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उत्तराखंड: BJP आलाकमान ‘अदूरदर्शी ‘ या खास कारण से गई तीरथ की ‘कुर्सी ‘ ?

तीरथ सिंह ने संवैधानिक संकट का हवाला देते हुए पद से इस्तीफा दिया। संवैधानिक संकट का यह राग गले नहीं उतर रहा।

देहरादून (जोशहोश डेस्क) केवल 115 दिन में उत्तराखंड में मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत की विदाई हो गई। तीरथ सिंह ने संवैधानिक संकट का हवाला देते हुए पद से इस्तीफा दिया। संवैधानिक संकट का यह राग गले नहीं उतर रहा क्योंकि चुनाव आयोग ने अब तक एक बार भी ऐसा नहीं कहा कि वह अगले दो महीनों में राज्यों में उपचुनाव कराने को तैयार नहीं है। इस बात पर भी यकीन नहीं किया जा सकता है कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने तीरथ सिंह को छह महीने में विधानसभा चुनाव जिताना जरूरी नहीं समझा हो।

तीरथ सिंह के इस्तीफे के बाद कई सवाल उठ रहे हैं। पहला यह कि तीरथ सिह को मुख्यमंत्री बने रहने के लिए 10 सितंबर से पहले विधानसभा चुनाव जीतना था। क्या यह बात तीरथ सिह को मुख्यमंत्री बनाने समय भाजपा आलाकमान नहीं जानता था? अगर जानता था तो उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद उत्तराखंड की सल्ट विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में तीरथ सिंह को ही पार्टी ने चुनाव में क्यों नहीं उतारा? भाजपा आलाकमान ने अगले उपचुनाव तक के लिए इंतज़ार क्यों किया?

दूसरा सवाल यह है कि जब चुनाव आयोग ने उपचुनाव न कराने का कोई संकेत नहीं दिया तो भाजपा आलाकमान ने कैसे मान लिया कि तीरथ सिंह के लिए संवैधानिक संकट उत्पन्न हो गया है? वह भी तब जबकि दस सितंबर आने में ही अभी दो महीने से ज्यादा का समय बाकी है? सवाल यह भी है कि अगर संवैधानिक संकट था भी तो दो महीने पहले ही तीरथ सिंह ने इस्तीफा क्यों दिया? अंतिम वक्त तक चुनाव आयोग के निर्णय का इंतजार क्यों नहीं किया? जबकि राज्य विधानसभा के कार्यकाल में अभी एक साल से ज्यादा का समय बचा हुआ है।

भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा के साथ तीरथ सिंह रावत (फाइल फोटो)

सवाल यह भी है भाजपा और तीरथ सिंह ने किस आधार पर यह मान लिया कि जो चुनाव आयोग कोरोना की दूसरी लहर के बीच पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव समेत राज्यों में उपचुनाव करा सकता है वह लहर थमने के बाद भी उपचुनाव नहीं कराएगा?

भाजपा राज्य इकाई के नेता यह भी कह रहे हैं कि चुनाव आयोग ने लिख कर दिया कि कोरोना के कारण एक साल तक चुनाव नहीं कराए जा सकते जबकि चुनाव आयोग के सूत्र यह कह रहे हैं कि उसे चुनाव कराने को कहा ही नहीं गया। अब अगर भाजपा राज्य इकाई के नेता सच कह रहे हैं तो वे चुनाव आयोग के लिखे को सार्वजनिक कर दूध का दूध और पानी का पानी क्यों नहीं करते?

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि भाजपा आलाकमान इतना अज्ञानी तो नहीं कि छह महीने में उपचुनाव की अनिवार्यता को न समझ पाया हो और उसे अपने मुख्यमंत्री को संवैधानिक संकट के चलते हटाना पड़े। निश्चित ही इस पूरे घटनाक्रम के पीछे कहानी कुछ और ही है।

दरअसल तीरथ सिंह अपने चार महीने के कार्यकाल में भाजपा संगठन की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे। बेतुके बयानों और कुंभ में हुई किरकिरी ने बची खुची कसर भी पूरी कर दी। ऐसे में भाजपा संगठन के पास विधानसभा चुनाव में अपनी उम्मीदों को बनाए रखने के लिए चेहरा बदलने का विकल्प ही बचा था। साथ ही तीरथ की कुर्बानी से चुनाव आयोग को भी एक खास संदेश दे दिया गया है जिसका असर पश्चिम बंगाल में ममता बैनर्जी की कुर्सी पर भी पड़ सकता है। हालाँकि ममता बैनर्जी के सामने अभी काफी समय शेष है।

कुल मिलाकर तीरथ सिंह रावत की कुर्बानी ने भाजपा ने एक तीर से दो निशाने साधे हैं। जिसमें उसकी पहली प्राथमिकता तो अगले विधानसभा चुनाव से पहले मुख्यमंत्री का चेहरा बदल अब तक के कार्यकाल की नाकामियों पर पर्दा डालना था लेकिन सवाल यह है कि अगर भाजपा को 115 दिन बाद दोबारा चेहरा ही बदलना था तो इसके लिए तथाकथित संवैधानिक संकट की कपोल कल्पित पटकथा क्यों गढ़ी गई? हालांकि चार महीने में ही दूसरी बार मुख्यमंत्री को बदलने से यह जरूर साबित हो गया कि पूर्ण बहुमत मिलने के बाद भी भाजपा आलाकमान अपनी और राज्य की अपेक्षा के अनुरूप मुख्यमंत्री के चयन में दोनों बार विफल रहा।

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