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शादी से जुड़े ये कानून जानना है जरूरी, पढ़िए धर्मों से जुड़े A टू Z एक्ट के बारे में

भोपाल (जोशहोश डेस्क) ऐसे समय में जब देश के विभिन्न राज्यों में गैर धर्म में विवाह के विरोध में कड़े कानून लाने की कवायद चल रही है, तब हमारे लिए ये जानना बहुत जरूरी हो जाता है कि भारत में मौजूदा विभिन्न विवाह कानून कौन-कौन से हैं। इसी विषय पर पढ़िए जोशहोश की एक स्पेशल रिपोर्ट…  

स्पेशल मैरिज एक्ट

यह एक्ट 1954 में लागू हुआ था, जिसके तहत किसी भी धर्म या संप्रदाय के दो व्यक्तियों के बीच विवाह को सम्मिलित किया जा सकता है। कोई भी व्यक्ति जो अपने व्यक्तिगत विवाह कानून से बाहर जाकर गैर धर्म में विवाह करना चाहता है, वह इस धर्मनिरपेक्ष कानून के तहत विवाह कर सकता है। हालांकि, यह बात भी सामने आई कि इस कानून के तहत शादी करने वालों को व्यक्तिगत कानून की तुलना में अधिक बाधाओं का सामना करना पड़ता है।

अनुमति के लिए एक समय सीमा के अंतर्गत आवेदन करना होता है, ताकि शादी के निर्धारित समय से पहले कागजी काम कम-से-कम एक महीने में पूरा हो सके और आवेदन को तीन माह से अधिक का समय न बीता हो। शादी से 30 दिन पहले जोड़े को अपना नाम, पता और फोटो आवेदन के साथ देना होता है। यह आवेदन मैरिज रजिस्ट्रार के ऑफिस में एक महीने तक डिस्प्ले पर लगाया जाता है। आमतौर पर ऐसे जोड़े जिनके माता-पिता उनके रिश्ते को नहीं स्वीकारते वो स्पेशल मैरिज एक्ट का विकल्प चुनते हैं। 

 इस एक्ट में यह भी प्रावधान है कि कोई भी व्यक्ति निर्दिष्ट आधार पर विवाह पर आपत्ति जता सकता है। ऐसे में परिवारों और समुदाय के लोगों को हस्तक्षेप करने की खुली छूट मिल जाती है। विवाह पर आपत्ति जताए जाने की स्थिति में विवाह अधिकारी पूछताछ करता है और यदि वो आपत्ति वैध पाई जाती है, तो उस व्यक्ति द्वारा या जोड़े में से किसी एक के द्वारा जिला अदालत में अपील की जाती है। इसके बाद अदालत का निर्णय अंतिम माना जाता है। यह बात भी सामने आई है कि ऐसे मामलों में अधिकारी भी परिवार पर विवाह के खिलाफ दबाव बनाते हैं। इसी बात को संज्ञान में लेते हुए हाल ही में केरल सरकार ने रजिस्ट्रार ऑफिस में आवेदन की सूचना को डिस्प्ले पर लगाने की रोक लगा दी है।

यह कदम सूचना के कारण बढ़ने वाले सांप्रदायिक कलेश से बचने और जोड़ों को मानसिक उत्पीड़न से बचाने के लिए उठाया गया। इन प्रावधानों को लेकर मामला सुप्रीम कोर्ट में भी है और सुनवाई जारी है। अपील है कि ये प्रावधान निजता और समानता के अधिकारों का हनन करते हैं। इसका एक उदहारण यह है कि स्पेशल मैरिज एक्ट में लड़की की शादी की उम्र कम-से-कम 21 है, वहीं हिन्दू कानून में यह 18 है।स्पेशल मैरिज एक्ट में पति -पत्नी को आपसी सहमति से ही तलाक मिलने का प्रावधान है। तलाक की अर्जी दाखिल करने में सक्षम होने के लिए एक वर्ष से अधिक समय तक दोनों पति-पत्नी को अलग रहना होगा। इस एक्ट में समलैंगिक जोड़े के बीच विवाह के संबंध में प्रावधान नहीं है। इस संबंध में एक समलैंगिक जोड़े ने कोर्ट से अपील की है कि इस एक्ट के अंतर्गत सभी जोड़ों की, उनकी लिंग पहचान और सेक्सुअल ओरियंटेशन की परवाह किए बिना, शादी मान्य होनी चाहिए। 

हिन्दू मैरिज एक्ट

वर्ष 1955 में यह कानून हिंदू धर्म में विवाह और तलाक को कानूनी वैधता प्रदान करने के लिए लाया गया था। इस कानून के अंतर्गत बौद्ध और जैन धर्म भी आते हैं। अन्य कोई भी धर्म जो मुस्लिम, इसाई, पारसी और यहूदी धर्म के अंतर्गत नहीं आते, वह सभी इस एक्ट में सम्मिलित हैं। इस एक्ट के तहत हिंदू धर्म के किसी भी जाति के स्त्री और पुरुष आपस में शादी कर सकते हैं।एक्ट के नियमानुसार एक ही जाती में शादी करने वाले वर और वधू ‘सपिण्ड’ नहीं होने चाहिए, यानी उनके पूर्वज कभी एक न रहें हो। ये नियम उन धर्मों और सम्प्रदायों में लागू नहीं होता जिनमें अपने cousin(चचेरे/ममेरे भाई और बहन) से शादी करना मान्य है।  

 हिन्दू मैरिज एक्ट का आधार विवाह की शास्त्रीय पद्धति को माना गया है जिसमें ‘सप्तपदी’ यानी सात फेरों का बहुत महत्व है। अन्य सभी रीती- रिवाज मान्यताओं के अनुरूप बदलते रहते हैं। आर्य समाज की शादियों में एक निर्दिष्ट प्रारूप का पालन करना होता है।

द्विविवाह (Bigamy), हिन्दू विवाह कानून में गैरकानूनी है। यदि कोई द्विविवाह करता है तो उसे यह साबित करना होगा कि दूसरी शादी पूरे रीती रिवाजों से हुई थी। इसमें अधिकारों की बहाली का उल्लेख धारा 9 में किया गया है। वैवाहिक संबंधों की बहाली में केवल भौतिक जरूरतों की पूर्ति ही नहीं है बल्कि इसमें कई अन्य महत्वपूर्ण पहलू हैं। पति और पत्नी के बीच कुछ अधिकार और कर्तव्य होते हैं, जो विवाह से पूरे होते हैं। ये अधिकार और कर्तव्य ही वैवाहिक अधिकारों के तहत आते हैं।वर्ष 2006 में सर्वोच्च न्यायालय ने भारत में सभी विवाहों का पंजीकृत होना अनिवार्य किया था। इसके लिए शादी समारोह की फोटो, निमंत्रण कार्ड और समारोह के कुछ साक्षी का होना आवश्यक है।

मुस्लिम मैरिज

मुस्लिम विवाह कानून अन्य धर्मों के विवाह के कानूनों से काफी भिन्न है। जहां हिन्दू, इसाई और पारसी समाज में शादी एक धार्मिक समारोह है, वहीं इस्लाम में शादी एक सिविल कॉन्ट्रेक्ट है जो मुस्लिम पर्सनल लॉ के मुताबिक होता है। मुस्लिम पर्सनल लॉ की शुरुआत, साल 1937 में, शरीयत एप्लीकेशन एक्ट के तहत हुई थी। इस्लामिक समाज शरीयत के मुताबिक चलता है।मुस्लिम विवाह में इजाब (एक पक्ष की ओर से शादी का प्रस्ताव) और क़ुबूल (दूसरे पक्ष की स्वीकृति) के अहम मायने होते हैं। दोनों पक्षों की सहमति किसी भी प्रकार के दबाव से स्वतंत्र होने चाहिए।

इस कॉन्ट्रैक्ट में मेहर( शादी के समय वर परिवार की और से वधु को दिए जाने वाली धनराशि या उपहार) का भी रिवाज होता है। इस्लामिक लॉ में चार संस्थाएं हैं, जो कि कुरान की आयतों और इस्लामिक समाज के नियमों की अलग-अलग व्याख्यां करती है। कुरान के मुताबिक एक पति की चार पत्नियां हो सकती हैं। ऐसा करने के लिए पहली पत्नी की रजा जरूरी नहीं है, लेकिन सभी पत्नियों को बराबर का हक दिया जाना चाहिए। मलिकिय्या, शफीय्या और हनीबिय्या संस्थाओं में एक से अधिक निकाह के लिए वली(अभिभावक या धर्मगुरु) की इजाज़त जरूरी होती है, वहीं शिया कानून में ऐसा जरूरी नहीं है। 

 सुन्नी धर्मशास्त्र में निकाह मुताह (स्थाई समय तक के लिए की गयी शादी) की मानहीं है पर शिया कानून में इसकी इजाजत है। मुलिम पुरुष अपनी पत्नी को तलाक-ए-अहसन और तलाक-ए-हसन, इन दो तरीकों से तलाक दे सकता है। तलाक पूरा होने के लिए पति को अपनी पत्नी के साथ इद्दत (3 महीने) का समय बिताना होता है। इन तीन महीनों में भी अगर सुलह नहीं होती तो तलाक पूरा माना जाता है।  तलाक-ए-बिद्दत यानी तीन तलाक में पति एक-एक माह के अंतराल पर तीन बार तलाक कह कर तलाक ले सकता है। साल 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित कर दिया है, जो 2019 में एक कानून द्वारा और दृढ़ किया गया। एक मुस्लिम महिला निर्दिष्ट आधार पर या खुला के माध्यम से तलाक ले सकती है जहां वह अपने पति को उसकी संपत्ति या मुबारत से मुआवजा देती है।

क्रिस्चियन मैरिज

इसाई धर्म में शादी इंडियन क्रिस्चियन मैरिज एक्ट, 1872 के तहत होती है। यह एक्ट कोचीन, मणिपुर, जम्मू और कश्मीर जैसे क्षेत्रों को छोड़कर पूरे भारत में लागू होता है। एक्ट के अनुसार, शादी वैध होने के लिए कम-से-कम एक पक्ष को ईसाई होना चाहिए और शादी की प्रक्रिया पादरी, किसी चर्च के मंत्री, या रजिस्ट्रार द्वारा संपन्न की जानी चाहिए। शादी की रस्म 6 बजे से 7 बजे के बीच होनी चाहिए। हालांकि, ऐसे मामलों में जहां पांच मील के भीतर कोई चर्च नहीं है, एक उपयुक्त वैकल्पिक स्थान चुना जा सकता है। धरा 9 में इन अपवादों का जिक्र है।  

 महिलाओं की तुलना में पुरुषों के लिए तलाक लेना पारंपरिक रूप से आसान था, जब तक कि साल 2001 में इन प्रावधानों में सुधार नहीं किया गया। 

पारसी मैरिज

पारसी विवाह पारसी मैरिज एंड डाइवोर्स एक्ट,1936 के तहत होते हैं। शादी करने के लिए एक पुजारी और दो गवाहों की जरूरत होती है. पारसी शादी में एक धार्मिक आशीर्वाद समारोह भी होता है, लेकिन मुस्लिम विवाह की तरह इसमें भी कॉन्ट्रैक्ट होता है। वर और वधु एक निश्चित डिग्री के भीतर एक दूसरे से संबंधित नहीं होने चाहिए। तलाक को विशेष पारसी अदालतों द्वारा स्थगित किया जाता है, जिसमें एक जूरी प्रणाली होती है। 

 अनुसूचित जनजाति अपने प्रथागत कानून का अनुसरण करते हैं।

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