यकीन मानिये आज लिखने का कोई मन नहीं था किन्तु कीर्तिमान बनाये रखने की लिप्सा लिखवा रही है। सोने की चिड़िया भारत अपने पड़ौस में सोने की लंका को धू-धू जलता देख आतंकित भी है और आशंकित भी,लेकिन कर कुछ नहीं पा रही। न जलती हुई सोने की लंका की आग बुझाने का कोई फौरी उपचार भारत के पास है और न खुद लंका के पास। लंका को अकेला लंका कहने में कुछ अटपटा लगता है क्योंकि लंका श्रीविहीन शब्द है। सोने की लंका कहने में एक ऐश्वर्य बोध होता है। लंका का ऐश्वर्य वहां की सरकार के कुप्रबंधन और वंशवाद ने चौपट कर दिया है।
कैसे अविश्वनीय नजारा है की जनादेश से चुने गए राष्ट्रपति अपना आवास छोड़कर अज्ञात स्थान पर भाग गए हैं। नामित प्रधानमंत्री का घर जला दिया गया है। और अब लोग वहां नई व्यवस्था और नई सरकार की प्रतीक्षा कर रहे हैं। जिन हालातों में श्रीलंका जला है, वे सभी हालात सोने की चिड़िया के अपने भारत में भी बने हुए हैं। श्रीलंका की आग की लपटें कब भारत तक पहुँच जाएँ कोई न कह सकता है और न जानता है। भारत के पड़ौसी श्रीलंका का जलना दुर्भागयपूर्ण तो है ही साथ ही एक संकेत भी है कि जनता को दुर्दशा तक पहुँचाने वालों को जनता अंतत: छोड़ती नहीं है,.लतिया देती है।
त्रेता में सोने की लंका तत्कालीन शासकों की हठधर्मिता की वजह से जली थी लेकिन कलियुग की सोने की लंका को आज के शासकों की लापरवाही ने जलाया है। पिछले एक दशक में सोने की लंका का सारा सोना [वैभव] यहां शासन कर रहे राजपक्षे परिवार ने पचा लिया। जनता को अंधभक्त बनाने की कोशिश की और पंथिक धर्मान्धता को बढाकर अपना काम चलने की कोशिशें कीं जो कामयाब नहीं हो सकीं। कर्ज के बोझ और अभावों से घिरे श्रीलंका ने राजपक्षे को ढोने से इंकार कर दिया। जनता की चुप्पी को जो लोग समझ नहीं पाए उन्हें राज प्रासाद छोड़कर भागना पड़ा।
श्रीलंका से हमारा ऐतिहासिक रिश्ता तो है ही एक अच्छे पड़ौसी का रिश्ता भी है। हमारे दक्षिणी तट से श्रीलंका कुल 31 किमी दूर है.श्रीलंका से हमारा रोटी-बेटी का रिश्ता भी है। वहां रहने वाले तमिलों का भारत के तमिलों से वही नाता है जो फिजी ,मारीशस या त्रिनिदाद में रहने वाले भारत वंशियों से है। जब-जब श्रीलंका में जातीय उन्माद बढ़ा और वहां के तमिल इस धार्मिक उन्माद के शिकार हुए उन्होंने भारत का रास्ता पकड़ा। भारत ने भी उन्हें शरण दी। भारत शरण देने की अपनी परम्परा को भूला नहीं है, बस उसने अब शरण देने से पहले शरणार्थी की जाति और धर्म देखना शुरू कर दिया है।
जाहिर है कि श्रीलंका में यदि अमन -चैन नहीं है तो भारत भी चैन से नहीं रह सकता। श्रीलंका सामरिक लिहाज से भी भारत के लिए महत्वपूर्ण है। भारत को इसकी कीमत भी अदा करना पड़ती है, लेकिन श्रीलंका का दूसरा पड़ौसी भारत से ज्यादा चालाक है और उसकी तरफ से श्रीलंका को भारत से ज्यादा इमदाद दी जाने लगी। नतीजा ये हुया कि श्रीलंका भारत के बजाय चीन का आश्रित हो गया। बीते एक दशक में भारत ने श्रीलंका की उतनी खैर-खबर नहीं ली ,जितनी की जरूरी थी। हालाँकि भारत से श्रीलंका के रिश्ते बिगड़े नहीं,क्योंकि संयोग से भारत और श्रीलंका में एक जैसी जुमलेबाज सरकारें हैं।
जलती हुई अतीत की सोने की लंका यानि आज की श्रीलंका में जल्द हालात मामूल पर आएं ये हमारी कामना है,लेकिन श्रीलंका की आंच हमें अपनी लपेट में न ले,ले ये प्रार्थना भी हमें करना पड़ रही है, क्योंकि हमारे यहां भी रुपया अब डालर के मुकाबले इतना ज्यादा लुढ़क चुका है कि यहां भी असंतोष की आग कभी भी भड़क सकती है। जनता को भेड़ समझकर इतना ज्यादा उधेड़ा जा चुका है की अब उसकी खाल से खून छलकने लगा है। जीएसटी की कतरनी कुछ ज्यादा ही पैनी हो गयी है। मंहगाई बेकाबू है ही। देश का आयात बढ़ रहा है और निर्यात लगातार घट रहा है लेकिन हमें कुछ नहीं दिखाई दे रहा। हम केवल नूपुर को बजाने और नूपुर बचाने में लगे हैं।
भारत में कमोवेश परिस्थितयां श्रीलंका जैसी ही हैं। श्रीलंका भारत के लिहाज से एक छोटा देश है,लेकिन आजाद देश है। छोटे या बड़े होने से असंतोष का स्तर कम या ज्यादा नहीं हो जाता। कल्पना कीजिये कि यदि ढाई-तीन करोड़ की आबादी वाले देश अपने राष्ट्रपति को राजप्रासाद से भागने को मजबूर कर सकती है तो 135 करोड़ की आबादी वाले देश में जनआक्रोश क्या नहीं कर सकता? भारत में जनता की लगातार चुप्पी से पंथिक और धार्मिक कटटरता लगातार बढ़ रही है। इस कटटरता के दुष्परिणाम भी सामने आने लगे हैं। अब सहमति और असहमति के बीच युद्ध शुरू हो चुका है। गर्दनें रेती जा रही हैं लेकिन सरकार रामनामी ओढ़े हुए बैठी है। जनादेश का लगातार अपमान किया जा रहा है। जनादेश की खरीद -फरोख्त के जरिये बादशाह बनने की कोशिश कम होने के बजाय बढ़ रही है, जिसे देखकर मन अकुलाता है।
सोने की लंका की तरह सोने की चिड़िया कहा जाने वाला भारत हर अला-बला से महफूज रहे,ये जरूरी है। दुनिया में इस समय जो हालात हैं वे भी बहुत अच्छे नहीं हैं। भारत के मित्र जापान के पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे का कत्ल किया जा चुका है। ब्रिट्रेन में प्रधानमंत्री बोरिस बेकर इस्तीफा दे चुके हैं। रूस -यूक्रेन युद्ध 135 वे दिन में प्रवेश कर चुका है.लेकिन भारत जुमलेबाजी में उलझा है। उसे अपना डंका पीटने से ही फुरसत नहीं है।
भारत में सिएस्ट और समाज के बीच का संवाद बंद है। सौजन्य की जगह नफरत ले चुकी है। विदेशी मुद्रा भण्डार लगातार घट रहा है। विदेशी निवेशक भारत में निवेश करने के बजाय देश से अपनी पूँजी निकालने में लगे हैं,क्योंकि उन्हें भी भारत के श्रीलंका बनने का अंदेशा है लेकिन सत्ताधीश मजे में हैं। उनके मजे में कोई फर्क नहीं पड़ रहा। सत्ता में एक अलग किस्म का वंशवाद पैदा कर दिया गया है। कुल जमा संकेत शुभ नहीं हैं।
भारत की जनता को भारत की यश-कीर्ति का डंका बजाने में कोई उज्र नहीं हो सकता बाशर्त की डंका बजाने की वजहात तो उसके पास हों ! त्रासदियों से घिरी जनता को डंके की आवाज ठीक वैसी लगती है जैसे किसी विधवा को शहनाई की आवाज। उम्मीद कीजिये की श्रीलंका की आग से भारत कुछ न कुछ जरूर सीखेगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)