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पठान के बहाने पड़ताल, बेसिरपैर का विरोध सामूहिक चेतना के दिवालियेपन का ऐलान

लोकतंत्र में विरोध अधिकार, लेकिन सिर्फ़ नफ़रत के लिए विरोध और उसके नाम पर गुंडई सभ्य समाज में नहीं स्वीकार

टेंशन में न आइए…हम फिल्म की समीक्षा नहीं लिख रहे। हम इसके बहाने हमारे समाज की सामूहिक चेतना की पड़ताल कर रहे हैं। फिर भी पहले फिल्म पर दो बात कर लेते हैं। एक घनघोर मसाला फिल्म जैसी होती है वैसे ही पठान है। तकनीक और अति आधुनिक कैमरे के कमाल से धड़कती हुई परदे पर उतरती है। दमदार सीन और डायलॉग पर स्क्रीन के सामने सीटी बजाते नचाते दर्शक इस बात का ऐलान करते हैं कि फिल्म पैसा वसूल है।

ज़ाहिर है जब दीपिका पादुकोण भगवा बिकिनी में अवतरित होती है तो दर्शक आसमान सिर पर उठा कर अपनी जीत का उदघोष करते हैं। फिल्म ने पहले ही दिन कमाई का रिकॉर्ड तोड कर कई और नए रिकॉर्ड बनाए हैं। फिल्म अच्छी है या बुरी अब ये बहस बेमानी है। लॉजिक मत ढूंढिए साहब..लॉजिक तो शोले, पुष्पा और RRR में भी कहीं नहीं था।

? बायकॉट के बाद भी बिकिनी तो भगवा ही है…

हिंदुत्व के नाम पर नफ़रत फैलाने वाले एक गिरोह ने दीपिका की भगवा बिकिनी पर आसमान सिर पर उठा लिया। कथित साधु, साध्वियां चंद सेकेंड के ट्रेलर से ही हिंदू धर्म के नष्ट होने का खतरा बता कर चीखने चिल्लाने लगे।मप्र के गृह मंत्री तक इस पर भृकुटी तरेरते दिखे।
( लेकिन उन पर तो खुद प्रधानमंत्री ने भृकुटी टेढ़ी कर ली सो वे तो कान पकड़ कर चुप्पा बैठ गए।)

डॉ राकेश पाठक

हद ये कि हिंदू हृदय सम्राट प्रधानमंत्री, कट्टर हिंदू सरकार, उसी का हुक्का भरने वाला सेंसर बोर्ड होते हुए नफरती गिरोह बेशर्म रंग गाने में से भगवा बिकिनी का रंग नहीं बदलवा पाया। चुल्लू भर पानी ढूंढ लेना चाहिए। लानत है..!

लोकतंत्र में किसी भी बात का विरोध करना, बायकॉट का आह्वान करना, शांतिपूर्ण प्रदर्शन करना किसी का भी अधिकार है। लेकिन सिर्फ़ नफ़रत के लिए ऐसे विरोध और उसके नाम पर गुंडई सभ्य समाज में स्वीकार नहीं हो सकती।

अगर फिल्म सच में समाज में कोई गलत संदेश देती हो, नफ़रत फैलाती हो, सामाजिक समरसता को डसने का काम करती हो तो उसके लोकतांत्रिक विरोध से कोई ऐतराज नहीं।
बिकिनी तो बहाना थी असल में शाहरुख खान के मुसलमान होने मात्र से एक गिरोह ने नफ़रत का खेल खेला था। उनका खेल देश के आम लोगों ने फिल्म को हिट करके खराब कर दिया।

?ये कहां आ गए हम विरोध करते करते…

कुदरत के रंगों के नाम पर नफ़रत का बाज़ार सजाने वालों ने अपनी सामूहिक चेतना के दिवालियेपन का ऐलान करने में कोई कोर कसर बाक़ी नहीं रखी।

एक फिल्म में चंद सेकेंड के लिए किसी हीरोइन के भगवा रंग की बिकिनी पर विरोध का ऐसा अंधड़ चला कर बता दिया कि ये हमें उल्टे पांव सोलहवीं सदी की ओर ले जाना चाहते हैं।

सन 1970 यानी बावन साल पहले आई फिल्म ‘जानी मेरा नाम’ में ‘हुस्न के लाखों रंग…’ गाने में पद्मा खन्ना ने भी ऐसी ही भगवा बिकिनी पहन कर उत्तेजक डांस किया था। तब आपके बाप दादों, अम्मा,नानी ने इसका बायकॉट नहीं किया था। क्या उन्हें हिंदुत्व की फिकर नहीं थी..?

इसके अलावा बीती आधी सदी में बीसियों गानों में ऐसे ही रंग के अंतः वस्त्र तमाम हीरोइनों ने भी पहने। खूब नाच दिखाया लेकिन तब न किसी धर्मध्वजाधारी गिरोह ने ऐसा तांडव नृत्य किया और न सिनेमा घरों में बवाल करने कोई पहुंचा। न ‘जानी मेरा नाम’ के गाने से हिंदू और हिंदुत्व खतरे में पड़ा और न अनगिनत दूसरी फिल्मों में भगवा रंग के कपड़ों से।
(वैसे ये लोग भगवाधारी कथित बाबाओं के दुष्कर्म पर इतनी चिंता करते तो समाज और हिंदुत्व का कुछ भला हो जाता।)

? मौसम बिगड़ने वाला है..कुर्सी की पेटी बांध लीजिए..

पठान फिल्म में एक डायलॉग है… ‘मौसम बिगड़ने वाला है…अपनी कुर्सी की पेटी बांध ले।’
फ़िल्म को आम दर्शक ने दिल खोलकर देखा और विरोध करने वालों को संदेश दिया है कि उनका मौसम बिगड़ने वाला है।

पठान फिल्म का बेसिरपैर का विरोध औंधे मुंह, चारों खाने चित्त हो चुका है। नफरती गिरोह अब इसकी सफलता में मुसलमानों का योगदान बता रहा है लेकिन असलियत यह है कि आम भारतीय ने ही इसे सफल बनाया है चाहे हिंदू हो या मुसलमान, सिख या ईसाई।
दर्शक ने सिर्फ़ दर्शक बन कर इसे देखा और मजा लिया।
यह इस बात का भी अनाउंसमेंट है कि नफरती गिरोह के लिए मौसम बिगड़ने वाला है..उसे कुर्सी की पेटी बांध लेना चाहिए। अब उसके ऐसे बेहूदा आह्वान पर लोग उसके गाल पर तमाचा मारेंगे यह संकेत दे दिया गया है।

इति सिद्धम।

(डॉ राकेश पाठक वरिष्ठ पत्रकार और कर्मवीर न्यूज़ के प्रधान संपादक हैं।)

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