देश के राजनीतिक परिवेश में क्या हैं ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के निहितार्थ?
लेखक और विचारक ध्रुव शुक्ल की संक्षिप्त राजनीतिक समीक्षा
मैं भारत का एक नागरिक जो आज़ादी के पाॅंच साल बाद पैदा हुआ और अपने देश से प्यार करता हूॅं, देश के राजनीतिक परिदृश्य का एक शब्द चित्र बनाता हूॅं और पाता हूॅं कि काॅंग्रेस एक भरी-पूरी गर्म रजाई की तरह थी और जिसे ओढ़कर देश की सभी बिरादरियों के लोग देशप्रेम की गर्माहट महसूस करते थे। वे इस गर्माहट को आज भी भूले नहीं हैं।
देश में ‘कांग्रेस समाजवादी’ और ‘प्रजा समाजवादी’ नाम के दल भी बनें। गैरकाॅंग्रेसवाद का नारा सबसे पहले इन्हीं दलों ने लगाया और इनके पढ़े-लिखे नेताओं ने तो यहाॅं तक कहा कि वे काॅंग्रेस को हटाने के लिए कोई भी समझौता करने को तैयार हैं। देश को सद्भावपूर्ण राष्ट्रीयता का सबक सिखाने वाली काॅंग्रेस की भरी रजाई से रुई नोंच-नोंचकर कई तरह के जातिवादी दल अपने गद्दे-तकिए भरवाने लगे थे।
जब जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में काॅंग्रेस के ख़िलाफ़ बिहार आंदोलन प्रारंभ हुआ और उनके आह्वानों से यह संदेह होने लगा कि कहीं देश में अराजकता न फैल जाये। तब इसी कारण देश में आपातकाल लगाने की नौबत भी आयी। जब उन्नीस महीने के बाद आपातकाल हटाया गया तो भांति-भांति के जातिवादी, कौमपरस्त साम्प्रदायिक दल एक ‘जनता पार्टी’ नामक तात्कालिक गठबंधन बनाकर देश की सत्ता पर काबिज हो गये।
साम्यवादियों ने भी उनका समर्थन किया। वे मात्र ढाई साल में विफल होकर देश के लोगों की नज़रों से गिर भी गये। जनता ने फिर काॅंग्रेस को चुना। जब आतंककारी ताकतें इंदिरा जी के प्राण भी ले चुकीं, तब भी राजीव गांधी के नेतृत्व में काॅंग्रेस आगे बढ़ती रही। फिर राजीव जी के प्राण भी ले लिए गये।
यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि जनता की क्षेत्रीय पीड़ाओं के नाम पर जात-पांत का वोट बटोरने वाले छोटे राजनीतिक व्यापारी दल बड़ी तादाद में खड़े होकर काॅंग्रेस की सर्वसमावेशी शक्ति को कमजोर करने लगे थे और इन दलों ने ही काॅंग्रेस को सत्ता के स्वार्थी गठबंधनों की तरफ दबाव बनाकर खींचा। जो काॅंग्रेस देश के दिल को जीतकर शासन चलाती थी, उसे इन वोट के खुदरा व्यापारियों के दलों के दलदल में फंसना पड़ा। सोनिया गांधी और फिर अटल बिहारी वाजपेयी को भी इन गठबंधनों के मेंढकों को तौलने में अपना समय गॅंवाना पड़ा।
भारत के चुनाव आयोग की सूची में करीब ढाई हजार राजनीतिक दल रजिस्टर्ड हैं। उनका यह धंधा ही बन गया है कि राष्ट्र को बांधे रखने वाले बड़े दलों में दलित-पिछडो़ं के नाम पर अपनी राजनीतिक गुमटी कैसे जमाकर रखी जाये। ये राजनीतिक गुमटियां काॅंग्रेस को चाहे जब संकट में डालती रही हैं और इसी से लोकतंत्र में फुटकर राजनीतिक सौदेबाजियों का चलन बढ़ा है। इनके नेताओं के घरों में आय से अधिक संपत्ति इकट्ठी होती गयी और अभावग्रस्त दलित-पिछड़ों के दुख आज तक कम नहीं हुए
भारतीय जनता पार्टी ने इन राजनीतिक गुमटियों के नेताओं को पहले साथ लेकर और फिर इनका भेद जानकर वोट के इस खुदरा व्यापार में सेंध लगा दी है। भाजपा के लिए काॅंग्रेस ही अब सबसे बड़ी चुनौती है। तभी तो उसे देश के लोगों के साथ राहुल गांधी का पैदल चलना बेचैन कर रहा है। जाति तोड़ने वाले समाजवादी पूर्वजों के वंशज और जात-पांत की पिछड़ी राजनीति में लिप्त अखिलेश यादव कह रहे हैं कि ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में शामिल होने के लिए काॅंग्रेस ने उन्हें न्यौता ही नहीं दिया। उन्हें कोई आती हुई सत्ता फिर दिख रही होगी और वे उसमें भागीदारी के न्यौते को पाने के लिए अभी से बेचैन हो रहे होंगे।
समाजवादियों के राजनीतिक हथकण्डे अब किसी से छिपे नहीं हैं। अखिलेश जब यह कह रहे हैं कि काॅंग्रेस और भाजपा एक ही हैं तो उनके इस बयान से उनका यह डर झांक रहा है कि इन दो राष्ट्रीय दलों के दो पाटों के बीच अब उनका क्या होगा। वे यह भी जानते हैं भाजपा की नयी रजाई में बहुत सारी रुई तो काॅंग्रेस की रजाई से ही नोंचकर भरी गयी है। राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ को करीब से देखने पर लग रहा है कि वे काॅंग्रेस की रजाई में फिर से नयी रुई धुनककर उसे तागना चाहते हैं और जनता को सद्भावपूर्वक राजनीतिक गर्माहट से भरना चाहते हैं।
(लेखक- कवि, कथाकार और विचारक हैं)