भारत को क्यों नहीं मिलते नोबल पुरस्कार? पत्रकार राकेश अचल का आलेख

स्वीडन के वैज्ञानिक अल्फ्रेड नोबेल की याद में वर्ष 1901 मे शुरू किया गया नोबेल पुरस्कार भारत के हिस्से में क्यों नहीं आता ? भौतिक शास्त्र, रसायनशास्त्र, चिकित्सा,साहित्य और शांति के लिए हर साल दिए जाने वाले इस प्रतिष्ठित पुरस्कार के लिए तंजानियां जैसे देशों का नाम तो आ जाता है लेकिन भारत जैसे 130 करोड़ की आबादी वाले भारत के हिस्से में ये नोबेल पुरस्कार कम ही आता है या आता ही नहीं है। इस पुरस्कार के रूप में प्रशस्ति-पत्र के साथ 14 लाख डालर की राशि प्रदान की जाती है।

दुनिया के सैकड़ों वैज्ञानिक और साहित्यकार,समाजसेवी इस प्रतिष्ठित पुरस्कार को हासिल कर चुके हैं, लेकिन बीते 120 साल में भारत के हिस्से में नोबेल पुरस्कार केवल 04 ही आये हैं। भारत में जन्मे 04 और लोगों ने भी ये पुरस्कार हासिल किया और भारत ने इसी बात पर खुशियां मनायीं। भारत में जन्मे 02 विदेशियों और भारत में शरणार्थी बनकर आये एक तिब्बती को भी नोबेल के नाम पर ये पुरस्कार हासिल हुआ।

भारत को नोबेल हासिल करने के लिए वर्षों इन्तजार क्यों करना पड़ता है? भारत को अंतिम नोबेल पुरस्कार 2014 में शांति के लिए कैलाश सत्यार्थी लेकर आये थे। उन्हें ये पुरस्कार भगवत कृपा से मिला या उनके अपने नसीब की वजह से ये कहना कठिन है ,क्योंकि उन्हें ये पुरस्कार मिलने से पहले भारत के ही अधिकाँश लोग ढंग से नहीं जानते थे। सत्यार्थी जी बच्चों और युवाओं के दमन के विरुद्ध उनके संघर्ष तथा सभी बच्चों के शिक्षा के अधिकार के लिए सतत संघर्ष करते आये हैं। भारत के लिए पहला नोबेल गुर रवीन्द्रनाथ टैगौर ने साहित्य के लिए 1913 में हासिल किया था। इसके बाद 1930 में सीवी रमन भौतिक शास्त्र के लिए और 1998 में अमृत्य सेन अर्थशास्त्र के लिए हासिल कर लाये थे।

राकेश अचल

सवाल ये है की भारत के हिस्से में ये नोबेल पुरस्कार कम क्यों आता है ? क्या भारत में भौतिकी,रसायन और चिकित्सा के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम नहीं होता या फिर भारत के नायक साहित्य और शांति के क्षेत्र में उत्कृष्ट काम नहीं करते ? इन सवालों के जवाब सरकारों से नहीं पूछे जा सकते,क्योंकि ये सभी काम व्यैक्तिक श्रेणी के हैं। सरकारें वैज्ञानिकों को साधन,सुविधाएं और वातावरण उपलब्ध करा सकतीं हैं, खुद शोध नहीं कर सकतीं। भारतवंशी हरगोविंद खुराना (1968), सुब्रह्मनियम चंद्रशेखर (1983),वैंकट रमन कृष्ण (2009) और अभिजीत बनर्जी (2019) में जब नोबेल पुरस्कार के लिए चुने गए तो हमने खुशियां मनायीं। भारत में शरणार्थी बनकर रहने वाले तिब्बतियों के शीर्ष धर्मगुरु दलाई लामा को जब 1989 में शांति के लिए नोबेल पुरस्कार मिला तब भी हमने उसे अपनी ही उपलब्धि मानी। भारत में जन्मे रोनाल्ड रास (1902) और रुडयार्ड किपलिंग (1907) में नोबेल जीते लेकिन वे दोनों थे अंग्रेज सो उनकी उपलब्धि हमारी नहीं मानी गयी।

हर साल जब नोबेल पुरस्कारों की घोषणा होती है तो भारत के हिस्से में नोबेल पुरस्कार नहीं बल्कि निराशा आती है क्यों आती है? इसका जबाब किसी के पास नहीं है। या तो भारतीय इस स्तर का को कोई काम नहीं करते की जो नोबेल के लायक समझा जाये या फिर भारत के साथ पक्षपात किया जाता है। मेरे ख्याल से दोनों ही बातें सही हो सकतीं हैं और दोनों ही निराधार भी। सम्भावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता। भारत केवल नोबेल पुरस्कार हासिल करने के मामले में ही यदि पीछे होता तो हम मान भी लेते लेकिन ओलम्पिक में भी भारत तमाम छोटे देशों के मामले में पीछे हैं। पुरस्कार निजी उपलब्धियों से जुड़े होते हैं। हम भौतिकी,रसायन, चिकित्सा और साहित्य तथा शांति के लिए कितना काम करते हैं, ये नोबेल पुरस्कारों की फेहरिश्त बताती है।

हम खेलों के क्षेत्र में कितना काम करते हैं ये ओलम्पिक खेलों की पद्कतालिका से आप जान सकते हैं। किसी से कुछ छिपा नहीं है। छिपाया जा भी नहीं सकता। दुनिया में नोबेल पुरस्कारों के अलावा अभूत से ऐसे क्षेत्र हैं जिनके सालाना इंडेक्स बनाये जाते हैं, लेकिन हर इंडेक्स में भारत का नाम खोजना पड़ता है।

निजी उपलब्धियों के क्षेत्रों को आप गोली मारिये। भारत ख़ुशहाली,स्वास्थ्य, शिक्षा के अंतरार्ष्ट्रीय इंडेक्सों में भी बहुत पीछे खड़ा नजर आता है। इस बारे में पाठक कह सकते हैं की मुझे भारत की उपलब्धियां नहीं दिखाई देतीं, लेकिन मुझे सब दिखाई दे रहा है। मेरी तरह पूरे देश और दुनिया को भी सब दिखाई देता है। जब मानदंडों पर हम भारत को खड़ा कर देखने की कोशिश करते हैं हैं तो निश्चित तौर पर हमें निराशा होती है क्योंकि इस निराशा की जड़ में लोग नहीं सरकारें होतीं हैं और आज के दौर में किसी भी सरकार से पंगा लेना खतरे से खाली नहीं है।

पिछले 120 सालों में नोबेल पुरस्कार 923 लोगों को मिल चुका है। इनमें 48 महिलाएं भी शामिल हैं। ये पुरस्कार हासिल करने वाले व्यक्ति और संस्थाएं दोनों हैं। अब तक 24 संगठनों को भी नोबेल पुरस्कार हासिल हुआ है। अमेरिका ने अब तक 37 , इंग्लैंड ने 131,जर्मनी ने 108, फ़्रांस ने 69, स्वीडन ने 32, रूस ने 31,जापान ने 27 और कनाडा ने 26 नोबेल पुरस्कार जीते। नोबेल जीतना या न जीतना किसी के बूते की बात है या नहीं इस पर बहस हो सकती है। भारत की तरह ही चीन नोबेल हासिल करने के मामले में फिसड्डी रहा है। चीन को अब तक 08 नोबेल पुरस्कार ही मिले। चीन ने तो अपने लोगों के लिए इस पुरस्कार पर दावा भी किया।

जाहिर है कि ये पुरस्कार भी राजनीति का शिकार हैं। चीन ने तो अपने विरोध भी दर्ज कराये,धमकियां भी दीं लेकिन भारत ने ऐसा कुछ नहीं किया क्योंकि भारत तो भारत है चीन नहीं। पाकिस्तान का तो इस नोबेल सूची में नाम ही नजर नहीं आता। ब्राजील और बुल्गारिया का कम से कम खाता तो खुला है। एक-एक नोबेल पुरस्कार के जरिये। भारत को आत्मचिंतन करना चाहिए कि क्या सचमुच नोबेल के लिए निर्धारित क्षेत्रों में और बेहतर काम हो सकता है। ये काम केवल नोबेल के लिए नहीं देश और दुनिया के लिए होना चाहि। आखिर हमें विश्व गुरु भी तो बनना है। इसके लिए आप किसी एक प्रधानमंत्री या उसकी सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। नेहरू या मोदी को तो बिलकुल ही नहीं। ये तो अंग्रेजों के ज़माने से ही गड़बड़ी चल रही है। वरना 120 साल में भारत कम से कम 20 नोबेल तो झटक ही सकता था।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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