष का विश्लेषण है।
संवैधानिक संस्थाओं पर केंद्र का क़ब्ज़ा, अन्ना हजारे के साथ मिलकर केजरीवाल की प्रोपेगेंडा राजनीति का चक्रव्यूह, पाठक इसमें आसानी से समझ सकते हैं। यह किताब हालिया इतिहास में लोकतंत्र और संविधान पर हुए हमलों को सिलसिलेवार 11 अध्यायों में बताने का सहज प्रयास है।
आप पढ़िएगा और बताइएगा कि हिंदुत्व की राजनीति में मॉब लिंचिंग की स्थापना, झूठ और दुष्प्रचार की प्रभुसत्ता, हिंदू संप्रदायवाद का नया राष्ट्रवाद बनना, लोकतंत्र से लोकतांत्रिक मूल्यों का विलोपन… ये भारत पर खरोंच हैं जो कुछ समय में ठीक हो जाएंगी या यह एक दशक का सत्तानीतिक ‘सांविधानिक विकास’ है, जिसके निदेशक तत्व आज भारत को चला रहे हैं और दशकों तक चलाएंगे।