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पहली संसद में मध्यप्रदेश के सागर का था दबदबा…

भारत में पहले आम चुनावों के बाद गठित पहली संसद में मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) का बड़ा दबदबा था।

दीपक तिवारी

भोपाल (जोशहोश डेस्क) भारत में पहले आम चुनावों के बाद गठित पहली संसद में मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) का बड़ा दबदबा था। इसमें सदन के नेता सागर (Sagar) शहर के थे जबकि एक अन्य सदस्य सागर के ही मालथौन कस्बे के निवासी थे।

ब्रिटिश राज में 1919 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के बाद भारत में 1920 में अंग्रेजों ने पहली बार जो आम चुनाव कराए उसमें सागर (Sagar) के हरिसिंह गौर (Dr. Harisingh Gaur) की डेमोक्रेटिक पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में चुनी गई थी। 104 सदस्यीय लोकसभा में जो उस समय सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली कहलाती थी। उसमें 48 सीटें जीत कर डॉ हरिसिंह गौर सदन के नेता निर्वाचित हुए। जबकि बाकी के सदस्य स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में आये थे।

आजकल जिस तरह से सदन का नेता सामान्यतया प्रधानमंत्री होता है। उन दिनों ऐसा नहीं था। क्योंकि मूल शासन तो अंग्रेजों का ही था, जो उनके वायसराय के माध्यम से नियंत्रित होता था। उन दिनों सदन का नेता डिप्टी प्रेसिडेंट के रूप में जाना जाता था। तब संसद को इम्पीरियल लेजिस्लेटिव असेंबली कहते थे। लोकसभा सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली थी जबकि राज्यसभा को कौंसिल ऑफ स्टेट कहा जाता था।

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डिप्टी प्रेसिडेंट डॉ हरिसिंह गौर के साथ मध्यप्रांत, जिसे आज का मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) कहा जा सकता है, से तब निर्वाचित होने वालों में सागर के मालथौन कस्बे के प्यारी लाल मिश्र भी थे। प्यारी लाल मिश्र इसके पहले छिंदवाड़ा नगर पालिका के अध्यक्ष भी रहे थे। इसके अलावा बिलासपुर के कुंज बिहारी लाल अग्निहोत्री,  मोहम्मद एहसान खान और रघुवीर सिन्हा भी निर्वाचित हुए थे।

भारत के इतिहास में पहली बार जब दो सदन वाली संसद बनी थी तब लोकतंत्र की यह पवित्र संस्था जिस इमारत में आहूत की गई वह आज दिल्ली की विधानसभा है। इसके अलावा इसका एक सदन कुछ समय दिल्ली विश्वविद्यालय के सीनेट हॉल से भी चला। कालांतर में वहीं पर दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति का कार्यालय और आवास बना।

दिल्ली विश्वविद्याल का कुलपति कार्यलय। फोटो क्रेडिट : हेरिटेज वॉक

दिसंबर 1920 में 104 सदस्यीय लोकसभा के चुनाव हुए, तब चुनावों का कांग्रेस पार्टी ने महात्मा गांधी के आवाहन पर बहिष्कार किया था। महात्मा गांधी ने पूरे देश के लोगों से इन चुनावों का बहिष्कार करने के लिए कहा था। इन 104 सीटों में से केवल 66 पर ही स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ा गया जबकि बाकी सीटें यूरोपियन और अन्य समुदाय को आरक्षित थीं।

इसके अलावा देश के अंग्रेजी शासित राज्यों में भी चुनाव हुए। जहां स्थानीय विधानसभाओं की 637 सीटों पर निर्वाचन हुआ। इनमें 188 पर केवल एक ही उम्मीदवार होने के कारण निर्विरोध चुनाव जो गए। जबकि 440 पर चुनाव हुये। छह पर कोई उम्मीदवार नहीं था।

दो सदनों वाली संसद का भारत में पहला प्रयोग था इसलिए इसमें बहुत ज्यादा सफलता नहीं मिली। यह इसलिए क्योंकि शुरुआत से ही हरिसिंह गौर जो कि सदन के नेता थे उनका अंग्रेजी शासकों से कई विषयों पर मतभेद हो गया। आरंभ से ही विवादित रहे यह चुनाव और संसद, कांग्रेस पार्टी के असहयोग के कारण मात्र दो सालों में ही समाप्त हो गयी और फिर 2023 में फिर चुनाव हुए। इन चुनावों में तब सीटें बढ़ कर 145 हो गईं। कांग्रेस ने फिर बहिष्कार किया लेकिन मोतीलाल नेहरू की स्वराज पार्टी ने चुनाव लड़ कर बहुमत प्राप्त किया। इन चुनावों में मोतीलाल नेहरू सदन के नेता चुने गए।

इस बीच हरिसिंह गौर ने दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान देते हुए वहां पर कुलपति के पद को स्वीकार कर लिया। हरिसिंह गौर ने उन दिनों महिलाओं तथा अन्य प्रगतिशील कानूनों के पक्ष में अंग्रेजों के सामने जबरदस्त पैरवी करते हुए ना केवल न्यायालयों में अपनी बात रखी बल्कि संसद में रहकर उनके लिए कानून बनवाए।

भारतीय राजनीति में हरिसिंह गौर एक अंडर-रिपोर्टेड व्यक्तित्व हैं जिनके बारे में आधुनिक भारत में बहुत कम लिखा और कहा गया है। आज उन्हीं हरिसिंह गौर का निर्वाण दिवस है।

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