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खिराजे अकीदत: अब्दुल जब्बार यानी गैस पीड़ितों-मजलूमों के हक का खुद्दार लड़ाका

वरिष्ठ पत्रकार अलीम बज्मी की कलम से दूसरी पुण्यतिथि पर अब्दुल जब्बार को श्रद्धांजलि स्वरूप आलेख

विश्व की सबसे भीषण भोपाल गैस त्रासदी की लंबी लड़ने वाले भाई अब्दुल जब्बार की 14 नवंबर 2021 को बरसी है। दो साल पहले उन्होंने फानी दुनिया को अलविदा कहा था। बरसी की पूर्व संध्या पर उनका एक साथी ने जिक्र किया तो जब्बार भाई की गैस पीड़ितों के हक में लड़ी गई तहरीकें बायस्कोप की रील की तरह आंखों के सामने नुमाया हो गई। क्या कहूं, क्या बताऊं…? खैर, गैस कांड के गुनाहगारों को सजा दिलाने का उनका मंसूबा था। भोपाल कोर्ट हो या जबलपुर हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट परिसर। तीनों स्थान पर फटी चप्पल। चेहरे पर मोटे फ्रेम के चश्मे के साथ पाए जाते। हाथों में तरह-तरह की अर्जी। कांधे पर झोला। हाथ में थैली। इसमें ढेरो कागजात। उन्हें कोई खास लिबास पहनने का शौक नहीं था। न ही तथाकथित एनजीओ के पदाधिकारियों की तरह सूट-बूट के साथ फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने का फन था।

मैंने ये महसूस किया इस जिद्दी शख्स का मासूम और मजलूमों के हक में हमेशा बोलना, लड़ना उसकी जिंदगी का एक अहम हिस्सा है। समझ मैं नहीं आ रहा कि इस लड़ाके से जुड़ी बातें कहां से शुरु करुं। ढेरों यादें है। कुछ अफसाने की शक्ल में है तो कुछ फसाने की मानिंद है। अजीब हाड-मांस का शख्स था। गैस पीड़ितों से बेलोच मोहब्बत। फाकाकशीं में भी हंसते रहना। मिजाज से दरवेश, गुरबत से रिश्ता। लेकिन उफ नहीं। चेहरे पर शिकन नहीं।अपनी तकलीफों, जरुरतों को साझा करने के मामले में निहायत कंजूस। कोई शौक नहीं। न किसी से फरमाइश। आरजू से कोई नाता नहीं। लेकिन धुन का पक्का। स्वभाव से जिद्दी।

अलीम बजमी

गैस पीड़ितों के हक में हमेशा बोलते। लोकल मुद्दों पर अपना ये लड़ाका चुप नहीं रहता। चाहे यादगार-ए-शाहजहांनी पार्क का मामला हो या फिर इंवायरमेंट के मसले। पेड़ों की कटाई पर भी उसे नगर-निगम, प्रशासन से लेकर मंत्रालय तक के अफसरों के बीच अपनी बात रखने में कोई कमी नहीं छोड़ता। बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि गैस कांड में उन्होंने अपने मां-बाप और भाई को खोया था।

उनकी बड़ी कामयाबी औरतों को गैस पीड़ितों के हक के लिए दहलीज के बाहर लाना था। भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन बनाकर उन्होंने सैकड़ों, हजारों महिलाओं को जोड़ा। उनके माली हालत सुधारने तरह-तरह की ट्रैनिंग दिलवाई ताकि वे आत्म निर्भर बन सके। इसके लिए स्वाभिमान सेंटर भी कायम किया। इस सेंटर ने बड़ी तादाद में महिलाओं को रोजगार से जोड़ा।

बीएमएचआरसी की बदहाली का मरहूम अब्दुल जब्बार को काफी मलाल था तो इंदिरा गांधी महिला एवं बाल चिकित्सालय, शाकिर अली खान हॉस्पीटल हो या कमला नेहरू गैस राहत सुपर स्पेशलिटी हॉस्पीटल या फिर मास्टर लाल सिंह गैस राहत अस्पताल में डॉक्टरों और टेक्नीशियन की कमी का मुद्दा हमेशा उठाते। पलमोनरी अस्पताल के अपनी क्षमता के मुताबिक चालू नहीं होने का मामला भी सालता। साथ ही गैस पीड़ितों के इलाज के तरीके को लेकर भी उनकी कई तरह नागंवारी थीं। वे कहते थे कि मिथाइल आइसो सायनाइड का असर लान्ग टर्म रहेगा। आईसीएमआर की रिसर्च बंद होने को उन्होंने एक साजिश कहा था।

खैर, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि गैस पीड़ितों को अंतरिम राहत, मुआवजा, प्रोरेटा मुआवजा आदि दिलाने के मामले में भाई अब्दुल जब्बार ने खूब मेहनत की। अपने कुछ साथियों के संग दिल्ली तक 3-4 बार पैदल गए। लेकिन श्रेय लेने के नामपर ठेकेदार बनकर कभी सामने नहीं आया। ऐसे मसलों पर न गुलपोशी कराई और न ही किसी एजाज के लिए खुद का नाम चलाने गोलबंदी की।

उनकी तहरीक में कभी-कभी हिस्सा बनने का मौका मिला। तब मैंने पाया कि वे अपने जाती (निजी) मामलों को आंदोलन का हिस्सा नहीं बनाते। खुद्दार तो वे थे। रिहायश भी उनकी शान-शौकत वाली नहीं एक असली दरवेश जैसी थी। वे राजेंद्र नगर में दो कमरों के एक मकान में रहते थे। अपनी बीमारी के वक्त भी उन्होंने खुद्दारी की चादर को ओढ़े रखा। वे कई तरह की बीमारियों से जूझ रहे थे लेकिन इसको बताने-शेयर करने में बहुत कंजूसी करते।

अपने आखिरी वक्त में वे ब्लड शुगर लेवल बढ़ने और पैर में गैंग्रीन होने से परेशान थे। इलाज की खातिर अलग-अलग अस्पतालों में भटके लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। आखिरकार 14 नवंबर 2019 की रात को उन्होंने फानी दुनिया को अलविदा कह दिया। उनके रुखसत होने से गैस पीड़ितों के आंदोलन का एक युग खत्म हो गया। अब इतना ही कहूंगा कि परवरदीगार उनकी नेक ख्वाइशों को पूरा करें।जन्नत में उन्हें आला मुकाम हासिल हो। आमीन।

(लेखक दैनिक भास्कर भोपाल में न्यूज एडिटर हैं)

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