कांग्रेस-भाजपा से निराश नेताओं की नई उम्मीद बनती TMC
पत्रकार राकेश अचल का तृणमूल कांग्रेस के बढ़ते दायरे और कांग्रेस के संकट के सन्दर्भ में आलेख
देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस की आँखें खुलने का नाम ही नहीं ले रहीं। कांग्रेस कुम्भकर्णी नींद में है। मेघालय में कांग्रेस के 12 विधायकों का तृणमूल कांग्रेस में शामिल होना भी शायद ही कांग्रेस की आँखें खोल पाए। आम चुनावों से पहले कांग्रेस में मची भगदड़ किसी राजनीतिक भूडोल से कम नहीं है। दल-बदल की इक्का-दुक्का घटनाएं नजरअंदाज की जा सकतीं हैं लेकिन मेघालय में तो सामूहिक आयाराम-गयाराम हुआ है।
दल बदल देश की राजनीति के लिए कोढ़ जैसा है लेकिन दुर्भाग्य ये है कि हर राजनीतिक दल इस कोढ़ से लगातार ग्रस्त हो रहा है। इसके इलाज की और किसी का ध्यान नहीं है। हाल के वर्षों में दल-बदल को सबसे ज्यादा बढ़ावा भाजपा ने दिया था किन्तु अब जिसे मौक़ा मिल रहा है वो ही दल-बदल को प्रोत्साहित कर रहा है। तृणमूल कांग्रेस भी अब तेजी से दल-बदल को अंगीकार कर रही है। हाल के दिनों में कांग्रेसियों में तृण मूल कांग्रेस के प्रति आकर्षण में तेजी आयी है।
मेघालय में कांग्रेस की कमर तोड़ने से हालांकि तृणमूल कांग्रेस को फौरी तौर पर कोई लाभ नहीं हुआ लेकिन अब वह सत्ता से कुछ कदम दूर है। अभी उसे विपक्ष का तमगा हासिल हुआ है। तृणमूल ने बंगाल में विधानसभा चुनाव जीतने के बाद दल-बदल के लिए अपने दरवाजे खोले थे। पहले इन दरवाजों से भाजपा के अनेक नेता वापस तृणमूल में लौटे और अब किश्तों में कांग्रेसी भी इस पार्टी सदस्य्ता ले रहे हैं।
दरअसल अब कांग्रेस राज्यों की राजनीति की नब्ज पर हाथ रखना भूल चुकी है। इसका सबसे बड़ा खमियाजा कांग्रेस को मध्यप्रदेश में अपनी सरकार गंवाकर उठाना पड़ा था। अब मेघालय में भी ऐसा ही कुछ हो रहा है। मेघालय में विन्सेंट एच. पाला को मेघालय प्रदेश कांग्रेस कमेटी का प्रमुख बनाए जाने के बाद से पूर्व मुख्यमंत्री मुकुल संगमा नाराज चल रहे थे। मुकुल संगमा ने तृणमूल कांग्रेस के महासचिव अभिषेक बनर्जी से सितंबर में मुलाकात की थी। इसके बाद ही पूर्वोत्तर के के इस राज्य में कांग्रेस को बड़ा नुकसान होने की अटकलें लगाई जा रही थीं।
गैरभाजपा दलों में कांग्रेस और भाजपा से निराश नेताओं के लिए इस समय तृणमूल संभावनाओं वाली पार्टी बन गयी है। तृणमूल प्रमुख ममता बनर्जी ने तीन दिन के दिल्ली दौरे में तीन बड़े नेताओं को ममता ने पार्टी में शामिल किया। सबसे पहले जेडीयू के सांसद रह चुके पवन वर्मा ने पार्टी की सदस्यता ली। इसके बाद कांग्रेस नेता और पूर्व क्रिकेटर कीर्ति आजाद पत्नी पूनम आजाद को ममता बनर्जी ने उन्हें पार्टी की सदस्यता दिलाई। अशोक तंवर कभी राहुल के करीबियों में गिने जाते थे। ममता कीर्ति आजाद और अशोक तंवर के सहारे बिहार और हरियाणा में पार्टी संगठन को मजबूत करने का प्लान बना रही हैं।
कांग्रेस प्रमुख राहुल गांधी अब अपनी पार्टी को सम्हालने में समर्थ नहीं दिखाई दे रहे हैं हालांकि अभी भी विपक्षी एकता कांग्रेस के बिना अधूरी सी ही रहने वाली है। कांग्रेस से दशक पहले बाहर आकर अपना क्षेत्रीय दल बनाने वाली ममता बनर्जी अब अपनी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी की शक्ल देने के महा अभियान में जुटीं हैं। मशहूर लेखक जावेद अख्तर और भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी के करीबी रहे सुधींद्र कुलकर्णी ने भी दिल्ली में ममता बनर्जी से मुलाकात की। ये मुलाकात करीब एक घंटे तक चली। हालांकि, यह स्पष्ट नहीं है कि इनके बीच क्या चर्चा हुई।
कुलकर्णी कभी अटल बिहारी वाजपेयी के सलाहकार हुआ करते थे। वाजपेयी की तबीयत खराब होने के बाद वे लालकृष्ण आडवाणी के सलाहकार बन गए। आपको याद होगा कि कुलकर्णी ने ही 2009 लोकसभा चुनाव से पहले ‘आडवाणी फॉर पीएम ‘ अभियान शुरू किया था राजनीतिक क्षेत्र में सुधींद्र को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कट्टर विरोधी के रूप में जाना जाता है ।
मेघालय के अलावा उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस की विधायक अदिति सिंह भाजपा में शामिल हो गयीं हैं। राजस्थान में विद्रोह को जैसे- तैसे कांग्रेस ने रोक लिया है लेकिन राजस्थान समेत अनेक कांग्रेस शासित राज्यों में असंतोष भीतर ही भीतर खदक रहा है। इन इलाकों में भी ममता बनर्जी कब अपनी जगह बना लें कहा नहीं जा सकता। ममता से पहले इस देश में ज्योति बसु के समय भी विपक्षी एकता के लिए योग्य समझे गए थे किन्तु बसु आगे नहीं आये।
पिछले दशकों में नीतीश कुमार को भी इसी भूमिका के लिए उम्मीदवार समझा जाता था किन्तु उन्होंने भी भाजपा के साथ जुगलबंदी कर अपने पांवों पर कुलहाड़ी मार ली। अब वे बिहार तक सिमिट कर रह गए हैं। कांग्रेस यदि मेघालय में हुए दल-बदल के बाद भी यदि सबक नहीं लेती तो तय मानिये कि पूर्वोत्तर राज्यों की तरह ही मैदानी राज्यों में भी उसे मुंह की खाना पड़ेगी और आगामी आम चुनावों से पहले उसकी दशा इतनी कमजोर हो जाएगी कि वो भाजपा का विकल्प बनने की अपनी योग्यता खो बैठेगी।
इस समय देश के विपक्ष को एक ऐसी धुरी की जरूरत है जो भाजपा का एकजुट होकर मुकाबला करने के लिए सभी विपक्षी दलों को साथ लेकर चल सके। मायावती,अखिलेश यादव पहले से ही इस योग्यता को खो चुके हैं। दक्षिण से कोई इस चुनौती को सम्हालने की स्थिति में नजर आ नहीं रहा। ऐसे में बचतीं हैं ममता बनर्जी। आप प्रमुख अरविंद केजरीवाल भी इस भूमिका में फ़िलहाल किसी की पसंद नहीं हैं। इस लिहाज से आने वाले दिन कांग्रेस पर भारी पड़ने वाले हैं। अब देखना ये होगा कि कांग्रेस अपने जर्जर हो चुके दुर्ग की खिसकती ईंटों को दोबारा जोड़ सकती है या नहीं ?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)