गरिमा से खिलवाड़: राज्यसभा की रेवड़ियां और नेताओं का नसीब
राज्यसभा लिए सियासी दलों के प्रत्याशियों के नामों के संदर्भ में वरिष्ठ पत्रकार राकेश अचल का आलेख।
देश में अगले महीने होने वाले राज्यसभा की रिक्त सीटों के चुनावों के लिए प्रत्याशियों की घोषणा के साथ ही संतोष और असंतोष के स्वर सुनाई देने लगे हैं। प्रत्याशियों की अब तक जारी सूची में एक से बढ़कर एक चौंकाने वाले नाम सामने आये हैं। सबकी कोशिश संसद के इस ऊंचे सदन में प्रवेश पाने की है।
राज्य सभा की 57 सीटों के लिए 10 जून को मतदान होना है। इसके साथ ही सांसदों के इस्तीफे की वजह से तेलंगाना की एक सीट पर 30 मई और ओडिशा की एक राज्य सभा सीट पर 13 जून को उपचुनाव होना है। इस तरह से कुल मिलाकर देखा जाए तो 15 राज्यों में राज्यसभा की 59 सीटों पर आने वाले दिनों में मतदान होना है। इन 59 सीटों में से भाजपा का वर्तमान में 25 सीटों पर कब्जा है। वर्तमान में इन 59 सीटों में से 31 राजग के पास हैं।
राज्यसभा में कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश के तीन नेताओं को राजस्थान से अपना प्रत्याशी बनाया है,जबकि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास केवल गिनती के विधायक हैं। कांग्रेस को छत्तीसगढ़ समेत कांग्रेस शासित राज्यों से दूसरे प्रदेश के नेताओं को राज्यसभा का प्रत्याशी बनाये जाने से असंतोष है। पुराने नेताओं का पत्ता साफ़ किया जा रहा है और नए चेहरे सामने लाये जा रहे हैं। 245 सदस्यों की राज्यसभा में कांग्रेस के कुल 29 सदस्य हैं। राज्यसभा के चुनाव गणित के चुनाव होते हैं। इन चुनाव में कोई भी दल सभी सीटों के लिए चुनाव लड़ने का न दम भर सकता है और न ऐसा मुमकिन है।
भाजपा ने भी राज्यसभा चुनाव के लिए अपने प्रत्याशियों की जो सूची जारी की है उसमें अनेक नाम चौंका रहे हैं। मुख्तार अब्बास नकवी को भाजपा ने घर बैठा दिया है। भाजपा की सहयोगी जेडीयू ने भी अपने कोटे के केंद्रीय मंत्री को दोबारा से प्रत्याशी नहीं बनाया है। मध्यप्रदेश से जयभान सिंह पवैया और लाल सिंह आर्य टापते रह गए और दो ऐसी महिलाओं को प्रत्याशी बना दिया गया जिनका नाम चर्चा में था ही नहीं। एक प्रत्याशी तो पार्टी के एक दिवंगत नेता की पुत्री हैं।
राज्यसभा चुनाव के लिए प्रत्याशी बनाते समय कोई भी पार्टी किसी तरह का ‘ लॉजिक ‘ सामने नहीं रखती,उसके सामने दूसरे ही लक्ष्य होते हैं और ये आज से नहीं युगों से होता आ रहा है। वे नेता जो लोकसभा चुनाव हार गए या वे नेता जो लोकसभा चुनाव नहीं लड़ सकते उन्हें राज्यसभा में भेजने की परम्परा कांग्रेस ने बनाई थी। आज सभी दल इसी परम्परा का अनुपालन कर रहे हैं। कौन,किस प्रदेश का नेता है ये बात महत्वपूर्ण नहीं है। मह्त्वपूर्ण है की कौन पार्टी, किसे राज्यसभा में भेजना चाहती है ? यानि राज्यसभा की सदस्य्ता किसी रेवड़ी से कम नहीं है जिसे मिल गयी वो खुशनसीब और जिसे नहीं मिली वो कांग्रेस के पवन खेड़ा जी की तरह अपनी तपस्या में खोट निकाल सकता है।
आजादी के बाद ये पहली बार हुआ है कि राज्यसभा में कांग्रेस के अलावा कोई दूसरा दल 100 सीटों पर काबिज है। इस समय राज्यसभा में भाजपा की 100 सीटें हैं। उसके गठबंधन की कुल सीटों की संख्या 120 है। जबकि मुख्य विपक्षी दल के पास केवल 29 सीटें हैं और पूरे विपक्ष को मिला लें तो ये संख्या 117 तक पहुँचती है। यानि यदि कांग्रेस के नेतृत्व में यदि पूरा विपक्ष एक हो जाये तो सरकार को नाकों से चने चबाना पड़ सकते हैं। मजे की बात ये है की राजग में ऐसा कोई भी दल नहीं है जिसके पास 05 से अधिक सदस्य हों जबकि विपक्ष में द्रमुक और तृमूकां के पास ही दो अंकों में सदस्य हैं। ये दोनों दल जिसके साथ खड़े हो जाएँ तो उसके तमाम संकट तल सकते हैं।
देश में ये पहली बार हुआ था जब ‘आप’ के ऊपर राज्य सभा के टिकिट बेचने का आरोप लगा था। हालाँकि ये कम पहले बसपा कर चुकी थी। आप के सदस्यों की संख्या 08 है। संसद के इस उच्च सदन में हमेशा विद्वान,वरिष्ठ नेताओं को महत्व दिया जाता रहा है। सभी दल ऐसे नेताओं को राज्य सभा में भेजते आये हैं जो सचमुच विषय विशेषज्ञ हों या पार्टी का पक्ष बेहतर तरिके से रखने की योग्यता रखते हों। अब ये पैमाना बदल गया है। कांग्रेस और भाजपा ने अपने तमाम ओजस्वी और अनुभवी नेताओं को अब घर बैठा दिया है। अब उनकी जगह इमरान प्रतापगढ़ी जैसे नेता कांग्रेस की और पियूष गोयल जैसे नेता भाजपा की पसंद हैं।
इन चुनावों में मुझे एक बात अच्छी नजर आयी की भाजपा ने कांग्रेस के मुकाबले ज्यादा संख्या में महिलाओं को अपना प्रत्याशी बनाया है। भाजपा ने एक तीर से कई निशाने साधे हैं। कांग्रेस के पास इस समय ये सुविधा नहीं है। कांग्रेस मजबूरी में एक राज्य के नेताओं का हक मारकर वहां दूसरे राज्यों के नेताओं को प्रत्याशी बना रही है। ये काम जोखिम का है, लेकिन राजनीति में जोखिम तो उठाना ही पड़ता है। कब कौन, दगा दे जाये कहा नहीं जा सकता। भाजपा अतीत में राज्यसभा चुनावों में क्रास वोटिंग की कोशिशें कर चुकी है।
हकीकत ये है की अब राज्यसभा पहले जैसी नहीं रही। अब राज्यसभा में गंभीर बहसों का लगातार अभाव हो रहा है। सरकार अपना काम बहसों के जरिये नहीं बल्कि ध्वनिमत से करा लेना चाहती है। किसान विधेयकों को लेकर ये सब देश देख चुका है। ये कोशिश जहाँ एक और राज्य सभा की गरिमा के साथ खिलवाड़ है वहीं दूसरी और आत्मघाती भी है। इसे सभी दलों को मिलकर रोकना चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)