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ग्वालियर के सिंधिया और झांसी के नेवालकर वंश में हमेशा रही अदावत.!

मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के दावे पर वरिष्ठ पत्रकार डॉ राकेश पाठक की पड़ताल

केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने दावा किया है कि मराठों में हमेशा एकता रही है। उन्होंने ट्विटर पर लिखा है कि ‘हम मराठे – सिंधिया, पेशवा और झांसी के नेवालकर अंग्रेजों के विरुद्ध एक थे।’

सिंधिया का यह कथन ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर सही साबित नहीं होता। सच्चाई यह है कि ग्वालियर के सिंधिया राज घराने और झांसी के नेवालकर राजवंश में शुरू से ही छत्तीस का आंकड़ा रहा।

आइए संक्षेप में इसकी पड़ताल करते हैं।

पहले झांसी की बात..

मराठा राज्य से पहले झांसी राज्य में चंदेलों, बुंदेलों की सत्ता लंबे समय तक रही। मुगल काल में भी यहां सत्ता संघर्ष चलता रहा। पेशवा बाजीराव के समय यहां मराठा सूबेदारी स्थापित हो गई। पेशवा की ओर से 1757 में नारोशंकर नाम का सूबेदार काबिज़ रहा। पानीपत के युद्ध में मराठों की हार के बाद उत्तर भारत में उनकी सत्ता कमज़ोर पड़ने लगी। इलाहाबाद के सूबेदार शुजाउद्दौला ने मुगल सम्राट शाह आलम से इजाजत लेकर बुंदेलखंड पर चढ़ाई कर दी। जनवरी 1762 में उसने झांसी को इलाहाबाद सूबे में मिला लिया। 

झांसी हाथ से निकलने पर पेशवा करीब एक करोड़ रु मालगुजारी वाले इलाके से वंचित हो गया। तब उसने अपने सूबेदारों सिंधिया और होल्कर को झांसी के प्रथम सूबेदार नारो शंकर के साथ अभियान पर भेजा। इस अभियान के बाद झांसी पर एक बार फिर मराठा धवज फहराने लगा।

डॉ राकेश पाठक

अगले कुछ वर्षों तक झांसी पर अधिकार को लेकर मराठों का शुजाउद्दौला, बुंदेलखंड के गुसाईं, गोहद के जाट राजा जवाहर सिंह आदि से संघर्ष चलता रहा।

सन 1769 में पेशवा ने तुकोजी राव होल्कर और महादजी सिंधिया को अतिरिक्त सेना लेकर झांसी भेजा और निर्णायक विजय प्राप्त की। 

पेशवा ने अगले साल 1790 में रघुनाथ हरि नेवालकर को झांसी का सूबेदार तैनात किया। अपनी योग्यता से रघुनाथ हरि ने पेशवा को बहुत प्रभावित किया जिसके चलते पेशवा ने उसे झांसी का  ‘वंश-परंपरागत’ सूबेदार घोषित कर दिया। आगे चलकर इसी नेवालकर वंश के गंगाधर राव की ब्याहता होकर लक्ष्मीबाई झांसी आईं और महारानी बनी।

० सिंधिया से इस तरह बिगड़े रिश्ते…

जिस समय रघुनाथ हरि नेवालकर झांसी पर राज कर रहा था उसी समय ग्वालियर में पेशवा का ही सूबेदार महादजी सिंधिया एक तरह से अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर चुका था।

प्रथम अंग्रेज मराठा युद्ध में मराठों की पराजय के बाद मराठा महासंघ धीरे धीरे कमजोर हो चला था। ग्वालियर के किले पर अंग्रेजों के हमले के समय महादजी सिंधिया ने झांसी के रघुनाथ हरि से सहायता मांगी थी लेकिन वह टालमटोल करता रहा। वह सेना भेजने का नाटक करता रहा लेकिन कोई सहायता नहीं भेजी। रघुनाथ हरि अंग्रेजों से शत्रुता नहीं करना चाहता था। यह पहली घटना थी जब ग्वालियर और झांसी के मराठा सूबेदारों के बीच अनबन शुरू हुई।

जल्द ही एक और मौका आ गया जिसने नेवालकर और सिंधिया के बीच दुश्मनी की नींव रख दी। सन 1781 में गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने बनारस के राजा चेत सिंह पर चढ़ाई कर दी। पराजित होने पर चेत सिंह को कैद कर लिया गया लेकिन बनारस की जनता ने विद्रोह कर दिया। कैद से मुक्त होकर चेत सिंह सहायता के लिए सिंधिया के पास पहुंचा। सिंधिया ने न केवल उसे सहायता का आश्वासन दिया बल्कि बरुआ सागर की जागीर भी दे दी।

सिंधिया की यह हरकत झांसी के सूबेदार रघुनाथ हरि को नागवार गुजरी। असल में बरुआ सागर का किला/ जागीर झांसी के सूबेदार के अधीन थी। सिंधिया ने बिना रघुनाथ हरि से पूछे उसे चेत सिंह को देने का एलान कर दिया था। रघुनाथ हरि ने सिंधिया के आदेश को मानने से इंकार कर दिया। बौखलाए हुए सिंधिया ने पेशवा के दरबार में शिकायत की और रघुनाथ को सूबेदार के ओहदे से हटवाने की कोशिश शुरू कर दी।

सिंधिया अपनी कोशिश में कामयाब भी हो गया और पेशवा ने हमीरपुर के सूबेदार बाबूराव भास्कर को झांसी का सूबेदार नियुक्त कर दिया। रघुनाथ हरि ने हार नहीं मानी और बहाली के लिए पेशवा के दरबार में संपर्क साधा। इसके साथ ही उसने बाबूराव भास्कर को रोकने के लिए भी चढ़ाई शुरू कर दी। रघुनाथ हरि ने बाबूराव को समथर तक खदेड़ दिया। अंत में पेशवा ने उसे दुबारा झांसी का सूबेदार बना दिया। रघुनाथ का दुबारा झांसी का सूबेदार बनना सिंधिया के लिए करारी मात जैसा था।

इस घटना ने नेवालकर और सिंधिया राजवंशों के बीच गहरी खाई खोद दी।

इतिहासकार डॉ भगवान दास गुप्त ने अपनी पुस्तक ‘झांसी राज्य का इतिहास और संस्कृति’ में लिखा है कि

” संभवतः ग्वालियर के सिंधिया और झांसी के नेवालकर वंश के विरोध का सूत्रपात यहीं से हुआ और 1857 में सिंधिया द्वारा लक्ष्मीबाई का विरोध, लक्ष्मीबाई का ग्वालियर के किले पर अधिकार करना और विद्रोह के पश्चात झांसी सिंधिया को दिए जाने की पृष्ठभूमि में यही परंपरागत विरोध था।”

रघुनाथ हरि के बाद नेवालकर वंश के शिवराम भाऊ, रामचंद्र राव, रघुनाथ राव और गंगाधर राव आदि के समय भी सिंधिया राजघराने से झांसी के राजाओं की अनबन चलती रही।

इस दौरान अंग्रेजों के हाथों बार बार पराजित होकर मराठा महासंघ की कमर टूट गई। पहले बेसीन की संधि (1802) और उसके बाद सुरजी अंजनगांव की संधि (1803) के बाद मराठा महासंघ छिन्न भिन्न हो गया। झांसी राज्य के शासक अंग्रेजों की गोद में बैठ गए। उधर ग्वालियर के सिंधिया भी अंग्रेजों की कृपा पर निर्भर होने लगे।

० जब अंग्रेजों ने झांसी पर धावा बोला तब सिंधिया ने अंग्रेज फौज की मदद की

सन 1857 की क्रांति के समय झांसी में विद्रोह की आग भड़की तब रानी लक्ष्मीबाई  लगभग पूरे समय तटस्थ बनी रही। लेकिन अगले साल यानी 1858 के मार्च अप्रेल तक वह भी क्रांति में कूद पड़ी। सर रॉबर्ट हेमिल्टन और सर ह्यूरोज ने झांसी का घेरा डाल दिया।

रानी ने अंग्रेजों के हमले के समय उन्हें किसी तरह की रसद, खाद्यान्न, चारा आदि न मिल सके इसके लिए झांसी का आसपास का इलाका उजड़वा दिया था लेकिन उसकी यह रणनीति किसी काम नहीं आई क्योंकि अंग्रेज सेना की मदद करने ग्वालियर का सिंधिया महाराजा आगे आ गया।

उसने पूरे आक्रमण काल में अंग्रेज सेना के लिए खाने पीने का सामान, साग भाजी, लकड़ी, घास आदि पहुंचाने का काम किया। अंग्रेज अफसरों ने अपने पत्राचार में सिंधिया (और टेहरी के राजा) की राजभक्ति के लिए धन्यवाद दिया और लिखा कि अगर सिंधिया और आसपास के राजा मदद न करते तो अंग्रेजी सेना को न रसद मिल पाती और न घोड़ों के लिए घास।

अंततः 4,5 अप्रेल 1858 को रानी लक्ष्मीबाई को पराजित होकर झांसी से पलायन कर ग्वालियर की तरफ़ रवाना होना पड़ा।

(डॉ राकेश पाठक वरिष्ठ पत्रकार और कर्मवीर न्यूज़ के प्रधान संपादक हैं)

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