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सरोकारों नहीं बाजारों के लिए उपलब्ध अखबार, आज अग्निपरीक्षा का दिन

पत्रकार राकेश अचल का अखबारों की उपयोगिता और महत्ता पर आलेख

आज का दिन बिना अखबार के गुजरेगा। भारत में अधिकांश अखबार आज के दिन नहीं छपते। केवल टीवी और सोशल मीडिया पर खबरें उतराती रहतीं हैं। मुझे तो बिना खबर के जीने की आदत पड़ गयी है,लेकिन आज आपका क्या होगा ? आपको तो अखबार की लत पड़ चुकी है। आप तय मानिये कि आज का दिन आपकी अग्निपरीक्षा का दिन है। आज आप बिना अखबार के यानि बिना खबर के रहकर देखिये बड़ा सुकून मिलेगा।

अखबार आपके घर हर सुबह खबरों का टोकरा भर कर लाता है, किन्तु इस टोकरे में आपके मतलब की कितनी खबरें होतीं हैं, आपने कभी न सोचा होगा और न इसका आकलन किया होगा। आपको तो अखबार की काली स्याही की खुशबू की आदत पड़ गयी है। इसके बिना बहुतों का पेट साफ़ नहीं होता और अधिकाँश को चाय फीकी लगती है। आपके लिए अखबार एक जरूरत बन चुका है जबकि हकीकत में आपको इसकी जरूरत नहीं है,अखबार को आपकी जरूरत है ,क्योंकि अखबार के जरिये दुनिया का कारोबार जो चलता है।

राकेश अचल

हमारे जमाने के अखबारों में खबर ज्यादा विज्ञापन कम होते थे,आज के अखबारों में विज्ञापन ज्यादा ,खबर कम होती है। खबरों का क्षेत्रफल लगातार घट रहा है। खबरों की जगह पर विज्ञापनों ने अतिक्रमण कर लिया है। हमारे जमाने में पहले पेज पर सौ सेंटिमेंटर के एक विज्ञापन से ज्यादा बड़ा विज्ञापन लिया ही नहीं जाता था,आज के अख़बारों में पहले पेज पर सौ सेंटीमीटर जगह खबरों को दी जाती है। अरे नहीं अब तो अखबारों को भी जेकिट पहना दी जाती है। अर्थात आपका अखबार अब चार ,छह नहीं बल्कि आठ पेज की जेकट के बात शुरू होता है। उसमें भी पहला पेज सर से पांव तक विज्ञापनों से ढंका रहता है।

एक जमाने में मै भी अखबारों का आदी था लेकिन इसी साल अलगतार 8 माह अमेरिका में रहकर मेरी अखबार पढ़ने की लत छूट गयी। इस देश में जनता जी सुबह अखबारों के साथ नहीं होती। यहां घर-घर अखबार वितरण की न व्यवस्था है और न परम्परा। लोगों को खबरें उनके मोबाइल पर ही मिल जाती हैं.इसका आशय ये बिलकुल नहीं कि यहां अखबार छपते ही नहीं है,छपते हैं लेकिन अखबार खरीदने आपको चलकर किसी माल तक जाना पड़ता है। अन्यथा हर अखबार का डिजिटल संस्करण मौजूद है ,शौक से पढ़िए। मुझे लगता है कि अखबार विहीन दुनिया अखबार वालों की दुनिया से कहीं ज्यादा सुखी दुनिया है. कम से विदेशों में तो है।

भारत में एक तो अखबार अब जन सरोकारों से दूर होते जा रहे हैं,दूसरे अखबारों ने आम आदमी की भाषा को भी दूषित कर दिया है। हमारे अखबार खून आलूदा अखबार हैं। यानि उनमें अधिकांश खबरें हिंसा,अपराध,धोखाधड़ी ,लूटमार और भ्र्ष्टाचार के अलावा राजनेताओं की बकलोल से भरे होते हैं। भारत के अखबारों की विषय वस्तु में बड़ी तेजी से बदलाव आया है। अखबार अब सरोकारों के लिए नहीं बाजारों के लिए उपलब्ध हैं। .

आज चूंकि आपके हाथों में अखबार नहीं है इसलिए मुझे यकीन है कि आप मेरा ये अखबार विरोधी आलेख गौर से पढ़ लेंगे,अन्यथा आपके पास मेरा लिखा पढ़ने की फुरसत ही कहाँ है? भारत में अखबार बहुउद्देशीय माना जाता है। पहले पढ़िए,फिर अलमारियों में बिछाइये,बाद में रद्दी में बेच दीजिये। बाजार में अखबार की रद्दी पैकेजिंग के अलावा महिलाओं के बहुत काम आती है। जब टिसू पेपर और डायपर का जन्म नहीं हुआ था तब भारतीय महिलाएं अखबार से ही ये दोनों का काम लेती थीं। हमारी दादी तो अखबारों की रद्दी गलाकर लुगदी से शानदार डिजायन की डलियां बना देती थीं।

आज के अखबारों में आपको ललचाने के लिए तरह-तरह की ईनामी योजनाओं के साथ ही शेम्पू,चाय,मैगी ,काफी ,गुलाल ,तेल के पाउच तक दिए जाते हैं .उत्पादक जानता है की आप लालची आदमी हैं. मुफ्त का एक पाउच पाने के बाद एक न एक दिन बाजार से उसी तरह की पूरी शीशी खरीद लाएंगे। आज के अखबार आपको आपका बहुमूल्य वोट बेचने तक के लिए विवश और प्रेरित करने का काम करता है। आज अखबार जनमत बनाता नहीं,जनमत बिगाड़ता है। जनता की आँखों में सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा दी गयी धूल झौंकता है। आज का अखबार ठग है ठग ,बटमार है बटमार।

भारत में अखबार अब आंदोलन नहीं बल्कि उद्योग है। देश में हिंदी ,अंग्रेजी के कोई 53 हजार से ज्यादा अखबार छपते हैं। हिंदी के 40 हजार से ज्यादा अखबार हैं जबकि अंग्रेजी अखबारों की संख्या 13 हजार से ज्यादा है। हर साल पांच-छह हजार नए अखबारों का पंजीयन होता है.यानि हर साल पांच से छह फीसदी का इजाफा इन आंकड़ों में होता है। अखबारों का हाल भी भारत के शिशुओं जैसा है। वे पैदा ही खूब होते हैं और मरते भी रोज हैं। पिछले सात साल में नए अखबार कम निकले लेकिन बंद ज्यादा हुए क्योंकि केंद्र सरकार ने ऐसी परिस्थितियां बना दीं कि राजाश्रय पर पलने वाले अखबारों ने दम तोडना शुरू कर दिया। अब तोप के मुकाबले खड़े होने की ताकत रखने वाले अखबारों की संख्या उँगलियों पर गिनने लायक रह गयी है। अब गोदी में बैठने वाले अखबारों का युग है।

आप माने या न मानें लेकिन मुझे लगता है कि आने वाले कल की दुनिया में अखबार होंगे तो लेकिन इतने कम कि उन्हें संरक्षित घोषित करना पड़ेगा। दरअसल हजारों अखबारों के मुकाबले देश में सात-आठ सौ टीवी चैनल और असंख्य यू-ट्यूब चैनलों ने अखबारों का कचूमर निकाल दिया है और एक तरह से ये अच्छा ही हुआ ,क्योंकि अखबार झूठ के अलावा आपको परोस ही क्या रहे हैं ? बेहतर है कि अब झूठ के पुलिंदे बने अखबारों के बजाय किताबें पढ़े, देशाटन करें,सभा-सोसायटी में उठें-बैठें। अपनों को खत लिखें। आपको अखबारों से ज्यादा सुख मिलेगा।

मैंने तो अपनी जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा अखबारों और टीवी चैनलों की दुनिया में ही खर्च किया है, इसलिए मै पूरी जिम्मेदारी से कहता हूँ कि आप बिना अखबार और टीवी के भी ज़िंदा रह सकते हैं और बेहतर तरीके से ज़िंदा रह सकते हैं।.अखबार विहीन दुनिया सचमुच बहुत खूबसूरत हैं। बावजूद इसके यदि आपको अपना एकांत काटने के लिए अखबार चाहिए ही तो अखबार जरूर पढ़िए किन्तु अखबार से उतना ही रिश्ता रखिये जितना कि आपकी निजता को नुक्सान पहुंचाए बिना आवश्यक हो। कल्पना कीजिये जब अखबार नहीं थे,तब भी दुनिया थी और कितनी खूबसूरत दुनिया थी। सूचना क्रांति के इस युग में अखबार अब बहुत बड़ी जरूरत नहीं रह गए हैं। अखबारों को ज़िंदा रहना है तो उन्हें भी अपने आपको बदलना होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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