‘को का कै र औ’ से एकजुट सागर के पूर्व सहपाठी, देश भर से मदद भेज चुका रहे माटी का क़र्ज़
कोरोना से संकट में आई जिंदगियों को बचाने सागर के पूर्व छात्र देश भर से सक्रिय हैं।
भोपाल (जोशहोश डेस्क) कोरोनाकाल में संकट में आई जिंदगियों को बचाने सागर के पूर्व छात्र देश भर से सक्रिय हैं। सागर से निकल देश के अलग अलग शहरों में पहुंच ये सहपाठी न सिर्फ कामयाबी के झंडे गाड़ रहे हैं बल्कि संकट में एक वाट्सएप ग्रुप ‘को का कै र औ’ से एकजुट हो मिटटी का कर्ज उतारने में भी तन मन धन से समर्पित हो कार्य कर रहे हैं।
कौन हैं ये सहपाठी? आखिर क्या है ‘को का कै र औ’ का मतलब? और किस तरह देश भर में फैले इस ग्रुप से एकजुट छात्र कर रहे सागर के कोरोना पीड़ितों की मदद, जानते हैं सागर के ही फ्रीलांस पत्रकार रजनीश जैन की जुबानी-
वर्ष 1992 में सागर की विभिन्न स्कूलों से पढ़कर निकले ये छात्र मुंबई, बेंगलोर से लेकर लंदन और दुबई तक में में कामयाब ज़िंदगी जी रहे हैं। इनमें से कोई एक दूसरे को नहीं भूला। सागर की मिट्टी, स्कूल की स्मृतियां और बुंदेली बोली इन्हें जोड़ कर रखती है। इनका एक वाट्सएप ग्रुप है जिसका नाम टिपिकल बुंदेली दंभोक्ति पर रखा है।… को का कै र औ…! यह संवाद बुंदेलखंड में पैदा हुआ हर युवा अपनी जवानी के जोश में बोलता दिख जाता है। इसका खड़ी बोली में मतलब है,…कौन क्या कह रहा है!
इस संवाद को बोलने के पीछे का दंभ भरा भाव यह है कि हम सभी को चुनौती दे रहे हैं कोई है हमसे भिड़ने वाला।…बहरहाल जब वही युवा नौकरी, विवाह घर गृहस्थी और दुनियादारी के चक्रव्यूह में उलझते हैं तो फिर यही संवाद और भावार्थ सब आपस की मीठी स्मृतियां बन कर रह जाते हैं। इससे मिलती जुलती थीम पर बहुतेरे सहपाठियों के एलुमनी ग्रुप बने होते हैं पर कुछेक ही होते हैं जो उस वक्त काम आते हैं जब उनकी मातृभूमि के लोगों पर संकट आया हो।
सागर के ऐसे ही सहपाठियों के वाट्सएप समूह “को का कै र औ ” ने कोरोना की विभीषिका के समय अपने जिले के लोगों का भरपूर साथ दिया। आक्सीजन के अकाल के दौरान इन पारंगत प्रोफेशनल्स सहपाठियों ने तुरंत समस्या को चिंहित किया, उसका समाधान खोजा और उसे द्रुत गति से क्रियान्वित भी कर डाला।
यह बीते माह अप्रैल की बात है। इनमें से कुछ ने जो लाकडाउन में सागर से अपनी कंपनियों के लिए “वर्कफ्राम होम” कर रहे हैं , सागर के अस्पतालों में आक्सीजन की कमी से तड़प रहे बदहवास लोगों की खबरें ग्रुप पर शेयर कीं तो सभी ने एक साथ इस तकलीफ को महसूस किया। तय हुआ कि आक्सीजन कंसट्रेटर भेजे जाएं ताकि जिन्हें अस्पताल और आक्सीजन बेड नसीब नहीं हो रहे हैं उनकी जान बचाई जा सके। मिलकर कुछ फंड इकट्ठा किया, और बहुत कुछ अन्य मित्रों से लिया। अनेक मित्र, जिन्होंने सागर में कभी पैर भी नहीं रखे हैं, उन्होंने लाखों रुपए का योगदान दिया।
मुंबई में समीर पाठक ने नये पुराने जितने भी कंसंट्रेटर थे खरीद कर सागर भेजना शुरु कर दिए। दुर्लभ हो चुके आक्सीजन कंस्न्ट्रेटरों को लाकडाउन में सुरक्षित सागर तक भेजने की सप्लाई लाइन बनाने में ग्रुप ने इंदौर के मित्रों रेलवे में पदस्थ अपने परिचितों का सहारा लिया। चार से आठ की संख्या में कंसंट्रेटर की खेपें लगातार सागर की ओर तत्काल चलीं। ये बीना, इंदौर, सागर जहां तक की ट्रेनें मिलीं उनसे पहुंचाई गई। यात्री बसों की डिग्गियों तक में ये मशीनें आईं।
रेलवे के एक अधिकारी तो ग्रुप के इस काम से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने बीना के पार्सल रूम तक उतारे गये कंसट्रेटरों को अपनी कार से सागर के अटल पार्क में ग्रुप के सदस्य अनुराग सोनी, कल्पेश गौर तक भेजा। ऐसे लगातार 18 कंसंट्रेटर आए और आते ही तुरंत 92 से कम आक्सीजन सेचुरेशन वाले कोविड मरीजों को लगाए जाते रहे। सोशल मीडिया में तैर रहे आक्सीजन ढूंढ़ रहे मरीजों के अटेंडर्स को अचानक ग्रुप की तरफ से काल पहुंच जाता और उन्हें कंसंट्रेटर मिल जाता। ग्रुप ने सशुल्क ऐसा समन्वयक भी रखा जो आक्सीजन कंसंट्रेटर आपरेट करने की विधि भी मरीज के परिजनों को तुरंत सिखा देता।
लगभग सौ से ज्यादा कोविड मरीज ऐसे हैं जो “कोकाकेरऔ” समूह के कंसंट्रेटर से ठीक हुए। बहुतों को अस्पताल में बिस्तर हासिल होने तक का सहारा मिल गया तो कुछ देर कर चुके गंभीर मरीज ऐसे भी रहे जो तब भी नहीं बचाए जा सके। इतना सब करने तक इस समूह ने अपने सदस्यों के अलावा किसी से आर्थिक मदद स्वीकार नहीं की थी।
इस बीच सागर के प्रशासन ने अस्पतालों ने आक्सीजन की कमी तो दूर कर ली लेकिन तब तक आक्सीजन युक्त बेड की संख्या कम पड़ गई। इसको देखते हुए ग्रुप ने अपनी दैनिक रिव्यू मीटिंग में अपनी रणनीति भी बदल ली। यह पता लगने पर कि भारी संख्या में आ रहे मरीजों को रखने के लिए जिला प्रशासन ने कोविड केयर सेंटर बनाए हैं। यहां भर्ती मरीजों को आक्सीजन की सुविधा के लिए कंसंट्रेटर महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते थे। अतः ग्रुप के सदस्यों ने सागर कलेक्टर दीपक सिंह से मुलाकात की और कोविड केयर सेंटर्स को अपने आक्सीजन कंसंट्रेटर भेजने शुरू कर दिए।
इससे ग्रुप उपकरणों के स्थानीय रखरखाव और सुरक्षा संबंधी जिम्मेदारी से थोड़ा मुक्त हुआ तब फिर रणनीति में बदलाव हुआ और आगे कदम बढ़ा दिए। सदस्यों ने आब्जर्व किया कि ग्रामीण स्तर पर आक्सीजन सेचुरेशन नापने वाले अच्छे आक्सीमीटर्स का अभाव है जिससे ग्रामीण मरीज बीमारी की गंभीरता समय से नहीं पकड़ पा रहे।
ऐसे में 100 आक्सीमीटर मंगा कर समूह ने ग्रामीण स्तर के फीवर क्लीनिक में रखवाने का निश्चय किया और उस पर अमल भी कर लिया। अभी तक 19 लाख रु की राशि खर्च करके यह ग्रुप 10 और 5 लिटर क्षमता के 18 कंसट्रेटर और सौ आक्सीमीटर सागर के मरीजों की सेवा में लगा चुका है। अब 40 और कंसंट्रेटर मंगाने के मिशन में जुटा है।
इसके लिए समूह ने पहली बार फंडरेजिंग के लिए अपने दरवाजे भी खोल दिए हैं। अपना एक सार्वजनिक एकाऊंट “कोकाकैरऔ” समूह ने जारी किया है जिसके ओपन होते ही इसमें 51000/- से ज्यादा सहयोग राशि आ गई है। जैसीनगर, रहली, शाहपुर या ज्ञानोदय सागर आदि कोविड सेंटरों में मार्कर पेन से “को का कै रऔ” लिखा हुआ आक्सीजन कंसंट्रेटर देख कर लोग चौंक जाते हैं। जिन्हें इसके पीछे सहपाठियों की एकजुटता, नेकनीयती और बिना व्यक्तिगत श्रेय वाली सेवा की कुशल रणनीति की कहानी पता चलती है वे सोच में पड़ जाते हैं कि सागर की मिट्टी का एक रंग यह भी है।
वक्त पर अपनी मिट्टी का कर्ज चुकाने का संतोष क्या होता है यह ” को का कै रऔ ” ग्रुप की कोविड रिलीफ के कोर ग्रुप की वर्चुअल मीटिंगों और वाटसएप समूह पर देखा जा सकता है। इसके सदस्यों समीर पाठक, प्रशांत नेमा, कल्पेश गौर, अनुराग सोनी, गुनीश अग्रवाल, हेमंत हजारी, दिलीप सिंघई, ऋषि मिश्रा, अनिल तिवारी, आशीष पाठक आदि को इस बात का लेश मात्र भी गर्व नहीं है कि वे कोई बड़ा काम कर रहे हैं।
ये वो इलाका है जहां मरीज को चार केले पकड़ाते हुए आठ लोग फोटो सेशन कराते हैं। देश-विदेश में बैठे हुए तन्मय गौतम, सुचित कोडापुल्ली, अतुल सबनीस, सागर नरगुंदकर, राजेश सुंदरम, सागर कोलते जैसे अनेक मित्रों की मात्र इतनी आकांक्षा है कि उनकी पूंजी से कहीं किसी अज्ञात व्यक्ति को सांसें दी जा रही हैं। जब इतिहास मूल्यांकन करेगा कि कोरोना काल में कौन क्या कर रहा था तब “को का कै रओ” अपने नाम को साबित करता अलग दिखाई दे रहा होगा।