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पत्रकार शेखर गुप्ता ने क्यों कहा- भाजपा सत्ता के अहंकार में चूर…

पत्रकार शेखर गुप्ता ने लिखा- मोदी सरकार ने नहीं किया अपेक्षित होमवर्क, कृषि कानूनों को अध्यादेश के रूप में सामने लाना पहली गलती।

नई दिल्ली (जोशहोश डेस्क) करीब एक साल तक कृषि कानून लागू करने को लेकर सख्त दिखी नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा अचानक ही पीछे हटने को भारतीय राजनीति के साथ ही भाजपा सरकार के लिए दूरगामी परिणामों वाला कदम माना जा रहा है। यही नहीं मीडिया का एक वर्ग जो कृषि कानूनों को लेकर सरकार के पक्ष में थे वह भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस कदम से सकते में है।

प्रधानमंत्री भले ही इस निर्णय को देशहित में बता रहे हों लेकिन यह किसी से छिपा नहीं कि इसके पीछे अगले साल होने वाले पांच राज्यों के चुनाव हैं। पूरा सोशल मीडिया और डिजिटल मीडिया इस बात पर एकमत सा लग रहा है कि सरकार ने चुनावी नफे नुकसान को देखते हुए यह कदम उठाया है। क्योंकि कानूनों की वापसी से पहले न तो किसान संगठनों से चर्चा की बात सामने आई है न ही कैबिनेट की किसी बैठक में ऐसे कोई संकेत मिले।

देश के वरिष्ठ पत्रकार और एडिटर गिल्ड के अध्यक्ष शेखर गुप्ता का कृषि कानूनों की वापसी पर लिखा आलेख भी इस सन्दर्भ बड़े संकेत दे रहा है। उन्होंने अपने ताजे लेख में भाजपा को सत्ता के अहंकार में चूर पार्टी तक कहा है। शेखर गुप्ता फ्री मार्केट इकोनामी और प्राइवेटाइजेशन के हिमायती माने जाते हैं और उन्होंने कृषि कानूनों के फायदे बताते हुए इन्हे देश के लिए फायदेमंद भी बताया था।

शेखर गुप्ता ने अपने लेख में जिक्र किया है कि देश एक विभिन्न विचारधाराओं और विभिन्न राज्यों का एक संघ है। इसमें शासक के लिए अपनी नीति से जनता को आश्वस्त करना बेहद जरूरी है लेकिन कृषि कानूनों के संदर्भ में यह नीति प्रारंभ से ही देखने को नहीं मिली। शेखर गुप्ता ने यहां तक कहा कि कृषि कानूनों के साथ पहली गलती इन्हें अध्यादेश के रूप में सामने लाना था।

शेखर गुप्ता ने यह भी लिखा कि कृषि क्षेत्र में बड़े सुधार का दावा करने वाले इन कानूनों को लेकर मोदी सरकार ने अपेक्षित होमवर्क भी नहीं किया। दूसरी बार और अधिक बहुमत के बाद आई मोदी सरकार सत्ता के नशे में चूर सी दिखी और इस बार किसी विषय पर आंतरिक चर्चा या असहमति के लिए सरकार में कोई स्थान नहीं दिखा। यही कारण रहा कि उत्तर भारत के अकेले राज्य पंजाब में जहां मोदी मैजिक दिखाई नहीं दिया था और जो कृषि कानूनों से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाला था वहां इसके असर को अनदेखा किया गया।

शेखर गुप्ता के इतर पत्रकारिता के एक बड़े वर्ग जिसको यह लगता था कि भाजपा ही भारत सरकार है और भाजपा ही भारत है और प्रधानमंत्री मोदी का हर कदम देश हित में है इसलिए उसको डिफेंड किया जाना चाहिए उस मीडिया के लिए अब यह निर्णय गले की फांस जैसा बन गया है।

मोदी सरकार के समर्थन में दिखने वाले पत्रकार भी कमोबेश यह मान रहे हैं कि इस निर्णय से प्रधानमंत्री मोदी की सख्त और कड़े निर्णय लेने वाली छवि को नुकसान हुआ है।

एनडीटीवी के एंकर अखिलेश शर्मा ने इस फैसले को लेकर लिखा कि- भारत में सुधारों की राह बहुत कठिन है। तीन सौ सांसद वाली पार्टी भी हिचकोले खाने लगती है। हैरानी होती है कि कैसे नरसिंह राव की अल्पमत सरकार ने इतने बड़े आर्थिक सुधार कर दिए थे।

गौरतलब है कि मोदी सरकार के मंत्री, भाजपा नेता और उनके समर्थक लगातार किसान आंदोलन को बदनाम करते हुए किसानों को देशद्रोही आतंकवादी खालिस्तानी और अन्य अनर्गल संबोधन से नवाज रहे थे। अगर अब प्रधानमंत्री किसान आंदोलन को लेकर संवेदनशील होने की बात कहते हैं तो यह अब तक देशद्रोही बताए जा रहे किसानों के लिए दोहरी बात करने जैसा ही है।

साथ ही यह भी कहा जा रहा है कि जब आंदोलन के दौरान करीब 600 से ज्यादा मौतों पर संवेदनशीलता नहीं बरती गई तो अब अचानक ये संवेदनशीलता कहां से पैदा हो गई? कुल मिलाकर किसान आंदोलन के कररब एक साल बाद और पांच राज्यों में जब चुनाव में छह महीने से भी कम का वक्त बचा हो उस समय मोदी सरकार और सरकार समर्थक मीडिया के लिए कृषि कानूनों की वापसी के निर्णय को देशहित या किसानहित में साबित करना आसान नहीं होगा।

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