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राष्ट्रपति चुनाव: समर्थन तय फिर भी प्रचार, कितना और कौन कर रहा खर्च?

राष्ट्रपति चुनाव के संदर्भ में वरिष्ठ पत्रकार राकेश अचल का आलेख

राष्ट्रपति चुनाव के लिए मतदान में अब कुछ ही दिन बाक़ी हैं लेकिन अब तक देश की जनता को ये नहीं पता कि राष्ट्रपति चुनाव के समय देश में कोई आदर्श आचार संहिता क्यों लागू नहीं होती? राष्ट्रपति पद के प्रत्याशियों के के चुनाव प्रचार पर कितना खर्च होता है और कौन करता है? बहुत दिनों बाद राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी अपने लिए समर्थन मांगते फिर रहे हैं जबकि उन्हें पता है कि उनके लिए वोटों का इंतजाम पहले ही हो गया है।

राष्ट्रपति का चुनाव पानी में कागज की नाव तैराने जैसा है। सत्तारूढ़ दल के प्रत्याशी की जीत पहले से तय होती है लेकिन विपक्ष राष्ट्रपति चुनाव को निर्विरोध नहीं होने देता इसलिए अपना प्रत्याशी खड़ा करता है। अनेक अवसरों पर इस पद के लिए सर्वसम्मति से भी चुनाव होता है। विपक्ष का प्रत्याशी हारता है लेकिन इस बहाने विपक्ष सत्ता पक्ष पर जितने हमले कर सकता है,करता है और करना भी चाहिए। भारत में राष्ट्रपति की हैसियत अमेरिका के राष्ट्रपति जैसी नहीं होती इसलिए उसे ‘ रबर स्टाम्प ‘ कहा जाता है लेकिन इस बार रबर स्टाम्प के इस चुनाव में विपक्ष का प्रत्याशी एक मंजा हुआ खिलाड़ी है इसलिए सत्तारूढ़ दल के प्रत्याशी की जीत सुनिश्चित होते हुए भी चुनाव का रंग बदला हुआ है।

विपक्ष के प्रत्याशी यशवंत सिन्हा पूर्व नौकरशाह भी हैं और पूर्व केंद्रीय मंत्री भी। एक जमाने में भाजपा में उनकी ख़ास अहमियत थी लेकिन बाद में उन्हें मार्गदर्शक मंडल में डालकर महत्वहीन कर दिया गया, किन्तु सिन्हा की महत्वाकांक्षा नहीं मरी और उन्होंने भाजपा के मौजूदा नेतृत्व से दो-दो हाथ करने की ठान ली। उन्होंने ऐसा किया भी लेकिन उन्हें अपेक्षित कामयाबी नहीं मिली। पूर्व वित्त मंत्री के नाते उनके पास सत्तारूढ़ दल और सरकार की आलोचना के लिए उनके ठोस आधार थे इसलिए उन्होंने अपना अभियान जारी रखा और विपक्ष ने जब उन्हें राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी के रूप में चुना तो उनका काम और आसान हो गया।

राकेश अचल

ये पहला मौक़ा है जब विपक्ष की और से राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी यशवंत सिन्हा खुलकर कह रहे हैं कि यदि उन्हें राष्ट्रपति चुना जाये तो वे क्या करेंगे और क्या नहीं करेंगे ? इस चुनाव से पहले किसी भी राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी ने राजनीतिक बातें नहीं की। सिन्हा विवादित सभी मुद्दों पर बोल रहे हैं। वे लगातार सवाल भी कर रहे हैं। इस कारण सत्तापक्ष के लिए चुनाव लगातार असहज हो रहा है। सिन्हा जहां-जहां जा रहे हैं,वहां-वहां सत्तापक्ष की उम्मीदवार श्रीमती द्रोपदी मुर्मू को भी जाना पड़ रहा है। वे अपने विरोधी के एक भी सवाल का उत्तर देने की स्थिति में नहीं हैं। वे देश से कोई वादा करने की स्थिति में भी नहीं हैं। ये सब काम सत्तारूढ़ दल और उसके नेताओं के जिम्मे है।
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योग्यता और अनुभव के आधार पर यदि गैर राजनीतिक आधार पर राष्ट्रपति पद के चुनाव होते तो तय था कि विपक्ष के उम्मीदवार हर पैमाने पर सत्ता पक्ष के उम्मीदवार से 22 बैठते ,लेकिन न ऐसा हो रहा है और न ऐसा होता है। अपवादों को छोड़कर अतीत में भी ऐसा कभी नहीं हुआ। .सत्तापक्ष की और से राष्ट्रपति की उम्मीदवार को उनकी जाति के आधार पर राजनीतिक रूप से प्रतिष्ठित किया जा रहा है। लगता है जैसे मुर्मू जी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाकर उसने देश के आदिवासियों पर कोई बड़ा अहसान कर दिया है। सरकार श्रीमती मुर्मू को तुरुप के एक पत्ते की तरह आने वाले दिनों के लिए इस्तेमाल कर रही है .ऐसा करने का उसे अधिकार भी है ,यदि कोई इसे नैतिकता या अनैतिकता से जोड़ता है तो गलत है।

सवाल ये है कि सत्तापक्ष और विपक्ष के राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी देशभर में प्रचार के लिए क्यों निकले हैं। इनके प्रचार का खर्च कौन कर रहा है, क्या चुनाव आयोग ने इस चुनाव के लिए भी खर्च की कोई सीमा बांधी है ? क्या इस चुनाव प्रचार की सचमुच कोई जरूरत है? क्या दोनों दलों के प्रत्याशी टीवी के जरिये इस काम को नहीं कर सकते थे? आखिर राष्ट्रपति चुनाव को दूसरे चुनावों की तरह छिछला क्यों किया जा रहा है? क्यों बार -बार उन बातों को दोहराया जा रहा है जो इस महत्वपूर्ण चुनाव की मर्यादा को नष्ट कर रही हैं।
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राष्ट्रपति का चुनाव विधायकों और सांसदों को करना है.आम जनता का इससे कोई लेना देना नहीं है। सांसदों और विधायकों को पता है कि उन्हें वोट किसे देना है तो फिर इतनी कवायद क्यों? क्यों दोनों प्रत्याशी हवाई जहाज को स्कूटर की तरह जोत रहे हैं? देश का पन्द्रहवाँ राष्ट्रपति कैसा हो? ऐसा कोई नारा कभी नहीं दिया गया। राष्ट्रपति चुनाव में ‘आत्मा की आवाज’ पर भी मतदान की अपील केवल एक बार की गयी। अब जब इस चुनाव का आत्मा की आवाज से कोई रिश्ता ही नहीं है तो काहे को प्रहसन को इतना लंबा और मंहगा बनाया जा रहा है?

भाजपा ने पिछली बार जो राष्ट्र्पति देश को दिया वो दूसरे पूर्व राष्ट्रपतियों के मुकाबले कुछ ज्यादा ही ‘बेचारा’ साबित हुआ। जाते हुए राष्ट्रपति को ‘ रबर स्टाम्प ‘ से भी कम सम्मान मिला। पांच साल में उन्हें देश के पंतप्रधान ने पांच बार भी विदेश जाने से पहले और आने के बाद रिपोर्ट नहीं किया। वे सामान्य शिष्टाचार से भी वंचित रहे। अतीत में ऐसा कभी नहीं हुआ,हालाँकि बहुत से पूर्व राष्ट्रपति ‘ रबर स्टाम्प ‘ की तरह ही आये और गए लेकिन उनकी व्यक्तिगत छवि ने उन्हें हमेशा महत्वपूर्ण बनाये रखा। श्रीमती मुर्मू कैसी राष्ट्रपति साबित होंगी ये उन्होंने सिन्हा की तरह खुलकर कभी बताया नहीं,उन्होंने अपनी और से सिर्फ इतना कहा है कि उनके आगे-पीछे कोई है नहीं इसलिए देश ही उनके लिए सब कुछ है। ये एक भावुकता से भरा वक्तव्य है और मै इसका निजी तौर पर सम्मान करता हूँ ,लेकिन बेहतर होता कि वे भी यशवंत सिन्हा की तरह राष्ट्रपति की भूमिका के बारे में कुछ संकेत देतीं।

देश का राष्ट्रपति किस जाति और वर्ग से है ये महत्वपूर्ण नहीं होता,नहीं होना चाहिए। महत्वपूर्ण ये है कि उसकी योग्यता और अनुभव के साथ है जनमानस में उसकी छवि कैसी है? दुर्भाग्य ये है कि भाजपा ने दोनों अवसरों पर राष्ट्रपति पद के लिए ऐसे प्रत्याशियों को मैदान में उतारा जो पहले के राष्ट्रपति प्रत्याशियों की तरह चर्चित और जाने-पहचाने चेहरे नहीं रहे। राष्ट्र निर्माण में उनकी भूमिका सीमित रही। खैर ये भाजपा का अपना और अंदर का मामला है ,इसमें हम बाहर वालों को दखल नहीं देना चाहिए। हम पहले से सत्तारूढ़ दल के प्रत्याशी को अपनी बधाई और विपक्ष के प्रत्याशी को शुभकामनाएं देते हैं। हमें पता है कि इस चुनाव के बहाने भी देश का विपक्ष सत्तापक्ष के अश्वमेघ को नहीं रोक पायेगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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