Blog

प्रतिमा पर टकराव, लोकतंत्र में सम्राट मिहिर या राजा-महाराजाओं की जरूरत क्यों ?

ग्वालियर में सम्राट मिहिर भोज की प्रतिमा पर विवाद, पत्रकार राकेश अचल का सवाल

ऐतिहासिक शहर ग्वालियर में कचरा प्रबंधन न कर पाने वाले नगर निगम ने सम्राट मिहिर भोज की प्रतिमा लगाकर एक ऐसा विवाद खड़ा कर दिया है जिससे दो समाज आपस में भिड़ने पर आमादा हैं। नगर निगम की मूढ़ता की वजह से जिला और पुलिस प्रशासन हलकान है सो अलग। गुर्जर और राजपूत प्रतिमा की पट्टिका पर लिखी इबारत से नाराज हैं। पिछले चालीस साल में अपना कचरा प्रबंधन संस्थान न बना पाने वाले नगर निगम ने जितने राजा-महाराजाओं की प्रतिमाएं बनाएं हैं उतने में जनहित की कोई एक बड़ी योजना पूरी हो सकती थी। नगर निगम प्रतिमा बनवाने के लिए इतनी उत्साहित रहती है कि ज़रा से मांग पत्र पर प्रतिमाएं लगाने की स्वीकृति दे देती है। नगर निगम के प्रतिमा लगाओ अभियान की वजह से शहर के अनेक मूर्तिकार और अधिकारी पल रहे हैं। शहर में राजा-महाराजाओं की प्रतिमाओं के अलावा जानवरों तक की प्रतिमाएं लगीं हुई हैं ,और ये सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है।

जिन सम्राट मिहिर भोज की प्रतिमा को लेकर विवाद चल रह है उनका ग्वालियर से सीधा कोई तालुक नहीं है। सम्राट मिहिर भोज कन्नौज के सम्राट थे। उन्होंने 836 ईस्वीं से लेकर 885 ईस्वीं तक शासन किया था यानि की कुल 49 साल। मिहिर भोज की पत्नी चंद्रभट्टारिका देवा थी। मिहिर भोज को लेकर अकेले ग्वालियर में ही नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश के दादरी में भी विवाद हुआ। दादरी के मिहिर भोज पीजी कॉलेज में सम्राट मिहिर भोज की प्रतिमा के अनावरण के दौरान शिलापट्ट से गुर्जर शब्द हटाने को लेकर शुक्रवार को गुर्जर समाज के लोग विरोध में उतर आए। दादरी के मिहिर भोज पीजी कॉलेज में सम्राट मिहिर भोज की प्रतिमा के अनावरण को लेकर गुर्जर और राजपूत (क्षत्रिय) समाज आमने सामने थे।

राकेश अचल

सम्राट की जाति के विवाद के चलते प्रशासन को प्रतिमा की सुरक्षा के लिए चौबीस घंटे 30 हथियारबंद जवान तैनात करने पड़े हैं। सम्राट की जाति का मामला अब हाईकोर्ट पहुँच गया है। फिलहाल अदालत के निर्देश पर सम्राट की नाम पट्टिका कपडे से ढक दी गयी है। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने बीते दिन मिहिर भोज की जाति को लेकर बीजेपी पर निशाना साधा उन्होंने कहा कि, मिहिर भोज गुर्जर-प्रतिहार थे लेकिन बीजे पी के नेताओं ने उनकी जाति बदल दी जो पूरी तरह निंदनीय है।

ग्वालियर में जो हुआ सो तो दुर्भाग्यपूर्ण है ही लेकिन सम्राट मिहिर भोज की जाति यूपी चुनाव का नया मुद्दा बन गया है। इस समय यूपी की राजनीति में तमाम मुद्दे पीछे छूट चुके हैं और बवाल सिर्फ इस बात को लेकर है कि बीजेपी ने गुर्जर समाज का अपमान कर दिया है। ये आरोप लगा रही है समाजवादी पार्टी। इस विवाद पर सपा को बसपा का भी साथ मिल चुका है। जाहिर है कि सम्राट मिहिर को सियासत में भाजपा ही घसीट लायी है। मिहिर की नाम पट्टिका पर अगर सिर्फ ग्वालियर में गलती हुई होती तो समझ में आता लेकिन यही सब यूपी में भी हुआ। सवाल ये भी है कि भाजपा को अचानक सम्राट मिहिर याद ही क्यों आये? लोकतंत्र में सम्राट मिहिर या शताब्दियों पुराने राजा-महाराजाओं की जरूरत क्यों पड़ रही है?

दरअसल अब इतिहास और इतिहास पुरुष राजनीति का एक छुपा हुआ एजेंडा बन गया है और इसके लिए मिशन स्तर पर काम होता दिखाई दे रहा है। जनता को असल मुद्दों से भटकाने के लिए ये सारे प्रयोग किये जा रहे हैं। लोग किसानों आंदोलन की बात न करें,गरीबी, मंहगाई ,बेरोजगारी पर बखेड़ा खड़ा न करें इसलिए उन्हें निराधार विवादों में उलझाया जा रहा है। राजपूत या गुर्जर समाज को यदि सम्राट मिहिर इतने ही प्रिय हैं तो वे खुद उनकी प्रतिमाएं बनवाएं और उन्हें अपने संस्थानों में लगवाएं। सम्राटों की प्रतिमाएं बनवाने पर सरकारी या स्थानीय निकायों का धन बर्बाद क्यों किया जा रहा है ?

इस्लामिक देशों में बुतपरस्ती नहीं होती इसलिए वहां नेताओं,सम्राटों की प्रतिमाएं नजर नहीं आतीं लेकिन भारत की तरह लोकतान्त्रिक अमेरिका में भी चौराहे किसी सम्राट की प्रतिमा के लिए उपलब्ध नहीं कराये जाते. अमेरिका भी मूर्ति पूजक देश है। वहां महापुरुषों की प्रतिमाएं उनके स्मारकों के भीतर लगी हैं और उन्हें सरकार नहीं बनवाती। पुराने सोवियत संघ के समय लगवाई गयीं प्रतिमाओं का क्या हश्र हुआ,दुनिया जानती है लेकिन भारत में ठीक इसका उलटा है। यहां राजा मिहिर भोज से लेकर महाराजा सिंधिया तक की प्रतिमाएं बनवाने और लगवाने का काम सरकार या स्थानीय निकाय करते हैं।

आप सवाल कर सकते हैं कि प्रतिमाओं के पीछे की राजनीति के चलते संगीत की राजधानी में किसी चौराहे पर किसी महान संगीतज्ञ की प्रतिमा क्यों नहीं हैं ? राजा मान सिंह से लेकर महाराज और राजमाताओं की प्रतिमाएं क्यों ? ग्वालियर का महारानी अहिल्या से क्या ताल्लुक है ? पंडित दीनदयाल की प्रतिमा ग्वालियर में क्यों है? कुल मिलाकर सत्ता में जो होता है वो प्रतिमाएं थोक देता है। कांग्रेस सत्ता में थी तो ग्वालियर में महात्मा गाँधी,नेहरू और संजय गांधी तक की प्रतिमाएं लगीं लेकिन राजीव की प्रतिमा मंजूरी के बाद नहीं लगी। एक तोमर सत्ता में आये तो राजा मानसिंह की प्रतिमा बन गयी और ये सिलसिला सम्राट मिहिर भोज तक जारी है।

ग्वालियर वो शहर है जहां प्रतिमाओं की कोई कमी पहले से नहीं रही। ढाई सौ साल के सिंधिया शासन में कभी किसी संगीतज्ञ की प्रतिमा नहीं लगी। लगी तो सिंधिया शासकों की लगीं। रानी लक्ष्मी बाई और विवेकानंद ,भगत सिंह जैसों की प्रतिमाएं भी राजनीति के चलते लगीं। देवी अहिल्या की प्रतिमा तुष्टिकरण के लिए लगी। लाल, बाल ,पाल की प्रतिमाएं डॉ पापरीकर की जिद की वजह से लगीं। बेटी बचाओ अभियान की सांकेतिक प्रतिमाएं जेबें भरने के लिए लगायी गयीं।

ये प्रतिमाएं न किसी को प्रेरणा देती हैं न ही इन्हें स्थापित करने वाले इनकी सुध लेते हैं लेकिन जब राजनीति की जरूरत होती है तो सब आगे-आगे दिखाई देते हैं। ये प्रतिमाएं केवल जन्मदिन और पुण्य तिथि पर फोटो खिंचवाने के काम आती हैं।

बेहतर हो की प्रतिमाओं की राजनीति हमेशा के लिए बंद कर दी जाये। स्थानीय निकाय कचरा प्रबंधन और रूप वे जैस महत्वपूर्ण कार्यों पर पैसा खर्च करें न की बेजान प्रतिमाओं के निर्माण पर। यदि प्रतिमाएं लगना बहुत जरूरी जान पड़ता है तो निजी संस्थाएं अपने संसाधनों से अपने-अपने परिसरों में प्रतिमाएं लगाए। शहर के तिराहों, चौराहों को बदसूरत न बनाये। ये प्रतिमाएं यातायात में बाधक होतीं हैं। प्रतिमाहीं चौराहे यदि हरियाली से भरपूर रहें तो कितना अच्छा हो।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Back to top button