शंखनाद तो हो चुका, क्या नई BJP को पुरानी भाजपा ही देगी चुनौती?

2018 के बाद 32 विधायक पाला बदल भाजपा में शामिल, दमोह से शुरू हुआ विरोध बड़ी चुनौती।

भोपाल (जोशहोश डेस्क) बसपा विधायक संजीव कुशवाह, सपा विधायक प्रमोद शुक्ल और निर्दलीय चुनाव जीते विक्रम सिंह राणा के पाला बदलने के बाद तीनों ही विधायकों का अब भाजपा की ओर से विधानसभा चुनाव में उतरना तय माना जा रहा है। दूसरी ओर भाजपा में दूसरे दलों से बड़ी संख्या में आयातित विधायकों का खुलकर विरोध होने लगा है। यह विरोध भाजपा के लिए बड़ी चुनौती भी बनता दिखाई देने लगा है।

राष्ट्रपति चुनाव से पहले तीन विधायकों को पार्टी में लाकर प्रदेश भाजपा के शीर्ष नेता अभी अपनी पीठ भले ही थपथपा रहे हों लेकिन इस आयातित नीति का दमोह से शुरू हुआ विरोध राज्य की अन्य सीटों को भी प्रभावित कर सकता है। इस खतरे से अभी तो शीर्ष नेता बेखबर दिखाई दे रहे हैं।

सियासी गलियारों में यह चर्चा है कि दलबदल के इस कीचड़ में कमल खिलाने की कोशिश भाजपा को तात्कालिक ताकत भले ही दे दे लेकिन भविष्य में यह भाजपा के लिए भारी पड़ेगी।

दमोह में राहुल लोधी को कांग्रेस से लाकर भाजपा के टिकट पर लड़वाने और दशकों से पार्टी के लिए समर्पित मलैया परिवार की उपेक्षा के चलते ही उपचुनाव में भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा था। इस हार ने भाजपा की अन्तर्कलह को सतह पर ला दिया था। दलबदलु राहुल लोधी के लिए सात बार के विधायक और पूर्व मंत्री जयंत मलैया की निष्ठा पर सवाल उठाने का भाजपा में ही विरोध हुआ था और पार्टी के अधिकाँश उपेक्षित और सीनियर नेता जयंत मलैया के समर्थन में नज़र आये थे।

तीन विधायकों के आने से दो दिन पहले ही दमोह उपचुनाव में पार्टी विरोधी गतिविधियों के आरोप में करीब सवा साल से सस्पेंड जयंत मलैया के बेटे सिद्धार्थ के पार्टी से इस्तीफे को अभी भले ही बहुत सुर्खियां न मिली हों लेकिन ये भाजपा के लिए बड़ा सन्देश जरूर है। जयंत मलैया के बेटे सिद्धार्थ निकाय चुनाव में अपने समर्थकों को निर्दलीय लड़ाने का ऐलान खुलेआम कर चुके है। यहां तक कि सिदार्थ के पिता जयंत मलैया ने भी इस कदम का विरोध नहीं किया है। फिलहाल दमोह में इसका नुकसान तो पार्टी को उठाना पड़ेगा।

साल 2018 के विधानसभा चुनाव के बाद अब तक 32 विधायक पाला बदल भाजपा में शामिल हो चुके हैं। इनमें ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ भाजपा में आए 21 विधायक भी हैं। इन विधायकों के इलाके के भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं को अपनी विचारधारा से समझौता कर न सिर्फ इनके साथ खड़ा होना पड़ा बल्कि इनके लिए चुनावी मोर्चा तक संभालना पड़ा। जोबट और पृथ्वीपुर उपचुनाव में भी भाजपा कार्यकर्ताओं ने दलबदलु उम्मीदवारों के लिए ही पसीना बहाया था।

इसमें कोई दो राय नहीं कि भाजपा की सबसे बड़ी ताकत उसका संगठन और संगठन के लिए समर्पित कार्यकर्ता ही है। ऐसे में सवाल यह है कि आखिर कब तक अनुशासन के डंडे की दम पर भाजपा नेता और कार्यकर्ता दलबदलुओं के लिए अपनी विचारधारा और भविष्य से समझौता करते रहेंगे। सियासी गलियारों में यह चर्चा है कि आज नहीं तो कल पार्टी में यह विरोध मुखर होगा और नई भाजपा के लिए पुरानी भाजपा ही चुनौती बन जाएगी जिसकी शुरुआत दमोह से हो चुकी है।

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