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अनुभवी कप्तान के सवाल- युवा बाबुल का संन्यास ? BJP के लिए क्या है मायने?

भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व का दबदबा अब पहले जैसा तो दिखाई नहीं दे रहा है।

नई दिल्ली/ भोपाल (जोशहोश डेस्क) बीते सप्ताह एक ही दिन भारतीय जनता पार्टी की सियासत से जुड़ी दो अहम घटनाएं हुईं। शनिवार को पश्चिम बंगाल में जड़े जमाने को आतुर भाजपा को पूर्व केंद्रीय मंत्री बाबुल सुप्रियो के संन्यास से बड़ा झटका लगा। इसके बाद भाजपा के वरिष्ठ नेता कप्तान सिंह सोलंकी ने अपनी ही सरकार के निर्णयों पर सवाल उठा दिए।

अगर इन दोनों घटनाओं में चार महीने में तीन मुख्यमंत्रियों को बदले जाने और भाजपा शासित असम और मिजोरम के बीच चल रहे सीमा विवाद को भी जोड़ दिया जाए तो यह साफ हो जाता है कि भाजपा में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है।

शनिवार को मध्यप्रदेश भाजपा के संगठन मंत्री और हरियाणा के राज्यपाल रह चुके कप्तान सिंह सोलंकी ने केंद्र सरकार के मेडिकल में पिछड़ा वर्ग को आरक्षण के फैसले पर सवाल उठाया। उन्होंने दो ट्वीट किए

कप्तान सिंह सोलंकी पेगासस जासूसी मामले में भी असलियत का ख़ुलासा करना सरकार का दायित्व बता चुके हैं-

इससे पहले बाबुल सुप्रियो के राजनीति से संन्यास से पश्चिम बंगाल में भाजपा की अंदरूनी राजनीति की कलई खोल दी। बाबुल सुप्रिया ने स्वयं सोशल मीडिया पर चुनाव से पहले ही राज्य इकाई के साथ मतभेदों की बात को स्वीकार किया है।

राज्य इकाई में भाजपा के मूल कार्यकर्ता पहले ही आलाकमान द्वारा टीएमसी से आए शुभेंदु अधिकारी को अधिक महत्व दिए जाने से खफा बताए जा रहे थे। चुनाव में मिली करारी शिकस्त के बाद मुकुल राॅय की टीमएमसी में वापसी इसका प्रमाण भी है। मुकुल राय की घर वापसी के बाद भाजपा में बड़ी फूट की आशंका बनी हुई है ऐसे में अब बाबुल सुप्रियो के संन्यास के ऐलान ने राज्य में भाजपा की उम्मीदों को तगड़ा झटका दिया है।

भाजपा की सबसे ज्यादा किरकिरी तो उत्तराखंड में हुई है। महज तीन महीने में दो मुख्यमंत्री बदलने से यह साफ हो गया कि स्पष्ट बहुमत के बाद भी राज्य को एक ऐसा नेतृत्व नहीं मिला जो जनमत और आलाकमान दोनों की अपेक्षाओं पर खरा उतरा हो। अब नए मुख्यमंत्री पुष्कर धामी के नेतृत्व में विधानसभा चुनाव में पार्टी अपना प्रदर्शन दोहराने उतरेगी।

कर्नाटक में भी आलाकमान नेतृत्व परिवर्तन की कवायद में सफल भले ही हुआ हो लेकिन जिस तरह इस्तीफ़ा देते हुए येदियुरप्पा की आंखों से आंसू झलक पड़े थे वह इस बात का प्रमाण है कि उन पर इस्तीफे का दबाव था। हालांकि इस्तीफे से पहले उन्होंने लिंगायत मठों के माध्यम से अपनी ताकत आलाकमान को दिखा दी थी। यही कारण रहा कि आलाकमान को भी येदियुरप्पा के करीबी और लिंगायत समुदाय के ही बसवराज बोम्मई के नाम पर मुहर लगानी पड़ी।

उत्तर प्रदेश के हालात भी बहुत मुफीद नहीं दिख रहे। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के खिलाफ बड़ी संख्या में भाजपा विधायक एकजुट हो चुके हैं। आलाकमान की सक्रियता और संघ के हस्तक्षेप से मामला भले ही शांत हुआ हो लेकिन अब भी उपमुख्यमंत्री केशवप्रसाद मौर्य के बयान इस बात का संकेत दे देते हैं कि चुनाव में चेहरे को लेकर अब भी पार्टी में एकराय नहीं है।

कुछ ऐसा ही हाल राजस्थान में भी है। विधानसभा चुनाव के पहले से ही वसुंधरा राजे सिंधिया आलाकमान को चुनौतियां देती दिख रहीं थीं। चुनावी हार के बाद आलाकमान राज्य में वसुंधरा का विकल्प तैयार करने की तैयारी में तो हैं लेकिन वसुंधरा समय-समय पर अपनी ताकत दिखाते हुए अभी भी बड़ा सवाल बनी हुई हैं।

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