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विन्ध्य-महाकोशल-चंबल का मूड और खिसकती जमीन पर तने रहने की अदा

चुनाव परिणाम की सच्चाई स्वीकार न करना समूचे संगठन और उसके विशाल समर्थक वर्ग को झाँसे में रखने जैसा है और रणनीतिक तौर पर पर खतरनाक भी।

स्थानीय निकाय चुनाव में विन्ध्य महाकोशल और चंबल-ग्वालियर में भारतीय जनता पार्टी की खिसकती हुई जमीन को हमसब देख रहे हैं, बावजूद इसके चुनाव परिणाम के सांख्यिकी आंकड़ों के साथ प्रदेश अध्यक्ष बीडी शर्मा अड़े हैं कि जनता ने उन्हें ऐतिहासिक समर्थन दिया है। इस ‘ऐतिहासिक’ समर्थन से मुदित नेताओं ने बैंडबाजे के साथ एक-दूसरे को को मिठाइयां खिलाईं और पीठ थपथपाई। लेकिन इस चुनाव परिणाम से यदि किसी की पेशानी में चिन्ता की लकीरें हैं तो वे हैं ‘धरतीपकड़’ मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान। उन्हें जन्नत की हकीकत अच्छे से मालुम है। वे आने-जाने के लिए हवा में उड़ते जरूर हैं लेकिन अभी भी मूलतः हैं पाँव-पाँव वाले भैय्या। सच्चाई स्वीकार न करना समूचे संगठन और उसके विशाल समर्थक वर्ग को दिवास्वप्न या झाँसे में रखने जैसा है और रणनीतिक तौर पर पर खतरनाक भी।

आधे मध्यप्रदेश का मूड कुछ यूँ समझिए..

कोई लाख कहे कि स्थानीय निकाय के चुनाव और विधानसभा के चुनाव में मतदाताओं का मूड अलग होता है, लेकिन मैं इससे कभी सहमत नहीं रहा। नेता दोहरे चरित्र के हो सकते हैं मतदाता नहीं। उसका गुस्सा रंग-नस्लभेद से ऊपर रहता है। सो यदि लगभग आधे मध्यप्रदेश का प्रतिनिधित्व करने वाले आठ नगर निगमों में भाजपा को यदि एक में जीत मिलती है तो इसे आगे की सत्ता पर बने रहने के खिलाफ खतरे का अलार्म जो न सुने वह राजनीति का खिलाड़ी नहीं, अनाड़ी है।

केन्द्र व प्रदेश की सत्ता में सबसे ज्यादा रसूख रखने वाले ग्वालियर-चंबल में मतदाताओं का बागी मूड उभरकर आया। अब तक अपराजेय रही ग्वालियर सीट अच्छे खासे अंतर से भाजपा हारी। दिग्गज नेताओं के राजसी रोड शो के रथ को मुरैना के मतदाताओं ने पंचर कर दिया। नगरपालिका और नगरपरिषद के चुनावों में भी कांग्रेस आधेआध से कम नहीं। महाकौशल की जबलपुर, छिन्दवाड़ा, कटनी और विन्ध्य की रीवा, सिंगरौली भाजपा के खिलाफ गई। सतना में बसपा की बदौलत भाजपा की लाज बच गई। महत्वपूर्ण घटनाक्रम प्रदेश की राजनीति में सिंगरौली के जरिए ‘आम आदमी पार्टी’ का प्रवेश है।

जयराम शुक्ल

अब विधानसभा सीटों की गणित समझ लें। ग्वालियर चंबल में 34, महाकोशल में 32, विन्ध्य (बघेलखण्ड) में 30 सीटों को जोड़ दे तो 96 सीटें बैठती हैं, प्रदेश की 230 सीटों की एक तिहाई से ज्यादा। ये आठ नगर निगम मतदाताओं के मूड का प्रतिनिधित्व करते हैं क्योंकी ये सभी नगर अपने-अपने इलाके के ‘मिनी-कैपिटल’ हैं। राजनीति के रंग-तरंग और लहरें यहीं से पैदा होती हैं।

ग्वालियर-चंबल के राजनीतिक दलदल में कमल..

राजमाता-श्रीमंत और महल की राजनीति की पहचान वाला यह इलाका इतना स्वाभिमानी रहा कि दो बार प्रदेश की सत्ता को बदल दिया। पहली बार 1967 में पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र के व्यंगवाणों से आहत विजयाराजे सिंधिया ने कांग्रेस की सरकार पलटकर संयुक्त विधायक दल की सरकार बनाई। उनके पौत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया ने 2020 में उसी घटनाक्रम को दोहराया। फर्क इतना समझें कि राजमाता ‘पावर-हंगर’ नहीं थीं जबकि श्रीमंत ज्योतिरादित्य में सत्ता का हिस्सा बनने की आतुरता थी। वे लोकसभा का चुनाव हार चुके थे और कांग्रेस उन्हें राज्यसभा लायक नहीं मान रही थी। सत्ता में साझेदारी की ललक के चलते समूचा इलाका राजनीतिक दलदल में बदल गया। कांग्रेस के जो नेता भाजपा में गए वे आज भी कांग्रेसी चरित्र जी रहे हैं। भाजपा में ऐसी स्पष्ट गुटबाजी कभी सतह तक नहीं आई। भाजपा का संस्कारी कार्यकर्ता आहत और उपेक्षित है।

ग्वालियर के वरिष्ठ पत्रकार देव श्रीमाली मानते हैं कि विधानसभा चुनाव तक स्थितियां और बिगड़ने वाली ही हैं। कांग्रेस से आए विधायकों ने किसी न किसी भाजपा नेता को ही चुनाव में हराया था। टिकट को लेकर घमासान मचेगा। आप देखेंगे कि चुनाव आते तक कई कांग्रेसी सत्ता का मजा भोगने के बाद मूल पार्टी में लौट जाएंगे। जो बचेंगे भी पुराने भाजपाई उनको टिकट मिलना और जीतना दोनों हराम कर देंगे। चंबल-ग्वालियर के मतादाताओं को साधे रखने की कूव्वत अब ज्योतिरादित्य में नहीं बची और भाजपा के पुराने नेता इस स्थिति को ‘पार्टी की नियति’ मानकर में किनारा कर लेंगे।

और हाँ प्रदेश के मंत्रिमण्डल में नाना प्रकार के मंत्रियों में सबसे ज्यादा ग्वालियर-चंबल से ही हैं इनमें से ज्यादातर मंत्री अपने ‘बाबा प्रकार’ के क्रियाकलापों से अक्सर सुर्खियाँ बटोरते रहते हैं।

महाकोशल को माटी के मोल मानने की भूल…

एक बार जबलपुर के पत्रकारों ने प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा से पूछा कि प्रदेश सरकार में महाकौशल की उपेक्षा क्यों? किसी को प्रतिनिधित्व लायक नहीं समझा गया? जवाब में शर्मा जी ने कहा- मैं हूँ न, क्या मैं महाकौशल का प्रतिनिधित्व नहीं करता। शर्मा खजुराहो से लोकसभा सदस्य हैं, कटनी के कुछ विधानसभा क्षेत्र इसमें शामिल हैं। कटनी को महाकोशल का हिस्सा मान लिया जाता है..शायद इस नाते शर्मा जी स्वयं को यहाँ का प्रतिनिधि मानते होंगे। बहरहाल यह जवाब उस जबलपुर को मुँह चिढ़ाने वाला ही कहा जा सकता है जो जबलपुर प्रदेश की राजधानी बनने के साँप-सीढी के खेल में जरा सा चूक गया। जो जबलपुर स्वतंत्रता संग्राम का उद्घोष स्थल रहा। जिस जबलपुर को आज भी देश की संस्कारधानी कहा जाता है।

सतत् उपेक्षा के चलते 2018 के चुनाव में महाकोशल ने कांग्रेस का साथ दिया। कमलनाथ मुख्यमंत्री बने और अपनी कैबिनेट में जबलपुर के दो विधायकों को रखकर इसका मान दिया। यही नहीं एक बार यहीं कैबिनेट बैठक करके जबलपुर को राजधानी के बराबर होंने का अहसास दिया। 2020 में जब सत्ता पलटी तो भाजपा सबसे ज्यादा मजाक इसी महाकौशल के साथ किया। जबलपुर को भाजपामय करने के लिए सड़कों पर संघर्ष करने वाले अजय विश्नोई अपनी ही पार्टी में ‘जोकर’ बना दिए गए। उनके ट्वीट पर उन्हीं के पार्टीसाथी मजा लेते हैं। बालाघाट के कद्दावर गौरीशंकर बिसेन को उम्र का हवाला देकर कैबिनेट से बाहर रखा गया।
संस्कारधानी के वरिष्ठ पत्रकार चैतन्य भट्ट कहते हैं कि..भाजपा ने महाकोशल को माटी के मोल समझने की भूल की है, स्थानीय निकाय के चुनाव परिणामों से जो सिलसिला चल निकला है वह विधानसभा चुनाव तक जारी रहने वाला है। डैमेज कंट्रोल के लिए काफी देर हो गई है।

महाकोशल में आदिवासी भी एक फैक्टर हैं गोडवाना गणतंत्र के बाद जयस का भी असर दिखने लगा है। मंडलात्र-डिंडोरी और उससे लगे विन्ध्य के अनूपपुर की विधानसभा सीटों में भाजपा को जो हार मिली उसके पीछे जयस का प्रभाव है..प्रदेश नेतृत्व माने न माने पर ओमप्रकाश धुर्वे ऐसा ही मानते हैं। प्रायः हर कैबिनेट के सदस्य रह चुके धुर्वे को इस बार करारी हार झेलने को मिली थी। जयश्री बनर्जी, दादा परांजपे ने जिस महाकोशल और जबलपुर को भाजपा के मजबूत किले में गढ़कर नई पीढ़ी को सौंपा था उस किले में के कंगूरे पर बैठकर चार बार के सांसद राकेश सिंह के पास अब उसकी दरारें गिनने के अलावा कोई काम नहीं बचा है..। केन्द्र की कैबिनेट का सदस्य बनना उनके प्रारब्ध में नहीं।

विन्ध्य: जहाँ सबसे ज्यादा मिला उसी को इत्मिनान से छला

नगरीय चुनाव में विन्ध्य से निकले संदेश को भी यदि भाजपा का प्रदेश नेतृत्व 51परसेंट की वोट सांख्यकी में शामिल करके अपनी ‘ऐतिहासिक जीत’ का डंका पीटे तो इसे हम ‘सावन में अंधे का मजा’ ही कह सकते हैं। रीवा मुद्दतों बाद बमुश्किल कांग्रेस व सोशलिस्टों से छूटकर भाजपा के प्रभाव में आया था। जनता के सीधे वोटों से भाजपा की जीत की शुरुआत 1998 में यहीं से हुई । 2003 में विधानसभा सीट भी कब्जे में आई और अबतक है। नगरनिगम के चुनाव इस मतिभ्रम को तोड़ दिया। यही नहीं.. चुरहट, सीधी से सिंगरौली तक भाजपा एक तरह से साफ है। उधर कबीना मंत्री मीना सिंह का मानपुर और राज्यमंत्री रामखेलावन का अमरपाटन भी सफा है। जिला पंचायत में स्पीकर गिरीश गौतम के सुपुत्र करारे मतों से हारे तो विधायक पंचूलाल की पत्नी भी इसी चुनावी गति को प्राप्त हुईं। शहडोल समेत तीन नगरीनिकाय के चुनाव नहीं हुए लेकिन जहाँ हुए वहाँ से भी भाजपा की जमीन खिसकी।
यह उस विन्ध्य(बघेलखण्ड) की बात है जो आज भी भाजपा की प्रदेश सरकार की रीढ़ है। सत्तापलट के बाद जब मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान पहली बार रीवा आए तो उन्होंने जनता के आगे खुद को बिछा दिया यह कहते हुए कि आज मैं जो कुछ हूँ यहां की बदौलत ही हूँ। विधानसभा चुनाव में इस क्षेत्र ने 30 में से 24 सीटें भाजपा की झोली में डालीं। और शायद यही दुर्भाग्य का सबब भी बना। चंबल-ग्वालियर-बुंदेलखंड से प्रायः हर जिलों से एक-एक विधायक जीते और वे मंत्री बने। और विन्ध्य में भाजपा ने जो चेहरा सामने किया सबसे पहले उसी को खंडित कर दिया। जिन राजेन्द्र शुक्ल की अगुवाई में पिछला चुनाव लड़ा गया। उनके गृह जिले रीवा और प्रभार के जिले शहडोल सिंगरौली में भाजपा को शत-प्रतिशत की रिकार्डतोड़ सफलता मिली उन्हें सत्ता में आते ही वेटिंगरूम में बैठा दिया गया। चतुराई के साथ शुक्ल की काट में उमरिया की मीना सिंह को कैबिनेट में रखा गया। आदिवासी चेहरे को महत्व देना अपनी जगह ठीक है लेकिन उसे पूरा इलाका सँभालने का कौशल भी चाहिए। मीना सिंह महत्वपूर्ण पद पर रहते हुए लंबे अर्से बाद इस चुनाव में तब खबर में आईं जब चुनाव के समय उनकी मोटर से वोटरों को बाँटने की प्रत्याशा में रखे रुपए बरामद हुए। राज्यमंत्री रामखेलावन रामनगर से भोपाल बाया अमरपाटन के दाएं-बाएं कुछ भी नहीं सूझा अबतक। वैसे भी पिछड़ा वर्ग कल्याण जैसा महत्व हीन विभाग है दूसरे वे अपनी जातीय छवि और सांसद गणेश सिंह की छाया से निकल ही नहीं पाए।

भाजपा की बनी -बनाई विन्ध्य की जमीन को पहले सरकार में साझेदार बनने वाले कुछ बड़े नेताओं ने ‘ ह्वाई राजेन्द्र, ह्वाई नाट यू’ फार्मूला चलाकर बिगाड़ा और जो शेष बचा था संगठन के फैसलों कचरा कर दिया। नगरनिगम के चुनाव में प्रत्याशी चयन की रस्साकशी इसका ताजा उदाहरण है।

अब मूल सवाल यह कि क्या फिर विन्ध्य से भाजपा 2018 वाली उम्मीद कर सकती है..? जवाब नहीं.. तब से अबतक में नर्मदा-सोन-टमस में बहुत पानी बह चुका है। ताजा परिणाम विन्ध्य के आहत स्वाभिमान का प्रकटीकरण है और इतिहास गवाह है कि जब-जब यहाँ की जनभावना को नकारा गया तब-तब ऐसा करने वालों को जवाब मिला।

और अंत में
1990 के चुनाव के पहले भाजपा की प्रदेश कर्यसमिति रीवा में बैठी। प्रदेश के सभी दिग्गजों को नसीहत देते हुए ठाकरे जी ने कहा था- इस गुमान में मत रहो कि आगे बढ़े हो..कांग्रेस पीछे हटी है इसलिए भाजपा आगे दिख रही है। इस चुनाव परिणाम में यही नसीहत कांग्रेस के लिए भी फिट बैठती है

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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