असगर वजाहत के नाटक को आधार मानकर और स्वतंत्रता संग्राम के कुछ ऐतिहासिक तथ्यों को चुनकर फिल्म-कल्पना करके यह दो घण्टे की फिल्म ‘गांधी-गोडसे: एक युद्ध’ नाम से भले ही राजकुमार संतोषी ने हमें रचकर दिखायी हो पर यह फिल्म गांधी और गोडसे के बीच एक जरूरी संवाद के रूप में ही रची गयी है।
यह फिल्म देश विभाजन और उसके कई दिनों बाद तक फैली हिंसा के उन क्रूर दृश्यों से प्रारंभ होती है जो हमने पहले भी कई बार फिल्मों में ही देखे हैंं। जिनमें दोनों पक्षों की हिंसक वृत्तियां साफ़ नज़र आती हैं। इन दो क्रूर पाटों के बीच फंसे गांधी के आत्मसंघर्ष को इस फिल्म में पहचाना जा सकता है। पर गांधी के इस घायल आत्म को पहचाने बिना गोडसे केवल अपनी जाति के राष्ट्र की पक्षधरता के कारण सबके जीवन को बचाये रखने की कामना से भरे गांधी के प्राण हर लेने को उद्यत है।
इस कल्पित पटकथा में गोडसे की तीनों गोलियों से गांधी नहीं मरते। गोडसे अपने अपराध को स्वीकार करके गर्व करता है और गांधी उसे क्षमा करते हैं। गांधी स्वतंत्रता के बाद बिल्कुल अकेले हैं। वे अब उस कांग्रेस में भी नहीं हैं जिसे उनने संग्राम के लिए तैयार किया था। वे तो उसे भंग करने का प्रस्ताव भी कर बैठे हैं। उनका प्रस्ताव नामंजूर कर दिया गया है। वे अकेले ही अपने ग्राम स्वराज्य के सपने को बुनते हुए तत्कालीन सरकार की नज़रों में खटकने लगे हैं और सरकार उन्हें जेल भी भेज देती है।
गांधी उसी जेल में अपनी सजा काटने की ज़िद ठान लेते हैं जिसमें गोडसे क़ैद है। वे उसके कमरे में उसी के साथ रहते हैं। इस फिल्म में जेल की यह कोठरी गांधी और गोडसे का एक संवाद स्थल बन जाती है। जहां दोनों के बीच राष्ट्र की अवधारणा पर एक संवाद रचा गया है। गोडसे का तर्क है कि राष्ट्र तो केवल हिन्दुओं का होना चाहिए और गांधी इतिहास के साक्ष्य से उसे समझाते हैं कि भारत उन सब लोगों का देश कहलाने से ही एक राष्ट्र कहलायेगा जो यहां सदियों से रह रहे हैं।
यह फिल्म गांधी के विचारों की रौशनी की तरफ़ खिंचते जाते गोडसे के हृदय को भी खोलती है और गांधी के उस खुले हुए हृदय को दिखाती है जिसमें अपने हत्यारे के प्रति असीम करुणा भरी हुई है। फिल्म के अंत में जब एक बार फिर कोई गांधी पर अपनी पिस्तौल तानता है तो गोडसे के गांधी पर ही गोली दागने वाले वही हाथ उस पिस्तौल के रुख को मोड़कर गांधी पर गोली चलने से रोक देते हैं।
गांधी और गोडसे एक साथ जेल से रिहा होते हैं और दोनों फिर उसी दृश्य का सामना करते हैं जहां दोनों के अनुयायी एक-दूसरे को अब भी धिक्कार रहे हैं। वे नहीं जानते कि जेल की उस संकीर्ण कोठरी में गांधी की सोहबत पाकर गोडसे अब गांधी के साथ उस खुले आकाश के तले लौट रहा है जो अपनी छाया में सबको जगह दिए हुए हैं। गांधी और स्त्री के प्रश्न को भी यह फिल्म उठाती ज़रूर है पर उस पर कुछ कहने में समर्थ नहीं हो पायी है।
मैं भोपाल शहर के जिस थियेटर में यह फिल्म देख रहा था उस शो में केवल नौ दर्शक ही थे। यह फिल्म सबको इसलिए देखना चाहिए क्योंकि इसकी पटकथा गांधी और गोडसे के बीच किसी जय-पराजय को स्थापित नहीं करती, वह तो अहिंसा और हिंसा के द्वन्द्व के बीच क्षमा के मूल्य को स्थापित करती है।
(लेखक- कवि, कथाकार और विचारक हैं)