आर्यन की रिहाई-न्यूज़ चैनलों की बेहयाई, टीवी पत्रकारिता का ‘मन्नत’ के आगे अंतिम संस्कार
पत्रकार हेमंत शर्मा की शाहरुख खान के बेटे आर्यन की रिहाई और न्यूज़ चैनलों की बेहयाई पर बेबाक प्रतिक्रिया
अपने बेटे आर्यन को जेल से रिहा करवाने के लिए पिता शाहरुख खान ने लगभग वही किया जो शायद हर पिता करता है। सबसे अचछे वकील, संबंधों का सबसे अच्छा उपयोग और तेईस बरस के बेटे के लिए सबसे अधिक चिंता। एक माह से थोड़े ही कम समय तक जेल में रहने के कारण संभव है शायद ही कोई पल ऐसा रहा हो जो बेटे की चिंता में न गुजरा हो।
शनिवार को जब बेटा ड्रग्स रखने और बेचने के आरोप से जमानत पर छूटकर घर आया तो बहुत संभव है सालों तक सिनेमा हॉल में दर्शकों को रुला देने वाले दृश्यों का अभिनय करने वाला यह लोकप्रिय अभिनेता खुद भी अपनी रूलाई न रोक पाया हो, लेकिन इस अप्रितम दृश्य को करोड़ों दशकों तक पहुंचाने
वाले चौबीस घंटों के खबरिया चैनलों ने जिस तरह अपने वाहियात होने का परिचय दिया उसके बाद मानकर चलिए पत्रकारों की पिछली तीन पीढ़िया शर्म के मारे अपने चेहरा छुपाने की जगह तलाश रही होंगी।
टीवी के पत्रकारों और दूसरे संपादकों की जमात का कोई भी शख़्स इस ‘गिद्ध भोज’ का बचाव कैसे करेगा? यह तो कहा नहीं जा सकता, लेकिन यह तय है कि यह पूरे कुनबे के लिए लज्जित होने का इतना बड़ा दिन था कि यह कालिख इनके और हमारे जीवित रहते तो शायद ही मिट पाए। पहली बार यह भी हुआ है कि कालिख पुतने के इस अन्तर्राष्ट्रीय हमाम में सारे के सारे चैनल शामिल थे।
लिहाजा, कोई टीवी सम्पादक यह कहकर ही खुद को बचा सकता है कि हमने उतने घंटे नहीं दिखाया, जितना हमारे प्रतिस्पर्धी ने चलाया। टीवी पर खबरें वैसे भी दिखाई नहीं जातीं, चलाई जाती हैं। रात से ही एजेंडा तय हो जाता है कि आज बडा दिन है। कौन रिपोर्टर कहां रहेगा? … कोर्ट वाला रिपोर्टर कहां रहेगा और क्राइम वाला किस जगह से लाइव करेगा… जनरल बीट का रिपोर्टर कैसे इवेंट की जगह से वहां मौजूद भीड़ से सवाल करेगा कि वहां क्यों आए हैं और कम से कम दो महिला रिपोर्टर इस बात की खबर देंगी पक कौन-कौन सी हस्तियां वहां पहुंची और उनके चेहरे पर भाव कैसे थे?
यह एक फिक्स फॉर्मेट होता है पकसी भी फ़िल्मी शख्शियत से जुड़े ऐसे कवरेज का। रिपोर्टर को वहां कुछ दिखे या न दिखे उसे रिपोर्ट करते ही रहना है। गाड़ी खाली हो या भरी, उसे अंदाज लगाते ही रहना है… उसे सितारों के बाउंसर धकियाएँ या पुलिस, गलियों और धक्के मारे जाने के बीच दिल्ली को यह साबित करना ही है कि उसके पास अपने प्रतिद्वंदी चैनल से पांच सेकंड के फुटेज अधिक थे या उसने चार घाटों के अपने लाइव में तीन बातें ऐसी बताई हैं, जो किसी और को पता नहीं थी।
इस बीच अगर कोई दो सेकंड का विजुअल भी किसी एक चैनल को अलग मिल जाए तो नोएडा या मुंबई में दफ्तर में बैठा “इनपु्ट’ और “आउटपुट’ का झुंड उस रिपोर्टर को ऐसे नोच खाएगा कि उससे जीवन का सबसे बड़ा अपराध हो गया हो। दूर अपने कैबिन में बैठा कोई संपादक पलभर में उसे बेकार साबित कर देगा भले ही वह खुद जीवन में एक लाइन की मौलिक रिपोर्टिंग न कर पाया हो।
हमारे नयूज चैनलों के पास में ऐसे संपादकों की भरमार है। खबरों को सालों पहले हाशिये पर धकेलने वाले भी यही थे, जो अपनी कुर्सी बचाए रखने के लिए कभी नागिन की “नागमणि’ खोज रहे थे तो कभी किसी प्रिंस को तब तक गड्डे में धकेले रखना चाहते थे जब तक उस हफ्ते की सारी टीआरपी न बटोर ले । रिपोर्टर और खबरों को इन्होने सिस्टम से बाहर का रास्ता दिखाया और इवेंट मैनेजर बन गए। हर घटना में इवेंट तलाशना इनकी फितरत बन गया और डेस्क परही कैसे अपराध, अंधविश्वास और कॉमेडी का तड़का लगाकर टीआरपी का बंदोबसत कर लिया जाए- यही इनका एजेंडा बन गया।
चैनल के मालिकों को भी यह सस्ता और तुरंत पकने वाला माल और उसके सेलसमैन भा गए। बस, खबर खतम हो गई। आर्यन खान जेल से बाहर आ गए… उनकी सवारी निकल गई… उनके प्रशंसकों ने पटाखे फोड लिए। आर्यन घर के अंदर चले गए टीवी पत्रकारिता का “मन्नत ‘ के आगे अंतिम संस्कार हो गया।
( दैनिक प्रजातंत्र से साभार)
(लेखक दैनिक प्रजातंत्र के चीफ एडिटर हैं)