मध्य्प्रदेश की जनता के साथ-साथ सत्तारूढ़ भाजपा के मौजूदा नेतृत्व पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं। जानकारों को लगता है कि ये सब आसन्न संकट के संकेत हैं। मध्यप्रदेश भाजपा शासित उन प्रदेशों में से है जहां अब तक राजनीतिक नेतृत्व में लम्बे अरसे से बदलाव नहीं किया गया। जय-पराजय के बावजूद शिवराज सिंह चौहान चौथी बार पार्टी के फौजदार बने हुए हैं।
स्थायित्व के लिहाज से मध्यप्रदेश ने एक कीर्तिमान रचा है, लेकिन इस स्थायित्व की भाजपा के साथ प्रदेश की जनता को एक बड़ी कीमत अदा करना पड़ी है | प्रदेश में सत्ता में हिस्सेदारी मांगने वालों की तादाद लगातार बढ़ी है,और इसकी पूर्ती के लिए लूट-खसोट भी। ये तो मोदी-शाह जोड़ी की मेहरबानी है कि अब तक उसने मध्यप्रदेश को अभयदान दे रखा है लेकिन अब सुगबुगाहट बता रही है कि किसी भी दिन नेतृत्व के बदलाव की खबर आ सकती है।
मध्यप्रदेश में 2018 के विधानसभा चुनाव में ‘ कांग्रेस बनाम भाजपा ‘ के बजाय ‘ महाराज बनाम शिवराज ‘ का नारा चला था। इस चुनाव में शिवराज की पराजय हुई थी और महाराज की जय। नतीजे आने के 18 महीने बाद ही महाराज कांग्रेस से किनारा कर भाजपा की नाव में सवार हुए तो भाजपा की चौथी बार सरकार भी बनी और शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री भी। महाराज या तो टापते रह गए या जोरदारी से मुख्यमंत्री पद पर अपना दावा नहीं ठोंक सके।
अब चंबल,नर्मदा और दूसरी नदियों में तमाम पानी बह चुका है। महाराज राज्यसभा की सीढियाँ चढ़ते हुए केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होकर काफी मजबूत हो चुके हैं। केंद्र में भी उन्होंने अपने लिए संरक्षक तलाश कर लिए हैं,इसलिए बहुत मुमकिन है कि उनका सपना ढाई साल बाद अब पूरा हो जाये। महाराज यानी ज्योतिरादित्य सिंधिया को उनके समर्थक भी मुख्यमंत्री बना देखना चाहते हैं। हालाँकि ये सपना केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और प्रदेश के गृहमंत्री डॉ नरोत्तम मिश्रा के अलावा पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय का भी है और बहुत पुराना सपना है।
पिछले दिनों भोपाल में केंद्रीय गृह मंत्री अमितशाह के दौरे और केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के इंदौर दौरे ने भाजपा कार्यकर्ताओं के मन में लड्डू फोड़े हैं। सबको लग रहा है कि शिवराज सिंह चौहान अब गए कि तब गए। ये बात और है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान शायद अभी कहीं नहीं गए हैं। वे प्रदेश भाजपा के एक सर्वमान्य और दम्भ रहित नेता हैं। उनके पास चौथी पारी में भी पार्टी के तमाम नेताओं का बहुमत है किन्तु यदि हाईकमान ठान ले तो बहुमत का कोई मोल नहीं रह जाता।
भाजपा का इतिहास बताता है कि नेतृव परिवर्तन के मामले में यहां बेरहमी भी उदारता जैसी ही है। गुजरात,कर्नाटक,और उत्तराखंड में भाजपा ने अपनी पार्टी के मुख्यमंत्रियों को बिना कोई देर किये बदल दिया था। मध्यप्रदेश में भी यही सब हो जाये तो हैरानी की बात नहीं है। पार्टी हाईकमान को लगने लगा है कि अब अगली बाजी जीतना शिवराज सिंह चौहान के बूते की बात नहीं है। शिवराज सिंह चौहान का जादू अब जनता के सर चढ़कर नहीं बोल रहा ,यानि जादू बेअसर हो चुका है।
अगले साल होने वाले राज्य विधानसभा चुनावों के फौरन बाद आम चुनाव में मध्य्प्रदेश से भाजपा की विजय बहुत जरूरी है। मध्यप्रदेश से लोकसभा में भाजपा को झोली भर के सीटें मिलती हैं,यदि विधानसभा चुनाव में नतीजे अपेक्षा के अनुसार न आये तो लोकसभा के चुनाव परिणाम भी प्रभावित हो सकते हैं। इस बार भाजपा ये जोखिम नहीं लेना चाहती। इसलिए मुमकिन है कि नेतृत्व परिवर्तन कर दिया जाये। चौहान को पहले ही पार्टी के संसदीय बोर्ड और चुनाव अभियान से अलग कर इस बात के संकेत दे दिए गए हैं कि वे अब पार्टी के लिए पहले जितने महत्वपूर्ण नहीं रहे।
हाल ही में स्थानीय निकाय और पंचायत चुनावों में हालांकि भाजपा जीत के दावे कर रही है किन्तु सब जानते हैं कि भाजपा की स्थिति पहले के मुकाबले कमजोर हुई है। कांग्रेस ने अनेक शहरों में आधी सदी बाद चुनाव जीते हैं। कहने को ये मामूली बात है लेकिन ये चुनाव परिणाम इस बात का संकेत भी देते हैं। कि भाजपा के दुर्ग की ईंटो में नौना [जंग] लग चुका है। भाजपा के सामने अब एक ही विकल्प है कि वो अपने किले की मरम्मत करे .खराब हो चुकी ईंटों को बदले ताकि एक बार फिर उसे पराजय का सामना न करना पड़े।
भाजपा चाहकर भी बीते आठ साल में राजस्थान और छत्तीसगढ़ की सत्ता नहीं हथिया सकी। उत्तरप्रदेश ने जरूर उसे निराश नहीं किया,किन्तु अकेले उत्तर प्रदेश के सहारे तो 2024 की जंग जीती नहीं जा सकती। हाल ही में बिहार में सत्ता से बाहर की जा चुकी भाजपा के लिए अब ये समर बहुत कठिन हो गया है। मध्यप्रदेश में भी गड़बड़ न हो इसके लिए अभी से इंतजाम करना अपरिहार्य हो गया है। संकेत मिल रहे हैं कि राज्य की राजनीति से हमेशा बचने वाले सिंधिया अबकी प्रदेश की राजनीति में उतरने के लिए मन बना चुके हैं।
प्रदेश की राजनीति में सक्रिय होने से पहले सिंधिया का कैलाश विजयवर्गीय के घर जाकर हाजरी देना इसी बात का संकेत है। अन्यथा सब जानते हैं कि एक जमाने में कैलाश विजयवर्गीय ने सिंधिया के लिए इंदौर में क्रिकेट की राजनीति में कितनी मुश्किलें खड़ी की थीं? सिंधिया जानते हैं कि समय प्रदेश में कैलाश विजयवर्गीय की ही धमक एक विरोधी नेता के रूप में है। नरेंद्र सिंह को वे शायद चुनौती नहीं मानते ,क्योंकि नरेंद्र सिंह कभी खुलकर बागी नहीं हुए। वे वैसे भी महल का अपना पुराना उत्पाद हैं इसलिए शायद महल के नमक का लिहाज कर हमेशा की तरह चुप ही रहें।
मुझे याद है कि जब राजनाथ सिंह पार्टी के अध्यक्ष थे तब उन्होंने नरेंद्र सिंह तोमर को प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने का अथक प्रयास किया था। एक बार तो मुन्ना भैया सूट-बूट पहनकर दिल्ली से आशीर्वाद लेने ग्वालियर से निकल भी पड़े थे किन्तु उन्हें आगरा से ही बैरंग लौटा दिया गया था। उनके नसीब में शायद मुख्यमंत्री पद न पहले था और न अब है। पहले कोई और प्रतिद्वंदी था ,अब कोई और प्रतिद्वंदी है। कुल मिलाकर द्वन्द जारी है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)