अंधेरा ही रौशनी: कभी नहीं देखा इतना लज्जित-आत्ममुग्ध समय?
समय-समाज और परिवेश को भरमा रहे वर्तमान राजनीतिक दौर पर सेवाराम त्रिपाठी का आलेख।
अब झूठ बोलना और फेंकना राष्ट्रीय मुहावरा बन चुका है। इसमें कौन सी लाज और काहे की हिचक। जिसके जब जो जी में आता है फेंकना शुरू कर देता है। चाहे प्रधान फेंके या कोई और। दिल प्रायः बचा नहीं, मन के इलाकों से किसिम -किसिम की बदमाशियां थोक में उत्पादित होकर उछल कूद मचा रही हैं और मनमानेपन से अपने लिए अनुकूलन कर रहीं हैं। कौन सा इलाका बचा है, जहां फेंकम फेंक न मची हो । मन हर चैनल में और हर माध्यम में फुदक -फुदक कर अपना औचित्य सिद्ध कर रहा है। यही गाड़ी थमती नहीं। यही नहीं हम अफरा -तफ़री वाला जीवन मस्ती में तरंगाइत होकर शान के साथ जी रहे हैं। दूरियों तक भागने का काम भी चल रहा है और अपने को हर हालत में सहेज लेने की प्रक्रियाएं भी चल रही हैं।
उधर आज़ादी और प्रजातन्त्र का नाम भी खूबसूरती से जमाया जा रहा है और मन की बातों के दायरे में सभी को भरमाया भी जा रहा है। है न अच्छी बात। मन के अंतश्लोक में न जाने कितने प्रकार के रस रसायन बह रहे हैं। सब फेंकने में मुस्तैदी से जमे हैं। मूल्यों और संवैधानिक चीज़ों की ही नहीं नैतिकताओं की उखाड़ -पछाड़ चल रही है। कभी आत्मनिर्भरता कबड्डी प्रतियोगिता में हिस्सा लेती है और कभी स्वच्छता के इलाके में महात्मा गांधी का चश्मा फेंक दिया जाता है। गांधी जी के विचारों का तो कोई कुछ कर नहीं सकता। हां, उनकी मूर्ति ध्वस्त कर प्रसन्न हुआ जा सकता है और कभी उनकी फ़ोटो को गोली मारकर आत्मिक छवियां पाई जा सकती हैं ?
कट्टरताओं की होड़ लगी है और आपको सफल- सूरमा सिद्ध करने के गम्भीर प्रयत्न भी चल रहे हैं। हर आदमी को बिकाऊ बनाने की परियोजना पर अतिरिक्त तत्परता और गंभीरता से काम जारी रहेगा ही? कुछ हो या नहीं ज़िन्दगी हर हाल में मूल्यवान होनी चाहिए। आज़ादी की रखवाली करने वालों को हक है कि वे आज़ादी के सौदागर के रूप में सब कुछ बेच दें। इसमें काहे की हया और काहे का शर्म। बेचो जितना बेच सकते हो। सब धकाधक मामला है। सब धकाया जा रहा हैं -जैसे -ईमान ,सत्य और निष्ठाएं, साम्प्रदायिकता का ज़हर। बाकी तो छोटी चीज़ें बेच ही रहे हैं। स्मार्टसिटी, बिजली, बुलेट ट्रेन, आज़ादी, जनतंत्र, संविधान आदि। जब मनुष्यता का गला घोंट देने में लाज नहीं तो इसमें काहे की शरम की टटिया लगाई जाए।
अपने बासीपने और छिछोरेपने का घमंड मनभावन मुद्राओं में घूम रहा है। हथियारों को बार-बार चमकाया जा रहा है। आगे भयावह स्थिति है कि हम कहां जायेंगे? किस क्रूरता के भद्रलोक या अंधलोक में हमारा देश समाज और मानवता होगी। आम आदमी तो किन खोहों में साँस लेगा और यहां का सचेतन आदमी कहाँ जायेगा? कोई जुगत लगाओ। फिर भी आशा अभी भी मरी नहीं है। जिजीविषा बड़ी चीज़ है। उसका कोई क्या कर पाएगा?
चीज़ें बहुत तेज़ी से बदल रही हैं। नीचताओं का तांडव चल रहा है। कहते- कहते हम जवान हुए। अब देखते -देखते ठूंठ हो रहे हैं। भीतर ही भीतर धूधू कर कायदे से अरमान धुंधुआ रहे हैं। झूठ का साम्राज्य चारों ओर तन गया है। काम होते नहीं केवल गप्पें हांकी जा रही हैं। मात्र ईगो नहीं है बल्कि हिटलर का अदृश्य जूता टहल रहा है। समय की घड़ी की सुइयां उल्टी घूम रही हैं। लज्जा के मायने बदल गए हैं। यथार्थ पर लट्ठ ठोकने की एक अरसे से प्रैक्टिस चल रही है। नागरिकों को धूर्त बनाने के इरादों को बार -बार आजमाया जा रहा है। उसका विस्तार प्रैक्टिस करके देखने में बहुत करीने से मूर्खताएं, प्रवंचनायें और धूर्ततायें लगी हुई हैं। क्या-क्या निर्मित किया जा रहा है?
कैसे समय समाज और परिवेश को भरमाया जाए ,ताकि झूठ- झांसों का ,गलतियों का जादू चलाया जा सके? पुन्यात्माओं के लबादे और जूते पहनकर एक इरादा चल रहा है? सुख कराह रहा है और मन के टोने- टोटके की मीडिया के हर माध्यम से विकास के नाम पर तेजी से कई तरह के पांसें फेंके जा रहे हैं। दुर्भाग्य से अब शब्द भी गुंगुआ रहे हैं। भाषा लगातार नीचताओं से पाट दी गई है। हम कहां घुमाए जा रहे हैं। और हमारा जीवन ही निर्वस्त्र हो रहा है। एक परम गप्पी अपने साजो- सामान के साथ मन की टकसालों से निकलकर तरह-तरह के स्वर्ग बनाने में खराब से खराब स्थितियां बो रहा है।
हर दिमाग में एक मेंटल के करिश्मे टहल रहे हैं। उसके इरादों में हिटलर, मुसोलिनी, चंगेज खां और पागल आत्माओं का पूरा दफ़्तर खुल चुका है और उनमें अंधेरगर्दियों का कब्जा हो गया है। संभवतः इसीलिए पूरा देश मूल्यों के बधस्थल के रूप में अपनी ज़मीन बना चुका है। कहने को बहुत कुछ है लेकिन आप क्या -क्या कह सकते हैं? कहने की भी सीमाएं हुआ करती हैं। है कि नहीं। सच दहक रहा है। क्योंकि सच की वास्तव में ताक़त होती है और नागरिकों की भी। झूठ झांसा तो वही होते हैं। तामझाम लंबे समय तक नहीं चल सकते? अचानक राजेश जोशी की एक कविता का एक अंश स्मरण हो आया।” प्रधानमंत्री की घड़ी में और एक साधारण नागरिक की घड़ी में/ बजनेवाला समय क्या एक ही हो सकता है?/ क्या किसी ऐसे जनतंत्र की हम कल्पना कर सकते हैं?/ जिसमें सत्ता की घड़ी और जनता की घड़ी का समय एक ही हो?/”
यह एक दुखद स्थिति है। लोक कल्याण और देश के विकास को हम एक बड़ी चुनौती और जीवन मूल्यों के शर्मनाक रूप में साक्षात देख रहे हैं। उसमें भाषा के साथ ही नहीं विचारों के साथ एक निर्लज्ज किस्म की अपसंस्कृति का धुआंधार विकास सहज ही देखा और अनुभव भी किया जा सकता है। यह हमारे लिए सुख चैन का समय नहीं बल्कि बेहद लज्जाजनक समय है। यह जो खतरनाक यात्रा है इसके तमाम रूप पहले बहुत धीरे-धीरे से खुले थे। अब बहुत तेजी के साथ भारतीय जनजीवन की विकास प्रक्रिया और धारा के अंग होते जा रहे हैं। यह चिंता की बहुत बड़ी बात है। जनतंत्र जब प्रहसन बना दिया जाए और निर्लज्जता की विकास यात्रा का चारों ओर कोहराम फैला हो-तब यह तो होना ही था। पूरा देश लंबा फेंकने में ठेके से लग चुका है। विकास की छाया तले पूरा देश जोखिम में और इतिहास के साथ नत्थी हो गया है। प्रजातंत्र जादू के इलाके में चला गया है। स्मार्ट सिटियां और बुलेट ट्रेनें शोकगीत गा रही हैं। अब हंसी नेपथ्य में नहीं है बल्कि ठठाकर देश की कायरता पर हंस रही है। हस्तक्षेप खून की उल्टियां कर रहा है। देश के नौजवान बेरोजगारी के दिनों में खालीपन को ओढ बिछा रहे हैं। उनका रोना तक सिंहासन बत्तीसी ने गिरफ्तार कर लिया है। हम हिंदू मुस्लिम सिख इसाई पर ही नहीं फंसे। देश की चीख आदिवासियों,दलितों, स्त्रियों के तमाम रूपों में प्रकट हो रही है ।
देश अपने आप में एक स्थाई मजाक बन चुका है और अंधेरे के पुरस्कारों में खेल रहा है। पूरा देश महंगाई के बाजार में प्राथमिकी सा दर्ज़ हो रहा है। जादूगर जादू दिखा रहे हैं आंख में पट्टी बांधकर। अब खुशहाली के भयानक विचार में शोक जुलूस की तरह आतंक और असुरक्षा का सुरमा आंज रहे हैं। यह एक असाधारण समय है-अंधेरा का विस्तार निरंतर है और उसे रौशनी की तरह विज्ञापित किया जा रहा है? अद्भुत है यह मुल्क बेरोजगारी ही सबसे बड़ा रोज़गार गारंटी अधिनियम है। देश में बढ़ती महंगाई कोई विषय नहीं है। नागरिक विकास विकास का राग अलाप रहे हैं। वाह री जिंदगी और वाह रे जनतंत्र। यहां अंधेरा ही रौशनी है। हम एक शर्मनाक चुप्पी की ओर फेंक दिए गए हैं। चुनाव जीतने का ज़रूरी मौसम चल रहा है। बातों की चोर गलियों से एक लगभग अज्ञात दुनिया स्वप्न के झांझ मजीरे बजा रही है।
क्या कहूं मैंने इतना थका, गुमराह, लज्जित और आत्म मुग्ध समय कभी नहीं देखा? न इतना सहमा हुआ, डरा डरा और सशंकित रूप देखा। रात को दिन कहने का भारी प्रबंधन है। परम गप्पी हर चीज़ से अपना आत्मीय रिश्ता जोड़ लेता है। उसका जितना गहरा रिश्ता राम से है उतना ही सार्थक रिश्ता रावण से भी है। हिटलर और मुसोलिनी तो उसके लंगोटिया यार थे। लंगोटिया दोस्त होना कितने गर्व की बात है। उसी तरह जैसे कोई तस्कर, हत्यारा और तड़ीपार किसी मंत्री को कहता है कि वह मेरा लंगोटिया यार है। बहुत उत्तम स्थिति हो गई है। लगता है कि सचमुच हम बेहतर दिनों की चौखट तक पहुंच गए हैं । एक कार्टून दस्तक दे रहा है -“हद हो गई. पहले जनता हमें ढूंढती थी.. अब हम जनता को ढूंढ रहे हैं।” सच सच बताईए क्या आपका दिल लंबा-लंबा फेंकने का नहीं होता?
(लेखक साहित्यकार और मप्र हिंदी ग्रन्थ अकादमी के पूर्व निदेशक हैं)