राहुल गांधी की पदयात्रा में हिस्सा मांग रहे अपने पांव खो चुके कामरेड

अभी दो महीने पहले तक सब राजनीतिक दल हाथ पर हाथ धरे बैठे थे। जैसे ही राहुल गांधी ने चलने की ठान ली तो कामरेड कह रहे हैं -हमें भी आगे चलने दो ।

जबसे भाजपा की सरकार चल रही है तभी से कुछ बुझे हुए कामरेडों ने भोपाल के गांधीभवन के मोहनिया सभागार को अपने तात्कालिक भाषण देने का अड्डा बना लिया है। वे चाहे जब एक सभा बुलाते हैं। जिसमें एक सैकड़ा चेहरे आकर कुर्सियों से चिपक जाते हैं। ये चेहरे बदलते नहीं, हर बार वही होते हैं। मंच पर भी वही तीन-चार ऊबे हुए कामरेड विराजते हैं और अपनी पीठ से महात्मा गांधी का चित्र छिपाकर दूसरे राजनीतिक दलों के क्रियाकलापों के निहितार्थ खोजते हुए विलाप करने लगते हैं। स्थायी श्रोता हर बार खाली हाथ घर लौट जाते हैं।

कल ही एक सभा फिर बुलायी गयी। जिसमें राहुल गांधी की पदयात्रा के निहितार्थ उस मोड़ पर खोजे जाने लगे जब यह यात्रा हिंदी प्रदेशों में प्रवेश करने वाली है। श्रोताओं को लगा कि जैसे मंच पर गहन-गंभीर वैचारिक बदरिया बरसने वाली है। पर हवाई बातचीत शुरू होते ही वह न जाने कहाॅं उड़ गयी। कामरेड के भाषण का सार बस इतना ही निकला कि उन्हें भी इस पदयात्रा में हिस्सेदारी मिले। आगे-आगे चलते राहुल गांधी हमें भी आगे चलने दें और हमारे पीछे चलें।

ध्रुव शुक्ल

कितनी अजीब बात है कि अभी दो महीने पहले तक कोई भी आगे चलने को तैयार नहीं था। कामरेडों सहित सब राजनीतिक दल हाथ पर हाथ धरे बैठे थे। जैसे ही राहुल गांधी ने चलने की ठान ली तो अब कामरेड कह रहे हैं कि हमें भी आगे चलने दो और तुम पीछे चलो। अपना राजनीतिक हिस्सा माॅंगकर काबिज होने की कामरेडों की यह आदत नयी नहीं है। इतिहास में बहुत पीछे न जायें तो इंदिरा गांधी के जमाने से कामरेडों का सत्ताकामी निहितार्थ किसी से छिपा नहीं है।

सभा प्रारंभ होते ही एक कामरेड ने पहले तो यह स्वीकार किया कि हमारे नहीं, गांधी और नेहरू के धर्मनिरपेक्ष विचार ही ज्यादा ठीक हैं। फिर एक और आया, जो राहुल गांधी की पदयात्रा में शामिल है। उसने तो साफ कह दिया कि इस यात्रा का क्या परिणाम होगा, मेरी बला से। अब जरा इन कामरेडों के अंतर्द्वन्द्व का निहितार्थ खोजा जाये तो उनकी स्वीकारोक्ति के आधार पर यही निष्कर्ष निकलेगा कि इनकी धर्मनिरपेक्षता अविश्वस्नीय है। गांधी-नेहरू का अपनाया हुआ रास्ता ही ठीक है। तब फिर राहुल गांधी कामरेडों को आगे क्यों चलने दें? जब उनके पीछे चलते हुए कामरेड भारत जोड़ो यात्रा को लेकर ख़ुद ही संशय से भरे हैं और कह रहे हैं कि मेरी बला से। तो फिर वे राहुल गांधी के आगे चलने का सपना क्यों देख रहे हैं?

भारत में अचूक अवसरवादी कामरेडों के होने का यही निहितार्थ रह गया है कि — मुट्ठी भी तनी रहे और काॅंख भी ढकी रहे। आश्चर्य होता है कि वे पदयात्रा में काॅंग्रेस के पाॅंवों से अपने पैदल चलने का हिस्सा माॅंग रहे हैं। कामरेड अपने पाॅंव खो चुके हैं।

(लेखक- कवि, कथाकार और विचारक हैं)

Exit mobile version