मध्य्प्रदेश जनसंपर्क संचालनालय को हमारी सरकार ने पुलिस थाने में तब्दील करने की ठान ली है शायद। संचालनालय में नामचीन्ह पत्रकारों को बजाय सम्मान देने के अपमानित किया जा रहा है। नौबत यहां तक आ गयी है कि अब संचालक सीधे तौर पर अखबारों को ‘ डिक्टेट’ करने पर उतर आये हैं। नतीजा ये है कि दैनिक राष्ट्रीय हिंदी मेल जैसे अखबार के संपादक को अपना चर्चित स्तम्भ बंद करने की घोषणा करना पड़ रही है।
सरकारों को ‘तेली का काम तमोली’ से लेने की पुरानी आदत है। सरकार की दृढ मान्यता है कि अखिल भारतीय सेवाओं के लिए चयनित लोग तीसरी दुनिया के होते हैं और उन्हें सब कुछ आता है। इसीलिए भापुसे के लिए चुने गए अधिकारी आजकल जनसंपर्क संचालनालय के मुख्य हैं। जनसंपर्क आयुक्त तो शुरू से आईएएस होता ही था। अब नए जनसंपर्क आयुक्त अपने मातहतों से कैसा व्यवहार कर सकते हैं,ये राष्ट्रीय हिंदी मेल के प्रधान संपादक श्री विजय दास की पीड़ा से समझा जा सकता है।
विजय दास को पत्रकारिता करते उतना समय हो चुका है जितनी कि जनसंपर्क आयुक्त की वय भी नहीं है, लेकिन वे इसे स्वीकार नहीं करेंगे, क्योंकि एक तो वे भाप्रसे के अधिकारी हैं ऊपर से सत्ता का वरदहस्त उनके ऊपर है। जिस संचालनालय में संचालक वरिष्ठ पत्रकारों को दरवाजे तक विदा करने आते थे उसी संचालनालय में आज पत्रकारों को परोक्ष रूप से धमकाया जा रहा है। अपनी पसंद और नापसंद बताई जा रही है।
बीते 45 साल से मै भी संचालनालय में आता-जाता रहा हूँ लेकिन जैसी खामोशी आजकल संचालनालय में है पहले कभी नहीं थी। पहले संचालक का कक्ष वैचारिक बहसों के अलावा आवभगत के लिए चौबीस घंटे खुला रहता था। लोग यहां संदर्भ तलाशने आते थे। पर अब संचालनालय में इन दिनों किसी पुलिस थाने जैसी गंध आती है। वरिष्ठ अपर संचालक तक भी मुरझा गए हैं। उन्हें बच्चों की तरह डाटा-फटकारा जाता है। अपर संचालक के पास कोई अधिकार नहीं है। सारे अधिकारों का केन्द्रीयकरण कर लिया गया है। समूचा स्टाफ एक अज्ञात भय के वातावरण में काम कर रहा है।
जनसंपर्क संचालनालय को पुलिस थाने में तब्दील करने के पीछे मुमकिन है कि पूरी मंशा सरकार की ही हो। अन्यथा एक अधिकारी ये सब क्यों करने लगा? जैसे आयुक्त हैं वैसे ही संचालक भी हैं,लेकिन सरकार को ये नहीं पता कि भापुसे का कोई भी अधिकारी कितना ही विद्वान क्यों न हो अंतत:वो होता पुलिस वाला ही है। उसे प्रशिक्षण जनसंपर्क का नहीं क़ानून और व्यवस्था और अपराध नियंत्रण का दिया जाता है। भाग-दौड़ सिखाई जाती है। भापुसे का अफसर बहादुर हो सकता है किन्तु दक्ष जनसंपर्क अधिकारी नहीं हो सकता।
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मध्य्प्रदेश सरकार को शायद ये नहीं मालूम कि एक समय में मध्यप्रदेश का जनसंपर्क पूरे देश में सिर्फ इसलिए अग्रगण्य माना जाता था क्योंकि यहां एक से बढ़कर एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी संचालक और आयुक्त पदस्थ किये जाते थे। उनका मुख्यमंत्री से सीधा सपर्क होता था भले ही रिश्तेदारी हो या न हो। जिले का जनसंपर्क अधिकारी भी कलेक्टर से अधिक हैसियत रखता था क्योंकि मुख्यमत्री उसे अपनी आँख,नाक,कान समझते थे। अब ये सारे गुण भापुसे और भाप्रसे के अधिकारियों में विहित हो गए हैं और जनसंपर्क अधिकारी बाबू बनाकर रख दिए गए हैं। जनसंपर्क विभाग की मूल गतिविधियां अब लगभग ठप्प हैं। अब ये संचालनालय केवल विज्ञापन देने और बदले में कमीशन लेने का दफ्तर बनकर रह गया है।
संचालनालय में स्टाफ लगातार कम हो रहा है। संघ लोक सेवा आयोग से नए अधिकारी चुनकर नहीं आ रहे और जो आ रहे हैं वे मौजूदा माहौल देखकर टिक नहीं रहे। लिपिकीय अमले का टोटा है सो अलग। संभागीय और जिला कार्यालयों की हालत बेहद खस्ता है। विभाग का दिल्ली दफ्तर एक लम्बे आरसे से बिना अधिकारी के चल रहा है। कभी-कभी लगता है कि सरकार ने जनसंपर्क को ‘खाला का घ ‘ बना दिया है। संचालक पद पर भापुसे के अधिकारी की नियुक्ति से पहले दिल्ली कार्यालय में एक डीएसपी को बिना वजह लम्बे आरसे तक रखकर दिल्ली कार्यालय की प्रतिष्ठा समाप्त कर दी गई थी।
जनसंपर्क संचालनालय में कौन रहे और कौन नहीं ये चूंकि सरकार का अधिकार क्षेत्र है। इसलिए इस पर उंगली उठाने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि अब सरकार पत्रकारों को पहले की तरह जरूरी और महत्वपूर्ण नहीं समझती। सरकार का दम्भ दिनोंदिन बढ़ रहा है। भोपाल में भी जनसंपर्क संचालनालय की दुर्दशा पर बोलने वाला कोई नहीं रहा क्योंकि अधिकांश को ‘मामा मीडिया’ में तब्दील कर दिया गया है और जो कुछ बचे हैं वे बदले हुए माहौल में अब जनसंपर्क संचालनालय में झांकते तक नहीं हैं।
बहरहाल वरिष्ठ पत्रकार श्री विजय दास के साथ हुए व्यवहार को लेकर हम सब आहत हैं, चिंतित हैं,आशंकित हैं लेकिन हम विजय दास के इस फैसले से सहमत नहीं हैं कि वे अपने अखबार का लोकप्रिय कालम एक अधिकारी के विरोध की वजह से बंद कर दें। उन्हें कहना चाहिए था कि यदि जनसंपर्क संचालक को स्तम्भ पसंद नहीं है तो वे उसे पढ़ना बंद कर दें। दास की जगह यदि मै होता तो शायद यही करता। इस प्रसंग में प्रदेश की राजधानी में सक्रिय तमाम संगठनों को पहल करना चाहिए। इस समय मौन रहना भविष्य के लिए परेशानी का सबब बन सकता है।
बेहतर हो कि सरकार जनसंपर्क संचालनालय को पूर्व की गरिमा प्रदान करे। आयुक्त को बदला जाये, संचालक पद से पुलिस वालों को फौरन हटाए और किसी अनुभवी ,अध्ययनशील,संवेदनशील जनोन्मुखी अधिकारी को ही पदस्थ करे। दिल्ली दफ्तर में तुरंत सक्षम अधिकारी नियुक्त किया जाये। पत्रकारों की रोजमर्रा की परेशानियों को सुनने और निराकरण करने की व्यवस्था की जाये। पत्रकारों को मदद के लिए निहोरे न करना पड़ें ऐसा प्रबंध किया जाये। बाकी शिव इच्छा समरथ को दोष देने का कोई फायदा नहीं है।
मध्यप्रदेश के जनसंपर्क संचालनालय में एक समय कल्पनाशील अफसरों की भरमार थी। वे अच्छे लेखक,विचारक और कलाधर्मी हुआ करते थे। स्वर्गीय संतोष शुक्ला,ओपी रावत,एलके जोशी ,सुदीप भट्टाचार्य यहाँ तक कि राकेश श्रीवास्तव,वसीम अख्तर और पी नरहरि ,ओपी श्रीवास्तव के जमाने तक जनसंपर्क संचालनालय आबाद था। पुराने दिन तो अब लौटकर आने वाले नहीं है लेकिन नए दिन अच्छे हों ये सब चाहते हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)