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मोहन भागवत-ओवैसी को भारत के एक नागरिक की खुली चिट्ठी

सत्ताकामी राजनीतिक ताक़तें धर्म और मज़हब के नाम पर राजनीतिक स्वार्थ साधने से नहीं आ रहे बाज

आप दोनों यह भलीभांति जानते हैं कि भारत में बसने वाले हिन्दू और मुसलमान एक-दूसरे के सुख-दुख में शामिल होकर सदियों से जी रहे हैं। वे आपस में नहीं लड़ रहे। अन्यथा हम कब के मिट गये होते। यह ज़रूर है कि सत्ताकामी राजनीतिक ताक़तें उन्हें धर्म और मज़हब के नाम पर फुसलाकर अपना राजनीतिक स्वार्थ साधने से बाज नहीं आ रहीं। इसी कारण लोकतंत्र का मन रोज़ अशान्त ही बना रहता है। अविवेकी बाज़ारू मीडिया इसी अशांति का ढोल पीटकर हिन्दू-मुसलमानों को एक-दूसरे के प्रति भ्रमित करने पर उतारू है और वे दोनों मिलकर ईद मना रहे हैं, रंगों से फाग खेल रहे हैं। विचार शून्य नेताओं की करतूतों पर चुटकुले बनाकर उनकी रोज़ हॅंसी उड़ा रहे हैं।

आपको विदित है कि भारत ऋत की प्रज्ञा का देश है। प्रत्येक संवत्सर में बीतते ऋतुकाल इस देश में बसे सबके जीवन को सदियों से पालते-पोसते आ रहे हैं। जो भी यहाॅं आया उसे इस देश की प्रकृति की गोद में जगह मिली। ये ऋतुकाल बिना किसी भेदभाव के भारत में बसे बहुविश्वासी जीवन के अन्नमय, मनोमय, प्राणमय कोषों को तृप्त करते रहते हैं।

यह ऋतुकाल ही राष्ट्र में वास्तविक यज्ञ है जिसमें जीवन का कोई सनातन उत्प्रेरक अपना डेरा डाले हुए है। अपरा प्रकृति ही उसका निवास स्थान है जिसमें उसकी परा प्रकृति बहुरंगे जीवन के बीज बोती रहती है। इन बीजों से अपनी-अपनी प्रकृति के अनुरूप हिन्दू-मुसलमान सबका जीवन उत्पन्न होता रहता है। यही सनातन धर्म है। जीवन की इस सनातन खेती पर भयानक लोभ और द्वेष की छाया पड़ रही है और हम भारत के लोगों को इससे बेखबर बनाया जा रहा है। ईंट-गारे से बने देवमंदिरों में तो उजाला बढ़ रहा है पर देश के देहरूपी करोड़ों मंदिरों में आध्यात्मिक और आर्थिक अभावों का अंधेरा गहरा रहा है।

समग्र जीवन यज्ञ को उन्नत किये रहने की जिम्मेदारी देश के राज्यकर्ताओं और सभी नागरिकों की है। उन साधुजनों की भी है जो तीर्थों में डेरा डालकर भण्डारे उड़ा रहे हैं। वर्षाचक्र ही कामधेनु है जो इस देश में बसे सभी जातियों के मानव समुदायों को बिना किसी भेदभाव के मनवांछित फल देती रहती है। देवता यह कहां जानते हैं कि भारत में किन हिन्दू और मुसलमानों की सरकार चल रही है। राजा तो प्रतीकमात्र ही माने गये हैं और राष्ट्र के समूचे अस्तित्व के प्रति उत्तरदायी भी।

ध्रुव शुक्ल

बीते समय में राज्य की नीति सुनिश्चित करने वाले पूर्वजों ने राज्य को यही निर्देश किया है कि उसे वर्षाचक्र के मार्ग को स्वच्छ रखने के लिए वनों, पर्वतों, नदी-सरोवरों और ओषधियों की सदा रक्षा करना चाहिए। पर देश की वनराजि और जलवायु अब अरक्षित और असहाय जान पड़ती है। शान्त उत्तराखण्ड के पर्वत-शिखर दरक रहे हैं इनके अस्तित्व के पक्ष में हिन्दू और मुसलमानों के समाज की कोई व्यावहारिक भूमिका नहीं दीखती। क्यों यह संभव नहीं हो पा रहा कि — सुजलां सुफलां मलयज शीतलाम् — का गान करने वाले और संस्कृति की रक्षा का दंभ पालने वाले स्वयंसेवी संगठनों के लोग देश के क्षिति-जल-पावक-गगन-समीर के पक्ष में सबको साथ लेकर राज्य के विरुद्ध कोई आंदोलन छेड़ने में असमर्थ दिखायी पड़ते हैं? लोग बदलें चाहे न बदलें, प्रकृति किसी राजनीति के पक्ष में अपना धर्म नहीं बदल सकती। प्रकृति से प्रेम के बिना समभाव की संस्कृति नहीं बचायी जा सकती।

तीर्थों में मंदिरों के स्थापत्यों में प्रतिमाओं की प्राण-प्रतिष्ठा करके उन्हें श्रद्धा और आत्मज्ञान के केन्द्रों के रूप में गढ़ा जाता रहा है। देश में जितने व्यक्ति हैं, उनके त्रिगुणात्मक प्रकृति के न्याय से उतने स्वभाव हैं। कहना चाहिए कि उतने धर्म हैं। विवेकानंद कहते ही थे कि पृथ्वी पर मनुष्य सहित जितने प्राणी हैं, उतने धर्म हैं। वे प्रतिदिन अपने स्वभाव के अनुरूप अपना अच्छा-बुरा धर्म प्रवर्तन करते रहते हैं। इसी कारण मंदिरों को ऐसे स्वास्थ्य केन्द्रों के रूप में ही तो गढ़ा गया कि उनके माध्यम से देश के जीवन में बैर को त्यागकर सबके दुख को परखने वाली आध्यात्मिक समता विकसित हो सके। मस्जिदों के विशाल स्थापत्य भी इसी समता को पाने के लिए गढ़े गये होंगे। इस दिशा में धर्मपीठों और शरीयतों की कोई सजग भूमिका दिखायी नहीं पड़ती। राज्य के द्वारा तीर्थों को पर्यटन स्थल में बदला जा रहा है और पर्यटक देवॠण चुकाना नहीं जानते।

आपसे यह तथ्य छिपा नहीं है कि पूरे संसार में आर्थिक और सामाजिक समता लाने में राजनीति अभी भी विफल है। केवल जात-पांत-संप्रदाय, मज़हब के भेदभाव के आधार पर राजनीतिक प्रतिनिधि चुनते रहने से प्रजातंत्र कमजोर होता जा रहा है। जीवन बेबस दिखाई देता है। स्वराज्य का कोई अर्थ ही नहीं रहा। इसी कारण करोड़ों लोग तीर्थों में जाकर प्रतिमाओं को अपना दुख सुनाते हैं।

कल्पित ख़ुदा और भगवान के आगे अपना रोना रोते हैं। इसे राज्य की विफलता ही कहा जायेगा। इससे जनता के प्रति राज्य की जिम्मेदारी कम हो जाती होगी। आर्त्तजनों को यह विश्वास है कि प्रतिमाएं उनकी बात सुनती हैं जबकि उनके ही चुने हुए प्रतिनिधियों को उनकी आवाज सुनायी नहीं देती।

आपको विदित ही है कि भारत माता ग्रामवासिनी है। धर्म-चिन्तन समृद्ध अरण्यों में और राजनीति समृद्ध जनपदों में फलती-फूलती है। विश्व बाज़ार के जाल में फंसकर दोनों का क्षय हो रहा है। अब शहरी हो गये तीर्थों में धर्म संसद होने लगी है क्योंकि अरण्य और वनग्रामों से विस्थापित धर्म केंद्रों को अब शहरों की व्यापारिक राजनीति ने घेर लिया है। वनवासी भी विस्थापित किये जा रहे हैं। राम वन में अकेले पड़ गये हैं, उन्हें मार्ग दिखाने वाला वहां कोई विश्वमित्र नहीं। रहीम की भी कोई नहीं सुन रहा। पतित राजनीति के आगे राम और रहीम अकेले पड़ गये हैं।

अनेक अज्ञातकुलशील साधुवेशधारियों की वाणी विकृत हो रही है और वे राजनीति को धर्म का दुर्विनियोजन करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। बाजारू विज्ञापन देश के मानस को कामुकता और लोभ में फांस रहे हैं। हमने तो हर्षवर्धन के काल में सातवीं सदी तक काशी में होने वाली धर्म सभा का नाम ज़रूर सुना है। आपसे व्यथित होकर कहने का मन होता है कि जो हिन्दू और मुसलमान अन्याय को सहने की आदत डाल चुके हैं, उन्हें मार्ग कौन दिखाये? हम भारत के लोग धर्म-मज़हब और रिलीजन के सूक्ष्म भेदों को परखकर लोकतंत्र में इन्सानी बिरादरी के अहसास से भरी संवैधानिक नागरिकता की रचना क्यों नहीं कर पा रहे हैं?

आपसे यह तथ्य भी नहीं छिपा है कि आधुनिक विश्व में बहुविश्वासी आबादियां साथ रहकर जीवनयापन करती हैं। हम उन्हें किसी देश से निकाल बाहर नहीं कर सकते। उन्हें अपमानित करना भी हमारी संस्कृति के विपरीत माना जायेगा। इतिहास की उलझनों के हल संवाद से ही संभव होते हैं। भारत की सनातन दृष्टि तो हजारों साल से इंसानी बिरादरी( ‘सब साथ रहें’ का वैदिक आह्वान) के पक्ष को मजबूत रखने की साधना ही विकसित करती रही है। पर आज यह अनुभव मन को व्यथित करता है कि भारत अपना प्रण ही भूलता जा रहा है और उसे तत्काल याद दिलाने की ज़रूरत है।

श्रीकृष्ण ने भारत को भूले हुए योग की याद दिलायी और ज्ञान-कर्म-भक्ति का वह महान उपदेश किया जिसे अपनाकर और देह के धर्मों के राग-द्वेष को त्यागकर सबके साथ चला जा सकता है। परस्पर आश्रय ही वास्तविक शरणागति है। सनातन धर्म इसी आश्रय पर टिका हुआ है। इस भूले हुए योग को याद दिलाने का समय फिर आया है। आपको उस प्राचीन वचन का स्मरण अवश्य होगा — सत्य के लिए किसी से न डरना — लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं, मंत्र से भी नहीं, गुरु से भी नहीं।

भारत ने सनातन प्रकृति से सबके जीवन को सौन्दर्य प्रदान करने का वरदान पाया है और उसकी राज्य व्यवस्था में भारी बिखराव आता जा रहा है। वह स्वार्थियों के गिरोह जैसी हो गयी है। इस संकट के निवारण का उपाय तो करना ही होगा। हिन्दू और मुसलमानों के सत्ताधारी नेताओं को एक-दूसरे के अतीत को कोसने की बजाय अपने वर्तमान को शान्त,सहज और सुंदर बनाने के लिए कौमपरस्त वोट की राजनीति छोड़ना होगी। यह याद दिलाना ही होगा कि योग और भोग, अहिंसा और हिंसा, राग और द्वेष, राज्य और बहुविश्वासी जनता के बीच संयम की रेखा कहां खिंची है। यह समय गहन आत्मसमीक्षा है, उसे एक-दूसरे के निन्दित अतीत को कोसने में बिता देने से भारत का भला कैसे हो सकेगा?

(लेखक- कवि, कथाकार और विचारक हैं)

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