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मंहगाई से बेअसर राजनीति, आम आदमी न आह भर सकता न कराह सकता

पत्रकार राकेश अचल का बढ़ती मंहगाई के आम आदमी पर असर और उदासीन सियासत पर आलेख

जिंदगी भंवर में है। महंगाई डायन अपने रौद्र रूप में जनता की जेब पर डाका डाल रही है और दुर्भाग्य ये की कोई तारणहार नहीं है। उस पर पोंगा-पंडित पुष्य नक्षत्र में खरीदारी करने की सलाह देकर जले पर नमक छिड़क रहे हैं। पिछले कुछ दिनों से ऐसा लगने लगा है जैसे कोई जेबकट पीछे पड़ा है ,जो बड़ी सफाई से जेब हल्की करता जा रहा है लेकिन हकीकत ये है कि जेब किसी जेबकतरे की वजह से नहीं बल्कि मंहगाई की वजह से कमजोर यानि हल्की होती जा रही है।

बढ़ती मंहगाई ने आम से लेकर ख़ास आदमी की ऐसी-तैसी कर दी है। ख़ास आदमी फिलहाल महंगाई के वार को सहने की स्थिति में है किन्तु आम आदमी का कचूमर निकला जा रहा है। विसंगति ये है कि प्रतिरोध की क्षमता खो चुका आम आदमी न आह भर सकता है और न कराह सकता है। बेलगाम सत्ता के पास मंहगाई की लगाम खींचने का जौहर नहीं है और विपक्ष के पास सत्ता के खिलाफ खड़े होने का हौसला।

इस समय देश में महंगाई जैसे मुद्दा है ही नहीं। सीमित आय पर गुजर-बसर करने वाले महंगाई के मारे हलकान हैं। महंगाई ने रसोई घर से लेकर हर चीज को अपना शिकार बना रखा है। चूल्हे को आग देने वाली रसोई गैस बढ़ते-बढ़ते हजार रुपए के आसपास पहुँच गयी है। ऊपर से शाक-भाजी,दाल,तेल के दाम चुपके से रोजाना बढ़ रहे हैं। अब या तो चूल्हा जला लीजिये या शाक-भाजी खरीद लीजिये। हालात ये हैं कि आप चटनी से भी रोटी नहीं खा सकते क्योंकि सामान्य शाक-भाजी ही नहीं टमाटर और प्याज के दाम तक आसमान छू रहे हैं। यानि अब झोला भर पैसे लेकर बाजार जाइये और मुठ्ठी भर सामान लेकर घर आइये।

राकेश अचल

पिछली तिमाही में ही पेट्रोल-डीजल के दाम प्रति माह 31 पैसे से बढ़ते-बढ़ते 4 रुपए लीटर तक बढ़ गए। अब या तो महंगा पेट्रोल-डीजल खरीदिए या अपना वाहन खड़ा कर दीजिये। आने-जाने के लिए सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था या तो है नहीं और अगर है तो ओव्हरलोड है। यानि घर में ही कैद रहिये। दाल,आटा,तेल नमक ,साबुन सब कुछ चुपचाप महंगा हो रहा है। रोजमर्रा के सामानों के दामों पर लोगों की नजर उस तरह नहीं पड़ती जैसे कि पेट्रोल और डीजल के दामों पर पड़ती है। दुकानदार कहता है कि परिवहन लागत 18 से 20 फीसदी बढ़ गयी है।

महंगाई का असर केवल राजनीति पर नहीं पड़ा है। राजनीति मंहगाई से बेअसर है। राजनीतिक दल मंहगाई से जूझने के बजाय चुनावों,उप चुनावों में जुटे हैं। कश्मीर कराह रहा है। वहां पहले कश्मीरी पंडित मारे जा रहे थे और अब गैर कश्मीरी मारे जा रहे हैं किन्तु सरकार असहाय है। अब ऐसी असहाय और उदासीन सरकार से आप क्या उम्मीद कर सकते हैं ? महंगाई रोकना जनता के हाथ में नहीं है। ये काम सरकार का है। सरकारें ये काम न खुद कर रही हैं और न अडानी-अम्बानी से मंहगाई कम करने के लिए कह रही हैं। बाजार पर इन्ही दो घरानों का कब्जा है। टाटा-बाटा जैसे बाद में आते हैं।

पिछली जनवरी में जहां पांच सौ रुपये में साढ़े पांच लीटर पेट्रोल मिलता था,लेकिन अब एक लीटर कम मिलता है। यानि आम आदमी के बजट में पेट्रोल सबसे बड़ा बोझ है। पहले जो राशन दो हजार में आता था वो ही अब तीन हजार में आ रहा है। मंहगाई ने आम आदमी से उसका खान-पान ही नहीं आवागमन और मनोरंजन तक छीन लिया है। आम आदमी की जिंदगी में बीमारियां तो कोढ़ में खाज जैसी हैं। अब आप ‘गम दिए मुस्तकिल ,कितना नाजुक है दिल’ वाला गाना ही गए सकते हैं।

एक तरफ मंहगाई बढ़ रही है दूसरी तरफ सरकार के खर्चे। सरकार कर्ज के बोझ से दबी है और तेल निकाल रही है जनता का। जनता आम आदमी के इस्तेमाल की हर चीज पर मनमाना कर वसूल कर रही है। सरकार को अपनी पड़ी है ,आम आदमी से उसका क्या लेना? आम आदमी तो चुनाव के वक्त मुफ्त बिजली-पानी जैसी लालीपाप लेकर चुप हो जाता है। आम आदमी की लड़ाई में न संसद उसके साथ है और न निर्वाचित जन प्रतिनिधि,क्योंकि उन सबको तो मोटा वेतन और भत्ते हासिल हो ही रहे हैं। जन सेवा के लिए भी पगार पाने वाले धन्य हैं। उन्हें शर्म नहीं आती। अरे भाई जनसेवा के बजाय कोई दूसरा कारोबार कर देखिये। नानी याद आ जाएगी।

मंहगाई डायन सुरसा की बड़ी बहन है | सुरसा तो छप्पन योजन का मुंह खोलने के बाद रुक भी गयी थी किन्तु मंहगाई का मुंह लगातार अपना मुंह खोले जा रही है | कोई हनुमान उसका मुकाबला करने को तैयार नहीं है। हनुमानों के पास अब कोई राम काज शेष बचा ही नहीं है। राम मंदिर का शिलान्यास हो चुका है। शिलायें पहले से रखी हुईं हैं ,ऐसे में कोई हनुमान क्यों महंगाई डायन के सामने परीक्षा देने के लिए तैयार हो? मंहगाई न छप्पन इंच के सीने से डरती है और न किसी लौह पुरुष से उसे डर लगता है। कृषि प्रधान देश का किसान सरकार और भगवान दोनों की मर झेल रहा है। बीते सात साल में भारत कृषि प्रधान देश न होकर नेता प्रधान देश हो गया है। देश की अर्थव्यवस्था नेताओं पर आधारित है कृषि पर नहीं।

मंहगाई ने सोना-चांदी को छोड़ रखा है। महंगाई डायन जानती है कि आम आदमी सोना न खा सकता है और न ओढ़-बिछा सकता है। कारण साफ हैं क्योंकि मंहगाई जानती है कि आम आदमी की हैसियत कार खरीदने की रह ही नहीं गयी। ये ख़ास आदमियों का वाहन है। मेरे पड़ौसी तो पिछले पंद्रह साल से नयी कार खरीदने की योजनाएं बना रहा हैं लेकिन उस पर अमल नहीं कर पा रहे। पंद्रह साल पुरानी कार ही उनका साथ दे रही है।

उसके पीछे भी माननीय गडकरी पड़े हैं,कहते हैं कि पुरानी कार सड़क पर चलने नहीं देंगे। जैसे सड़कें उनके पिता जी ने बनाई हैं। होना तो ये चाहिए था कि गडकरी जीवन में केवल एक कार खरीदने वालों को सम्मानित करते ,उन्हें प्रोत्साहन पैकेज देते लेकिन हो उलटा रहा है। अब कोई आम आदमी महंगे पेट्रोल के चलते नई कार कैसे खरीद सकता है ? गडकरी ने तो टोल नाकों की संख्या बढ़कर सड़कों पर चलना भी मुहाल कर दिया है।

मंहगाई रोकने के लिए धर्मभीरु सरकार को जगह-जगह मंहगाई के मंदिर बनवा देना चाहिए। सरकार तो मंहगाई को थाम नहीं पा रही। मुमकिन है कि मंदिरों में प्राण-प्रतिष्ठा पाकर मंहगाई आम जनता पर थोड़ा-बहुत रहम कर दे। |

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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